भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 160

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अध्याय-6
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं

  
15.युज्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।
इस प्रकार वह योगी, जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, सदा योग में लगा रहकर शान्ति और उस परम निर्वाण को प्राप्त करता है, जो मेरे अन्दर विद्यमान है।
 
16.नात्यश्नतस्तु योगोअस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।
वस्तुतः योग उसके लिए नहीं है, जो बहुत अधिक खाता है, और न उसके लिए, जो बिलकुल ही नहीं खाता। हे अर्जुन, यह उसके लिए भी नहीं है,जो बहुत अधिक सोता है या बहुत अधिक जागता रहता है। हमें पाशविक लालसाओं से मुक्त होना होगा; सब वस्तुओं में अति से बचना होगा। इसकी तुलना बौद्धों के मध्यम मार्ग से और अरस्तू के सुनहले मध्यम मार्ग से कीजिए।
 
17.युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
जो व्यक्ति परिमित मात्रा में आहार और विहार करने वाला है, जिसने अपनी चेष्टाओं को नियम में रखा हुआ है, जिसकी निद्रा और जागरणनियमित हैं, उसमें एक ऐसा अनुशासन (योग) आ जाता है, जो सब दुःखों का नाश कर देता है।यहां जिस बात की सलाह दी गई है, वह कर्मों से पूर्ण निवृत्ति नहीं है, अपितु कर्मों का संयम है। जब जीव आत्मा में स्थित हो जाता है, तब वह एक अनुभवातीत और सार्वभौम चेतना में निवास करता है और उसी केन्द्र से कार्य करता है।
 
पूर्ण योगी
18.यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवाववतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।
जब चित्त सब लालसाओं से रहित होकर और अनुशासित होकर केवल आत्मा में ही स्थित हो जाता है, तब वह समस्वरता को प्राप्त हुआ (योग में लीन) कहलाता है।सत्य के दर्शन के लिए अहंकार का पूर्ण विलोप आवश्यक है। यदि सत्य को जानना हो, तो वैयक्तिकता का प्रत्येक चिन्ह लुप्त हो जाना चाहिए। हमारे सब संस्कारों और स्वभाव की विशेषताओं का निर्मूल हो जाना चाहिए।इन श्लोकों में गुरु ने वह प्रक्रिया बताई है, जिसके द्वारा साधक मूलभूत आत्मा का अनुभव प्राप्त कर सकता है। बाह्म या आन्तरिक संसार के साधारण अनुभव में शरीर के साथ संयुक्त आत्मा तात्विक विविध-रूपता में डूबी रहती है और इसके कारण आवरण में ढकी रहती है। हमें सबसे पहले आत्मा को प्रत्येक विशिष्ट गतिविधि से शून्य करना चाहिए, उसे प्रत्येक मूर्ति, प्रत्येक विशिष्ट कल्पना और मन की प्रत्येक पृथक् क्रिया से शून्य करना चाहिए। यह एक नकारात्मक प्रक्रिया है। यह समझा जा सकता है कि अपनी चेतना को प्रत्येक मूर्ति से रहित करने के बाद हम एक विशुद्ध और सरल शून्यता तक पहुंच जाते हैं। गुरु यह बतलाता है कि यह नकारात्मक प्रक्रिया विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए, उस परम उल्लासमय दर्शन को पाने के लिए अपनाई जाती है। मौन को पूर्ण बनाया जाता है और यह शून्य इस देखने में नकारात्मक प्रतीत होने वाले, परन्तु तीव्र रूप से सप्राण रहस्यमय ध्यान द्वारा भर जाता है, जिसमें आत्मा की शक्तियों का तनाव भी निहित है। यह एक ऐसा अनुभव है, जो सारे ज्ञान से ऊपर है, क्यों कि आत्मा कोई ऐसा विषय नहीं है, जिसे किसी धारणा द्वारा व्यक्त किया जा सके, या जिसे मन के सम्मुख किसी विषय-वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। यह एक ऐसी कर्तात्मकता (कर्तृत्व) है, जो किसी प्रकार अभिव्यक्त नहीं की जा सकती।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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