महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-13
त्रयोदश (13) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीतापर्व)
संजय का युद्धभूमि से लौटकर धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना
वैशम्पायनजी कहते हैं- भरतनन्दन! तदनन्तर एक दिन की बात है कि भूत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता एवं सब घटनाओं को प्रत्यक्ष देखने वाले गवल्गणपुत्र विद्वान् संजय ने युद्धभुमि से लौटकर सहसा चिन्तामग्न धृतराष्ट्र के पास जा अत्यन्त दुखी होकर भरतवंशियों के पितामह भीष्म के युद्धभूमि में मारे जाने का समाचार बताया। संजय बोले- महाराज! भरतश्रेष्ठ! आपको नमस्कार है। मैं संजय आपकी सेवा में उपस्थित हूं। भरतवंशियों के पितामह ओर महाराज शान्तनु के पुत्र भीष्मजी आज युद्ध में मारे गये। जो समस्त योद्धाओं के ध्वजस्वरूप और सम्पूर्ण धनुर्धरों के आश्रय थे, वे ही कुरूकुलपितामह भीष्म आज बाणशय्यापर सो रहे हैं। राजन्! आपके पुत्र दुर्योधन ने जिनके बाहुबल का भरोसा करके जूए का खेल किया था, वे भीष्म शिखण्डी के हाथों मारे जाकर रणभूमि में शयन करते हैं। जिन महारथी वीर भीष्म ने काशिराज की नगरी में एकत्र हुए समस्त भूपालों को अकेला ही रथपर बैठकर महान् युद्ध में पराजित कर दिया था, जिन्होंने रणभूमि में जमदग्निनन्दन परशुरामजी के साथ निर्भय होकर युद्ध किया था और जिन्हें परशूरामजी भी मार न सके, वे ही भीष्म आज शिखण्डी के हाथ से मारे गये। जो शौर्य में देवराज इन्द्र के समान, स्थिरता में हिमालय के समान, गम्भीरता में समुद्र के समान और सहनशीलता में पृथ्वी के समान थे। जो मनुष्य में सिंह थे, बाण ही जिनकी दाढे़ थीं, धनुष जिनका फैला हुआ मुख था, तलवार ही जिनकी जिह्वा थी ओर इसीलिये जिनके पास पहुंचना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन था, वे ही आपके पिता भीष्म आज पाञ्चालराजकुमार शिखण्डी के द्वारा मार गिराये गये।
जैसे गौओं का झुंड सिंह के देखते ही भय से व्याकुल हो उठता है, उसी प्रकार जिन्हें युद्ध में हथियार उठायें देख पाण्डवों की विशाल वाहिनी भय से उद्विग्न होकर थरथर कांपने लगती थी, वे ही शत्रुसैन्यसंहारक भीष्म दस दिनों तक आपकी सेना का संरक्षण करके अत्यन्त दुष्कर पराक्रम प्रकट करते हुए अन्त में सूर्य की भांति अस्ताचल को चले गये। जिन्होंने इन्द्र की भांति शोभरहित होकर हजारों बाणों की वर्षा करते हुए दस दिनों में शत्रुपक्ष के दस करोड़ योद्धाओं का संहार कर डाला, वे ही आज आंधी के उखाडे़ हुए वृक्ष की भांति मारे जाकर युद्धभूमि में सो रहे हैं। भरतवंशी नरेश! यह सब आपकी कुमन्त्रणा का फल हैं; नही तो भीष्मजी इस दुर्दशा के योग्य नहीं थे।
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