महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 125 श्लोक 56-72

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पञ्चविंशत्यधिकशततम (125) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 36-55 का हिन्दी अनुवाद

‘जो ग्रीष्‍म अथवा शीतकाल में सूर्य की किरणों से तापित होता है, वह अपने सारे पापों का नाश कर देता है । इस प्रकार मनुष्‍य पाप मुक्‍त हो जाता है । पाप से मुक्‍त हुए पुरुष को सनातन कान्‍ति प्राप्‍त होती है । वह अपने तेज से सूर्य के समान देदीप्‍यमान और चन्‍द्रमा के समान प्रकाशित होता है’। तत्‍पश्‍चात् देवराज शतक्रतु इन्‍द्र ने देवमण्‍डली के बीच में अपने सर्वश्रेष्‍ठ गुरु बृहस्‍पतिजी से मधुर वाणी में कहा- ‘भगवान्! मनुष्‍यों को सुख देने वाले धर्म के गूढ़-स्‍वरूप का तथा रहस्‍यों सहित जो दोष हैं, उनका भी यथावत् रूप से वर्णन कीजिये’। बृहस्‍पितजी ने कहा-शचीपते! जो सूर्य की ओर मुँह करके मूत्र त्‍याग करते हैं, वायुदेव से द्वेष रखते हैं अर्थात् वायु के सम्‍मुख मूत्र त्‍याग करते हैं, जो प्रज्‍वलित अग्‍नि में समिधा की आहुति नहीं देते तथा जो दूध के लोभ से बहुत छोटे बछड़े वाली धेनु को भी दुह लेते हैं, उन सबके दोषों का वर्णन करता हूँ । ध्‍यानपूर्वक सुनो ।। वासव ! साक्षात् ब्रह्माजी ने सूर्य, वायु, अग्‍नि तथा लोकमाता गौओं की सृष्‍टि की है। ये मर्त्‍यलोक के देवता हैं तथा सम्‍पूर्ण जगत् का उद्धार करने की शक्‍ति रखते हैं । आप सब लोग सुनें, मैं एक-एक धर्म का निश्‍चय बता रहा हूँ।
इन्‍द्र ! जो दुराचारी और कुलांकार पुरुष तथा जो समस्‍त दुराचारिणी स्‍त्रियॉं सूर्यकी ओर मुँह करके पेशाब करती हैं और जो लोग वायु से द्वेश रखते अर्थात् वायु के सम्‍मुख मूत्र त्‍याग करते हैं उन सबकी छियासी वर्षों तक गर्भ में आयी हुई संतान गिर जाती है। जो प्रज्‍जवलित यज्ञाज्ञनि में समीधा की आहुति नहीं देते, उनके अग्‍निहोत्र में अग्‍निदेव हविष्‍य ग्रहण नहीं करते हैं (अत: अग्‍नि प्रज्‍जवलित किये बिना उसे आहुति नहीं देनी चाहिये)। जो मानव छोटे बछड़े वाली गौओं के दूध दुहकर पी जाते हैं, उनके वंश में दूध पीने वाले और कुल की वृद्धि करने वाले कोई बालक नहीं उत्‍पन्‍न होते हैं । उनकी संतान नष्‍ट हो जाती है तथा उनके कुल एवं वंश का क्ष्‍ाय हो जाता है। इस प्रकार उत्‍तम कुल में उत्‍पन्‍न हुये ब्राह्मणों ने पूर्वकाल में यह प्रत्‍यक्ष देखा और अनुभव किया है ; अत: अपना कल्‍याण चाहने वाले मनुष्‍यों को शास्‍त्र में जिन्‍हें त्‍याज्‍य बतलाया है, उन कर्मों को त्‍याग देना चाहिये और जो कर्तव्‍य कर्म है, उसका सदा अनुष्‍ठान करते रहना चाहिये। यह मैं तुम्‍हें सच्‍ची बात बता रहा हूँ। तब मरुद्गणों सहित सम्‍पूर्ण महाभाग देवता और परम सौभाग्‍यशाली ऋषियों ने पितरों से पूछा- मनुष्‍यों की बुद्धि थोड़ी होती है- ; अत: वे कौन-सा कर्म करें, जिससे आप सम्‍पूर्ण पितर उनके ऊपर संतुष्‍ट होगें ? श्राद्ध में दिया हुआ दान किस प्रकार अक्षय हो सकता है ? अथवा मनुष्‍य किस कर्म से किस प्रकार पितरों के ऋण से छुटकारा पा सकते हैं ? हम यह सुनना चाहते हैं । यह सब सुनने के लिये हमारे मन में बड़ी उत्‍कंठा है’। पितरों ने कहा- महाभाग देवताओं! आपने न्‍यायत: अपना संदेह उपस्‍थित किया है । उत्तम कर्म करने वाले मनुष्‍यों के जिस कार्य से हम संतुष्‍ट होते हैं, उसको सुनिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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