गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 324

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य

निषेधस्वरूप निष्क्रियता , मौन वृत्ति , जीवन ओर कर्म के संन्यास का मार्ग जिससे लोग अनिर्देश्य परम स्वरूप के अनुसंधान में लगते हैं , गीता की दर्शनप्रणाली में स्वीकृत और समर्पित है , पर केवल एक गौण अनुज्ञा के रूप से । यह निषेधात्मक ज्ञानमार्ग सनातन ब्रह्म की ओर सत्य के एक पहलू को लिये चलता है और यह वह पहलू है जहां , प्रकृतिस्थ देहधारी जीवों के लिये पहुंचना अत्यंत कठिन है ; यह मार्ग नियमादिकों से बहुत ही कसा हुआ और अनावश्यक रूप से दुर्गम बना हुआ है इसपर चलना क्षुरस्य धारा निशिता दुतत्यया पर चलना है सब संबंधों को त्यागकर नहीं बल्कि सब संबंधों द्वारा वे ‘ अनंत ’ भगवान् मनुष्य के लिये स्वभाविक रूप से प्राप्य हैं और बहुत सुगमता के साथ , अंत्यत व्यापक और अत्यंत आत्मीय रूप में मनुष्य उन्हें पा सकता है। यह देखना कि परम तत्व “ अवयवहार्य ” है अर्थात् जगत् में स्थित मनुष्य के मनोमय , प्राणमय और अन्नमय जीवन से वह कोई ताल्लुक नहीं रखता , व्यापकता या परम सत्य नही है , न जिसे ‘‘ व्यवहार” या अगत्प्रपंच कहैते हैं वह पंरमार्थ के सर्वथ विपरीत ही है। अत्युत सहस्त्रों ऐसे संबंध हैं जिनके द्वारा सनातन परम पुरूष का हमारे मानवजीवन के साथ गुप्त संपर्क ओर एकीभाव है हमारी प्रकृति तथा जगत् की प्रकृति के जितने भी मूलभाव हैं उन सबके द्वारा , सर्वभावेन , वह संपर्क इन्द्रियगम्य हो सकता है और वह एकीभाव हमारे जीवचैतन्य , हृदय , मन , बुद्धि और आत्मचैतन्य को प्रत्यक्ष अनुभूत हो सकता है।
इसलिये यह दूसरा मार्ग मनुष्य के लिये स्वाभाविक और सुलभ है। भगवान् अपने - आपको हमारे लिये किसी प्रकार दुर्लभ नहीं बना रखते ; केवल एक चीज की जरूरत है , एक ही मांग है जो पूरी करनी होगी , वह चीज यही है कि जीव को अपने अज्ञान का आवरण भेदने की अनन्य अदम्य लालसा हो और उसका मन , हृदय और प्राणों के द्वारा होने वाला सारा अनुसंधान निरंतर उसीके लिये हो जो सतत उसके समीप है , उसीके अंदर है , उसीके जीवन का जीवनतत्व , उसका आत्मतत्व , उसके वैयक्तिक और निर्वैक्तिक भाव का गुप्त तत्व , उसकी आत्मा और उसकी प्रकृति दोनों है। हमारी सारी कठिनाई इतनी ही है , बाकी हमारी सत्ता के स्वामी स्वयं देख लेंगे और उसे पूरा करेंगे।गीतोपदेश के जिस मार्ग में गीता के समन्वय का रूख विशुद्ध ज्ञानपक्ष की और बहुत ही अधिक है उसी भाग में हम यह देख चुके हैं कि गीता अपने श्रोता को इस पूर्णतर सत्य ओर अधिक अर्थपूर्ण अनुभव के लिये बराबर तैयार कर रही है। स्वतःसिद्ध अक्षर ब्रह्म के साक्षत्कार का जैसा निरूपण गीता ने किया है उसीमें यह भाव निहित है। गीतानिरूपित वह अक्षर सर्वभूतांतरात्मा अवश्य ही प्रकृति के कर्मो में प्रत्यक्ष रूप से कोई दखल देता नजर नहीं आता ; पर प्रकृति के साथ उसका कोई संबंध न हो ओर प्रकृति से वह सर्वथा दूर हो ऐसी भी बात नहीं है। क्योंकि वह हमारा द्रष्टा और भर्ता है ; वह मौन और निर्वैयक्तिक अनुमति देता है ; निष्क्रिय भोग तक वह भोगता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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