भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 157

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-6
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं

  
11.शुचै देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्तिं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तम्।।
किसी स्वच्छ स्थान में ऐसी जगह अपना आसन बिछाकर, जो न बहुत ऊंची हो और न बहुत नीची हो, उस पर कुशा घास, मृगचर्म और वस्त्र एक के ऊपर एक बिछाकर;
 
12.तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियसक्रियः।
उपविश्वासने युज्जाद्योगमात्मविशुद्धये।।
वहां उस आसन पर बैठकर, अपने मन को एकाग्र करके और चित्त और इन्द्रियों को वश में करके योगी को आत्मा की शुद्धि के लिए योगाभ्यास करना चाहिए। यहां योग का अभिप्राय ध्यानयोग है। सत्य को हृदयंगम करने के लिए मनुष्य को व्यावहारिक हितों के चंगुल से मुक्त किया जाना चाहिए, जो (व्यावहारिक हित) हमारे बाह्य और भौतिक जीवन के साथ बंधे हुए हैं। इसके लिए मुख्य शर्त अनुशासित अनासक्ति है। हमें वस्तुओं को उस रूप में देखने की शक्ति का विकास करना चाहिए, जिस रूप में स्वतन्त्र अविकृत बुद्धि उन्हें देखती। इसके लिए हमें अपने-आप को मार्ग में से हटा लेना होगा। जब पाइथागोरस से प्रश्न किया गया कि वह अपने-आप को दार्शनिक क्यों कहता है तो उसने उत्तर में आगे लिखी कहानी सुनाई। उसने मानव-जीवन की तुलना आलिम्पिया के महान् उत्सव के साथ की, जहां पर सारी दुनिया रंग-विरंगी भीड़ बनकर आती है। कुछ लोग वहां मेले में व्यापार करने और आनन्द लेने आते हैं, कुछ लोग प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतने की इच्छा से आते हैं और कुछ लोग केवल दर्शक होते हैं; और ये अन्तिम प्रकार के लोग दार्शनिक हैं। ये अपने-आप को तात्कालिक समस्याओं और व्यावहारिक आवश्यकताओं की जल्दबाजी से मुक्त रखते हैं। शंकराचार्य ने इस बात को स्पष्ट किया है कि ज्ञान के साधक के लिए आधारभूत योग्यताएं, नित्य और अनित्य के बीच भेद करने की क्षमता, कर्म के पार्थिव और दिव्य फलों का उपभोग करने से विरक्ति, आत्मसंयम और आत्मिक स्वतन्त्रता के लिए तीव्र इच्छा हैं।[१] प्लेटो की दृष्टि से सम्पूर्ण ज्ञान का उद्देश्य ’शिव’ (गुड) के विचार के मनन तक अपने-आप को ऊंचा उठाना है; यह शिव या अच्छाई अस्तित्व और ज्ञान का समान रूप से स्त्रोत है और आदर्श दार्शनिक वह है, जिसका लक्ष्य पूर्ण रूप से जिए गए जीवन के अन्त में ’’सदा शान्ति का, अन्तर्मुख प्रशान्तता का, एकान्त और असम्पृक्तता का ऐसा जीवन होता है, जिसमें भुलाए जा चुके संसार द्वारा इस संसार को भूलकर वह ’शिव’ (अच्छाई) के एकान्त चिन्तन को ही अपना स्वर्ग समझता है। वह और केवल वह ही वास्तविक जीवन है।’’ वे लोग धन्य हैं, जिनके हृदय पवित्र हैं, क्यों कि वे परमात्मा को देखेंगे। हृदय का यह पवित्रीकरण, चित्तशुद्धि, अनुशासन की वस्तु है। प्लैटिनस हमें बतलाता है कि ’’ज्ञान किसी प्राणी में अचंचलता की स्थिति है। ’’[२]

13.समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।
अपने शरीर, सिर और गर्दन को सीधा और स्थिर रखते हुए, नासाग्र पर दृष्टि जमाकर, अन्य किसी भी दिशा में न देखते हुए (आंखों को इधर-उधर बिना भटकने दिए);यहां पर आसन का उल्लेख किया गया है। पतंजलि ने बताया है कि आसन स्थिर और सुखद होना चाहिए, जिससे मन के एकाग्र होने में सहायता मिले। उचित आसन से शरीर को शान्ति मिलती है। यदि शरीर में परमात्मा की सजीव प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जानी है, तो शरीर को स्वच्छ रखा जाना चाहिए।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रम्: दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर स्थिर किया जाना चाहिए। चंचल दृष्टि एकाग्रता में सहायक नहीं होती।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नित्यानित्यवस्तुविवेक इहामुत्रफलभोगविरागः शमादिसाधनसम्पत् मुमुक्षत्वम्।
  2. ऐनीड्स, 4, 4, 12

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