भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 214

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अध्याय-12
व्यक्तिक भगवान् की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है भक्ति और ध्यान

   
20.ये तु धम्र्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्धधाना मत्परमा भक्तास्तेअतीव मे प्रियाः।।
परन्तु जो लोग श्रद्धापूर्वक मुझे अपना सर्वोच्च लक्ष्य मानते हुए इस अमर ज्ञान का अनुसरण करते हैं, वे भक्त मुझे बहुत से अधिक प्रिय हैं।श्रद्धाना:: श्रद्धा रखने वाले। अनुभव प्राप्त होने से पहले आत्मा में श्रद्धा होनी चाहिए, जिसके साथ मन और प्राण की सहमति विद्यमान रहती है। जिन लोगों को अनुभव प्राप्त हो जाता है, उनके लिए यह दृष्टि का विषय है; अन्य लोगों के लिए यह श्रद्धा है, एक पुकार या एक विवशता।जब हम वस्तुओं में एक आत्मा को देखने लगते हैं, तब समचित्तता, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं से मुक्ति, हमारे सम्पूर्ण स्वभाव का अन्तर्यामी आत्मा के प्रति आत्मसमर्पण और उसके प्रति प्रेमभाव उत्पन्न हो जाता है। जब ये गुण प्रकट हो जाते हैं, तब हमारी भक्ति पूर्ण हो जाती है और हम परमात्मा के अपने आदमी बन जाते हैं। तब हमारा जीवन आकर्षण और विकर्षण की शक्तियों, मित्रता और शत्रुता, सुख और दुःख द्वारा पे्ररित नहीं होता, अपितु केवल इस एक ही इच्छा से प्रेरित होता है कि हम अपने-आप को अर्पित कर दें, जो संसार भगवान् के साथ एकरूप है। [१]
इति ’ ’ ’ भक्तियोगो नाम द्वादशोअध्यायः।
यह है ’भक्तियोग’ नामक बारहवां अध्याय।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलसीदास के शब्दों मे: ’’हे प्रभु, मुझ पर करुणा कीजिए; कि अच्छे और शुद्ध का अनुसरण कर सकूं; कि सीधी-सादी वस्तुओं से सतुष्ट रहूं; कि अपने साथियों का साधनों के रूप में नहीं, अपितु साध्य के रूप में प्रयोग कर सकूं; कि उनकी मन, वचन और कर्म द्वारा दृढ़तापूर्वक सेवा कर सकूं; कभी द्वेष या लज्जा का कोई शब्द मुंह से न निकालूं; सब स्वार्थ और अभिमान को त्याग दूं; दूसरों की निन्दा न करूं; मन को शान्त रख सकूं; चिन्ताओं से रहित जो जाऊं और तुमसे दूर न भटकूं; न सुख के और न दुःख के कारण; मेरे चरणों को इस मार्ग पर चला दो; और मुझे इस मार्ग पर दृढ़ रखो; केवल इस प्रकार मैं तुम्हें प्रसन्न कर सकूंगा और तुम्हारी ठीक-ठाक सेवा कर सकूंगा।’’ -एम0 के0 गांधीः सोंग्स फ्रॅाम प्रिजन (1934), पृ0 52

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