गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 320

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:२२, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण ('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म,...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य

अब हम गीता के योग के उस अंतरतम सारतत्व में आ गये हैं जो गीतोपदेश के समस्त जीवन और प्राण का श्वास - प्रयास केन्द्र है। अब हम बिलकुल स्पष्ट रूप से यह देख सकते हैं कि सीमित मानवजीव जब अहंकार और निम्न प्रकृति से हटकर स्थिर , शांत और अविकार्य अक्षर आत्मा में आ जाता है तब उसका आरोहण केवल एक प्रथम सोनान , एक प्राथमिक परिवर्तनमात्र होता है। और अब हम यह भी देख सकते हैं कि गीता में आरंभ से ही ईश्वर का , मानवरूप में परमेश्वर का क्यों इतना आग्रह किया गया है - उन परमेश्वर को जो अहं , माम् आदि पदों से अपने - आपको सूचित करते हैं और ऐसा मालूम होता है कि ये शब्द किसी महान् निगूढ़ और सर्वव्यापक उन परमात्मा का संकेत करते हैं जो सब लोकों के महैश्वर और मानवजीव के नाथ हैं और जो उस अक्षर आत्मसत्ता से भी महान् हैं जो सदा शांत और अचल रहती और प्राकृत विश्व के अंतर्बाह्य दृश्यों से निरंतर अलिप्त बनी रहती है।सारा योग भगवान् की खोज है , सनातन पुरूष के साथ मिलन की ओर प्रस्थान है। भगवान् और सनातन के संबंध में हमारी भावना जिस अंशतक पूर्ण होगी उसी अंशतक हमारी खोज का मार्ग तथ हमारा मिलन प्रगाढ़ और पूर्ण होगा और हमारा साक्षात्कार समग्र होगा।
मनुष्य जो मानस - जीव है , अपने सीमित मन के रास्ते से असीम अनंत की ओर चलता है और इसलिये उसे अनंत की ओर इसी सीमित के समीप का कोई द्वार खोलना पड़ता है। वह कोई ऐसी भावना ढूंढ़ता है जिसे बुद्धि पकड़ सके , अपनी प्रकृति की किसी ऐसी शक्ति को चुन लेता है जो अपने ही निर्बाध उन्नतिसाधक बल से उस अनंत सत्य तक पहुंच जाये और उसे छू ले जो स्वयं उसकी बुद्धि की ग्रहणशक्ति के परे है। उस अनंत सत्य के तो असंख्य रूप , असंख्य वाचक शब्द और और असंख्य आत्मसंकेत हैं। वह इन्हीं मे से किसी एक रूप को देखने का प्रयास करता है जिसमें उसीकी भक्ति करके प्रत्यक्ष अनुभूति के द्वारा उस अप्रमेय सत्य को पा ले जिसका यह एक प्रतीक है। यह द्वार चाहै कितना ही तंग क्यां न हो, यदि यह उसे आकर्षित करनेवाली विशालता को प्राप्त होने की कुछ भी आशा दिलता है , यदि उसकी आत्मा को पुकारनेवाले ‘ तत् ’ की अथाह गंभीरता और अगम्य उच्चता के रास्ते पर उसे ला खड़ा करता है तो इतने से उसे संतोष हो जाता है। और वह जिस तरह उसकी ओर आगे बढ़ता है , उसी तरह वह उसे ग्रहण कर लेता है।दार्शनिक बुद्धि अपकर्षक निरपेक्ष तात्विक ज्ञान के द्वारा सनातन को प्राप्त होने का प्रयास करती है। ज्ञान का कर्म बुद्धि के द्वारा ग्रहण करना और सीमित बुद्धि के लिये इसका अर्थ होता है लक्षण करना और निर्धारित करना । परंतु अनिधार्य को निर्धारित करने का एकमात्र मार्ग किसी - न - किसी प्रकार का सार्वत्रिक निषेध अर्थात् ‘‘ नेति नेति ” ही होता है। इसलिये बुद्धि सनातन - संबंधी जो कोई कल्पना करती है उसमें से उन सब चीजों को हटाती चलती है जो इन्द्रियों और हृदय तथा बुद्धि द्वारा सीमित होनेवाली प्रतीत होती है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध