भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 159

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अध्याय-6
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं

  
सब विचारों को निश्चल कर देने की नकारात्मक प्रक्रिया का एक सकारात्मक पक्ष भी है, और वह है आत्मा में एकाग्रता। योगाभ्यास में ईश्वरप्रणिधान को भी एक उपाय बताया गया है। मन स्थिर हो जाता है, परन्तु वह रिक्त नहीं रहता, क्योंकि वह भगवान् में एकाग्र रहता है, मच्चितः मत्परः।केवल वही लोग वास्तविक (ब्रह्म) को देख सकते हैं, जिनकी दृष्टि एकाग्र हो। आत्मिक जीवन कोई प्रार्थना या याचना नहीं है। यह तो प्रभूत भक्ति, मौन उपासना है। यह आत्मा की आन्तरिकतम गहराइयों तक, जो व्यक्तिक आत्मा को सीधा ब्रह्म-तत्व से सम्बन्धित करती हैं, पहुंचने के लिए चेतना का द्वार है। जो इस कला को सीखते हैं, उनके लिए किसी बाह्म सहायता, किसी धर्मसिद्धान्त में विश्वास या किसी कर्मकाण्ड में भाग लेने की आवश्यकता नहीं रहती। उन्हें सृजनात्मक दृष्टि प्राप्त हो जाती है, क्यों कि वे अनासक्ति के साथ तल्लीनता का मिश्रण करते हैं। वे संसार में कर्म करते हैं, परन्तु उनकी वासनाशून्य आत्मा की प्रशान्तता अक्षुब्ध रहती है। उनकी तुलना सरोवर के कमल से की जाती है, जो कि तूफान में भी अकम्पित ही बना रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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