महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 159 श्लोक 36-56

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एकोनषष्ट्यधिकशततम (159) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: एकोनषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 36-56 का हिन्दी अनुवाद

इस प्रकार बिना रास्‍ते के ही दौड़ते हुए विप्रवर दुर्वासा के पीछे-पीछे मैं उसी तरह सारे शरीर में खरी लपेटे दौड़ने लगा और बोला – ‘भगवन ! प्रसन्‍न होइये ‘। तब वे तेजस्‍वी ब्राह्मण मेरी ओर देखकर बोले – ‘महाबाहु श्री कृष्‍ण ! तुमने स्‍वभाव से ही क्रोध को जीत लिया है । उत्तम व्रतधारी गोविन्‍द ! मैंने यहाँ तुम्‍हारा कोई भी अपराध नहीं देखा है, अत: तुम पर प्रसन्‍न हूँ । तुम मुझसे मनोवांछित कामनाएँ माँग लो। ‘तात ! मेरे प्रसन्‍न होने का जो भावी फल है, उसे विधिपूर्वक सुनो । जब तक देवताओं और मनुष्‍यों का अन्‍न में प्रेम रहेगा, तबमक जैसा अन्‍न के प्रति उनका भाव या आकर्षण होगा, वैसा ही तुम्‍हारे प्रति भी बना रहेगा। ‘तीनों लोकों में जब तक तुम्‍हारी पुण्‍यकीर्ति रहेगी, तब तक त्रिभुवन में तुम प्रधान बने रहोगे । जनार्दन ! तुमू सब लोगों के परम प्रिय होओगे। ‘जनार्दन ! तुम्‍हारी जो-जो वस्‍तु मैंने तोड़ी-फोड़ी, जलायी या नष्‍ट कर दी है, वह सब तुम्‍हें पेर्ववत या पहले से भी अच्‍छी अवस्‍था में सुरक्षित दिखायी देगी। ‘मधुसूदन ! तुमने अपने सारे अंगों में जहाँ तक खीर लगायी है, वहाँ तक के अंगों में चोट लगने से तुम्‍हें मृत्‍यु का भय नहीं रहेगा ।
अच्‍युत ! तुम जब तक चाहोगे, यहाँ अमर बने रहोगे। ‘परंतु यह खीर तुमने अपने पैरों के तलवों में नहीं लगायी है । बेटा ! तुमने ऐसा क्‍यों किया ? तुम्‍हारा यह कार्य मुझे प्रिय नहीं लगा ।‘ इस प्रकार जब उन्‍होंने मुझसे प्रसन्‍नतापूर्वक कहा, तब मैंने अपने शरीर को अद्भुत कान्ति से सम्‍पन्‍न देखा। फिर मुनि ने रूक्मिणीसे भी प्रसन्‍नतापूर्वक कहा – ‘शोभने ! तुम सम्‍पूर्ण स्त्रियों में उत्तम यश और लोक में सर्वोतम कीर्ति प्राप्‍त करोगी । भामिनि ! तुम्‍हें बुढापा या रोग अथवा कान्तिहीनता आदि दोष नहीं दू सकेंगे । तुम पवित्र सुगन्‍ध से सुवासित होकर श्रीकृष्‍ण कीआराधना करोगी। ‘श्रीकृष्‍ण की जो सोलह हजार रानियाँ हैं, उन सबमें तुम श्रेष्‍ठ और पति के सालोक्‍य की अधिकारिणी होओगी ‘। प्रद्युम्‍न ! तुम्‍हारी माता से ऐसा कहकर वे अग्नि के समान प्रज्‍वलित होने वाले महातेजस्‍वी दुर्वासा यहाँ से प्रस्थित होते समय फिर मुझसे बोले – ‘केशव ! ब्राह्मणों के प्रति तुम्‍हारी सदा ऐसी ही बुद्धि बनी रहे ‘। प्रभावशाली पुत्र ! ऐसा कहकर वे वहीं अन्‍तर्धान हो गये । उनके अदृश्‍य हो जाने पर मैंने अस्‍पष्‍ट वाणी में धीरे से यह व्रत लिया कि ‘आज से कोई ब्राह्मण मुझसे जो कुछ कहेगा, वह सब मैं पूर्ण करूँगा ‘।
बेटा ! ऐसी प्रतिज्ञा करके परम प्रसन्‍नचित्त होकर मैंने तुम्‍हारी माता के साथ घर में प्रवेश किया। पुत्र ! घर में प्रवेश करके मैं देखता हूँ तो उन ब्राह्मण ने जो कुछ तोड़-फोड़ या जला दिया था, वह सब नूतनरूप से प्रस्‍तुत दिखायी दिया। रूक्मिणीनन्‍दन ! वे सारी वस्‍तुएँ नूतन और सुदृढ रूप में उपलब्‍ध हैं, यह देखकर मुझे बड़ा आश्‍चर्य हुआ और मैंने मन-ही-मन द्विजों की सदा ही पूजा की। इस तरह मैंने उनसे विप्रवर दुर्वासा का सारा माहात्‍म्य कहा था। प्रभो ! कुन्‍तीनन्‍दन ! इसवी प्रकार आप भी सदा मीठे वचन बोलकर और नाना प्रकार के दान देकर महाभाग ब्राह्मणों की सर्वदा पूजा करते रहें। भरतश्रेष्‍ठ ! इस प्रकार ब्राह्मण के प्रसाद से मुझे उत्तम फल प्राप्‍त हुआ । वे भीष्‍म जी मेरे विषय में जो कुछ कहते हैं, वह सब सत्‍य है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत्‍ दानधर्म पर्व में दुर्वासा की भिक्षा नामक एक सौ उनसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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