गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 174

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गीता-प्रबंध
18.दिव्य कर्मी

मनुष्यों से मिलने वाले मान - अपमान या निंदा - स्तुति का उस पर कुछ भी असर नहीं पड़ सकता , क्योंकि उसके कार्य का निर्णायक अधिक विमल दृष्टि वाला कोई और ही है और उसके कार्य का पैमाना भी अलग है और उसकी प्रेरक - भाव सांसारिक पुरस्कार पर जरा भी निर्भर नहीं है। क्षत्रिय अर्जुन की दृष्टि में मान और कीर्ति का बहुत बढा मूल्य होना स्वाभाविक ही है , उसका अपयश तथा कापुरूषता के अपवाद से बचना ; उन्हे मृत्यु से भी बुरा मानना ठीक ही है, क्योंकि संसार में मान की रक्षा करना और साहस की मर्यादा को बनाये रखना उसके धर्म का अंग है , किंतु मुक्त अर्जुन को इनमें से किसी बात की परवाह करने की आवश्यकता नहीं , उसे तो केवल अपना कर्तव्य कर्म जानना है , उस कर्म को जानना है जिसकी मांग उसकी परम आत्मा उससे कर रही है , उसे वही करना है और फल को अपने कर्मो के ईश्वर के हाथों में छो़ड़ देना है। पाप - पुण्य के भेद से भी वह उपर उठ चुका है। मानव - जीव जब अपने अहंकार की पकड़ को ढीला करने के लिये और अपने प्राणावेगों के भारी और पचंड जूए के बोझ को हलका करने के लिये संघर्ष करता है तब पाप और पुण्य में विवेक का बहुत अधिक महत्व होता है।
पर मुक्त पुरूष तो इसके भी परे चला जाता है , वह इन संघषों के ऊपर उठ जाता है तथा साक्षिस्वरूप ज्ञानरूप आत्मा की पवित्रता में सुप्रतिष्ठित हो जाता है। अब पाप झड़कर गिर गया है और उसे अच्छे कर्मो से न पुण्य मिलता है न उसके पुण्य की वृद्धि होती है , और इसी तरह किसी बुरे कर्म से पुण्य की हानि या नाश भी नहीं होता , वह दिव्य और निरहं प्रकृति की अविच्छेद्य और अपरिवत्नीय पवित्रता के शिखर पर चढ गया है और वहीं आसन जमाकर बैठा है। उसके कर्मो का आरंभ पाप - पुण्य के बोध से नहीं होता , न ये उस पर लागू होते है। अर्जुन अभी अज्ञान में है। वह अपने हृदय में सत्य और न्याय की कोई पुकार अनुभव कर सकता है और मन - ही - मन सोच सकता है कि युद्ध से हटना पाप होगा , क्योंकि अधर्म की विजय होन से अन्याय , अत्याचार और अशुभ कर्म छा जाते हैं और इससे मनुष्य और राष्ट्र पीड़ित होते हैं। और इस अवसर पर यह जिजम्मेवारी उसी के सिर पर आ पडे़गी। अथवा उसके दया में हिंसा और मारकाट के प्रति घृणा पैदा हो सकती है और वह मन - ही - मन यह सोच सकता है कि खून बहाना तो हर लालत में पाप है और रक्तपात का समर्थन किसी अवस्था में नहीं किया जा सकता। धर्म और युक्ति की दृष्टि से ये दोनों मनोभाव ही एक - से मालूम होंगे ; इनमे से कौंन - सा मनोभाव किसके मन पर हावी होगा या दुनिया की दृष्टि में जंचेगा यह बात तो देश , काल , पात्र और परस्थिति पर निर्भर है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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