महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-18

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पञ्चम (5) अध्याय: भीष्म पर्व (जम्बूखण्‍डविनिर्माण पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: पञ्चम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

पञ्चमहाभूतों तथा सुदर्शनद्वीप का संक्षिप्त वर्णन

धृतराष्‍ट्र बोले- सजय! नदियां, पर्वतों तथा जनपदों-के और दूसरे भी जो पदार्थ इस भूतलपर आश्रित हैं, उन सबके नाम बताओ। प्रमाणवेत्ता संजय! तुम सारी पृथ्‍वी का पूरा प्रमाण (लम्बाई-चौड़ाई का माप) मुझे बताओ। साथ ही यहां के वनों का भी वर्णन करो। संजय बोले- महाराज! इस पृथ्‍वी पर रहने वाली जितनी भी वस्तुएं हैं, वे सब-की-सब संक्षेप से पञ्चमहाभूत-स्वरूप हैं। इसीलिये मनीषी पुरूष उन सबको ‘सर्मं’ कहते हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि- ये पञ्च महाभूत हैं। आकाश से लेकर भूमि तक जो पञ्चमहाभूतों का क्रम हैं, उसमें पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर सब भूतों में एक-एक गुण अधिक होते हैं। इन सब भूतों में भूमि की प्रधानता हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध- इन पांचों को तत्त्ववेत्ता महर्षियों ने पृथ्‍वी का गुण बताया हैं। राजन्! जल में चार ही गुण हैं। उसमें गन्ध का अभाव हैं। तेज के शब्द, स्पर्श तथा रूप- ये तीन गुण हैं। वायु की शब्द और स्पर्श दो ही गुण हैं और आकाश का एक मात्र शब्द ही गुण हैं।
राजन्! ये पांच गुण सम्पूर्ण लोकों के आश्रयभूत पञ्चमहाभूतों में रहते हैं। जिनमें समस्त प्राणी प्रतिष्ठित हैं। ये पांचों गुण जब साम्यावस्था में रहते हैं, तब एक-दूसरे से संयुक्त नहीं होते हैं। जब ये विषमभाव को प्राप्त होते हैं, तब एक-दूसरे से मिल जाते हैं। उस समय ही देहधारी प्राणी अपने शरीरों से संयुक्त होते हैं, अन्यथा नहीं। ये सब भूत क्रम से नष्‍ट होते और क्रम से ही उत्पन्न होते हैं (पृथ्‍वी आदि के क्रम से इनका लय होता हैं और आकाश आदि के क्रम से इनका प्रादुर्भाव)। ये सब अ‍परिमेय हैं। इनका रूप ईश्‍वरकृत हैं। भिन्न-भिन्न लोकों में पाञ्चभौतिक धातु दृष्टिगोचर होते हैं। मनुष्‍य तर्क के द्वारा उनके प्रमाणों का प्रतिपादन करते हैं। परंतु जो अचिन्त्य भाव हैं, उन्हें तर्क से सिद्ध करने की चेष्‍टा नहीं करनी चा‍हिये। जो प्रकृति से परे हैं, वही अचिन्त्यस्वरूप है।
कुरूनन्दन! अब मैं सुदर्शन नामक द्वीप का वर्णन करूंगा। महाराज! यह द्वीप चक्र की भांति गोलाकार स्थित हैं। वह नाना प्रकार की नदियों के जल से आच्छादित, मेघ से समान उच्चतम पर्वतो से सुशोभित, भांति-भांति के नगरों, रमणीय जनपदों तथा फल-फूल से भरे हुए वृक्षों से विभूषित है। यह द्वीप भांति-भांति की सम्पदाओं तथा धन-धान्य से सम्पन्न हैं। उसे सब ओर से लवणसमुद्र ने घेर रक्खा हैं। जैसे पुरूष दर्पण में अपना मुंह देखता हैं, उसी प्रकार सुदर्शनद्वीप चन्द्रमण्‍डल में दिखायी देता हैं। इसके दो अंश में पिप्पल और दो अंश में महान् शश दृष्टिगोचर होता हैं। इनके सब ओर सम्पूर्ण ओपधियों का समुदाय फैला हुआ हैं। इन सबको छोड़कर शेष स्थान जलमय समझना चाहिये। इससे भिन्न संक्षिप्त भूमिखण्‍ड बताया गया है। उस खण्‍ड का मैं संक्षेप से वर्णन करता हूं, उसे सुनिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत अम्बूखण्‍डविनिर्माणपर्व में सुदर्शनद्वीपवर्णन- विषयक पांचवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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