महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 3 श्लोक 77-85

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तृतीय (3) अध्याय: भीष्म पर्व (जम्बूखण्‍डविनिर्माण पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 77-85 का हिन्दी अनुवाद

जब बड़ी भारी सेना भागने लगती है, तब डरकर भागे हुए मृगों के झुंड तथा नीची भूमिकी ओर बहने वाले जल के महान् वेग की भांति उसे पीछे लौटाना बहुत कठिन है। भरतनंदन! विशाल सेना में जब भागदड़ मच जाती है, तब उसे समझा-बुझाकर रोकना कठिन हो जाता है। सेना भाग रही है, इतना सुनकर ही बडे़-बडे़ युद्धविद्या के विद्वान् भी भागने लगते हैं। राजन्! भयभीत होकर भागते हुए सैनिकों को देखकर अन्‍य योद्धाओं का भय, बहुत अधिक बढ़ जाता है; फिर तो सहसा सारी सेना हतोत्‍साह होकर सम्‍पूर्ण दिशाओं में भागने लगती है। उस समय बहत-से शूर-वीर भी उस विशाल वाहिनी को रोककर खड़ी नहीं रख सकते। इसलिये बुद्धिमान् राजा को चाहिये कि वह सतत सावधान रहकर कोई-न-कोई उपाय करके अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना को विशेष सत्‍कारपूर्वक स्थिर रखने का यत्‍न करे। राजन्! साम-दानरूप उपाय से जो विजय प्राप्‍त होती है, उसे श्रेष्‍ठ बताया गया है। भेदनीति के द्वारा शुत्रुसेना में फूटडालकर जो विजय प्राप्‍त की जाती है, वह मध्‍यम है तथा युद्ध के द्वारा मार-काट मचाकर जो शत्रु को पराजित किया जाता है, वह सबसे निम्रश्रेणी की विजय है। युद्ध महान् दोष का भण्‍डार है। उन दोषों में सबसे प्रधान है जनसंहार। यदि एक दूसरे को जानने वाले, हर्ष ओर उत्‍साह से भरे रहने वाले, कहीं भी आसक्‍त न होकर विजय-प्राप्ति का दृढ़ निश्र्चय रखने वाले तथा शौर्यसम्‍पन्‍न पचास सैनिक भी हों तो वे बड़ी भा‍री सेना को धूल में मिला देते हैं। यदि पीछे पैर न हटाने वाले पांच, छ: और सात ही योद्धा हो तो वे भी निश्र्चित रूप से विजयी होते हैं। भारत! सुंदर पंखों वाले विनतानंदन गरूड़ विशाल सेना का भी विनाश होता देखकर अधिक जनसमूह की प्रशंसा नहीं करते हैं। सदा अधिक सेना होने से ही विजय नहीं होती है। युद्ध में जीत प्राय: अनिश्र्चित होती है। उसमें दैव ही सबसे बड़ा सहारा है। जो संग्राम में विजयी होते है, वे ही कृतकार्य होते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अंतर्गत जम्‍बूखण्‍डविनिर्माणपर्व में अमङ्गलसूचक उत्‍पातों तथा विजयसूचक लक्षणों का वर्णनविषयक तीसरा अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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