भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 158

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अध्याय-6
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं

  
14.प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।
प्रशान्त मन वाला और निर्भय, ब्रह्माचर्य-व्रत का पालन करता हुआ वह अपने मन को मेरी ओर मोड़कर और केवल मुझमें ध्यान लगाकर संयत होकर बैठ जाए।ब्रह्मचरिव्रते स्थितः: : ब्रह्मचर्य के व्रत में दृढ़। योग के साधक को यौन मनोवेगों पर नियन्त्रण रखना चाहिए। हिन्दू-परम्परा शुरू से ही ब्रह्मचर्य पर बहुत जोर देती आई है। प्रश्नोपनिषद् में पिप्पलाद जिज्ञासुओं से एक वर्ष तक और ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करने को कहता है, जिसके बाद वह उन्हें उच्चतम ज्ञान में दीक्षित करने का वचन देता है। छान्दोग्य उपनिषद् में ब्रह्मा ने इन्द्र को ब्रह्म का ज्ञान उससे एक सौ एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करवाने के बाद दिया था। ब्रह्मचर्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि यह मन, वाणी और कर्म द्वारा सब दशाओं, सब स्थानों और सब कालों में मैथुनों का परित्याग है।[१] कहा जाता है कि देवताओं ने ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा मृत्यु को जीत लिया था।[२]ज्ञानसंकलिनी तन्त्र में शिव कहता है कि सच्चा तप ब्रह्मचर्य है और जो निरन्तर इसका पालन करता है, वह मनुष्य नहीं, देवता है।[३] ब्रह्मचर्य का अभिप्राय तपस्वियों का-सा अविवाहित जीवन नहीं, अपितु इसका अभिप्राय संयम है। हिन्दू-परम्परा में यह जोर देकर कहा गया है कि जो गृहस्थ अपने यौन जीवन को नियन्त्रित रखता है, वह उतना ही सच्चा ब्रह्मचारी है, जितना कि वह, जो यौन-सम्बन्ध से सदा दूर रहता है।[४]ब्रह्मचारी रहने का अर्थ इन्द्रियों को निर्जीव कर देना और हृदय की मांग को अस्वीकार कर देना नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. याज्ञवल्क्य लिखता है: कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा। सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ।।
  2. ब्राह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत। - अथर्ववेद।
  3. न तपस्तम इत्याहुः ब्रह्मचर्य तपोत्तमम्। ऊध्र्वरेताभवेद्यस्तु सदेवो न तु मानवः।। ब्रह्मचर्य-पालन की कठिनाई अनेक ऋषियों के जीवन में स्पष्ट की गई है। सेण्ट आगस्टाइन प्रार्थना किया करता था: ’’मुझे ब्रह्मचर्य और इन्द्रिय-निग्रह प्रदान करो, कवेल अभी नहीं।’’- कन्फ्रैशन्स, खण्ड 8, अध्याय 7। रोदिन ने इस सारी वस्तु को एक मूर्तिकलाकृति में प्रस्तुत किया है, जिसकानाम ’शाश्वत प्रतिमा’ (ऐटर्नल आइडल) है। इसमें एक स्त्री घुटनों के बल बैठी है। वह पीछे की ओर झुकी हुई है, परन्तु उसका शरीर आगे की ओर बढ़ा हुआ है, और उसकी बाहें ढीली-ढाली झूल रही हैं। वह अपने उरोजों के बीच में एक पुरुष के दढ़ियल मुख को संभाल रही है, जो उसके आलिंगन की चाटुकारितापूर्ण लालसा से उसके सम्मुख घुटनों के बल बैठा हुआ है। हजारों में मुश्किल से कोई एक आदमी ऐसा होगा, जो अपनी परमपात्र स्त्री को पाने के लिए अपने सब आदर्शों, अपनी उच्चतम दृष्टि और उस प्रत्येक वस्तु को, जो उसके लिए परमात्मा का प्रतिनिधित्व करती है, त्याग न दे। अनेक समकालीन लोगों की सम्मति में ब्रह्मचर्य-पालन एक ऐसी दशा है, जो उतनी ही स्वार्थपूर्ण है, जितनी कि नीरस। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचर्य पर हिन्दुओं द्वारा दिया गया इतना जोर कुछ बेतुका और अतिरंजित-सा प्रतीत हो सकता है।
  4. भार्या गच्छन् ब्रह्मचारी ऋतौ भवति वै द्विजः । - महाभारत। साथ ही देखिए मनु। हिन्दू-परम्परा में अहल्या, सीता, मन्दोदरी, द्रौपदी और तारा सतीत्व की आदर्श मानी जाती है 5, महापतिव्रतता। उन्हें पंचकन्या भी कहा जाता है। टामस हार्डी हमसे कहता है कि हम टैस को एक पवित्र स्त्री समझें। ब्रह्मचर्य मन की एक दशा है।को भी एक उपाय बताया गया है। मन स्थिर हो जाता है, परन्तु वह रिक्त नहीं रहता, क्योंकि वह भगवान् में एकाग्र रहता है, मच्चितः मत्परः।केवल वही लोग वास्तविक (ब्रह्म) को देख सकते हैं, जिनकी दृष्टि एकाग्र हो। आत्मिक जीवन कोई प्रार्थना या याचना नहीं है। यह तो प्रभूत भक्ति, मौन उपासना है। यह आत्मा की आन्तरिकतम गहराइयों तक, जो व्यक्तिक आत्मा को सीधा ब्रह्म-तत्व से सम्बन्धित करती हैं, पहुंचने के लिए चेतना का द्वार है। जो इस कला को सीखते हैं, उनके लिए किसी बाह्म सहायता, किसी धर्मसिद्धान्त में विश्वास या किसी कर्मकाण्ड में भाग लेने की आवश्यकता नहीं रहती। उन्हें सृजनात्मक दृष्टि प्राप्त हो जाती है, क्यों कि वे अनासक्ति के साथ तल्लीनता का मिश्रण करते हैं। वे संसार में कर्म करते हैं, परन्तु उनकी वासनाशून्य आत्मा की प्रशान्तता अक्षुब्ध रहती है। उनकी तुलना सरोवर के कमल से की जाती है, जो कि तूफान में भी अकम्पित ही बना रहता है।

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