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अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद

17.काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।

और महान् धनुर्धारी काशीराज ने, महारथी शिखण्डी ने, धृष्टद्युम्न और विराट् ने और अजेय सात्यकि ने।

18.छु्रपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखन्दध्मुः पृथक्पृथक्।।

हे पृथ्वी के स्वामी, दु्रपद ने और द्रौपदी के पुत्रों ने और महाबाहु अभिमन्यु ने सब ओर अपने -अपने शंख बजाए।

19.स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो ब्यनुनादयन्।।

वह तुमुल शब्द पृथ्वी और आकाश को गंुजाता हुआ धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण करने लगा।
अर्जुन द्वारा दोनों सेनाओं का अवलोकन

20.अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रन्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।

तब अर्जुन ने, जिसकी ध्वजा पर हनुमान की मूर्ति अंकित थी, व्यूह-रचना में खडे़ हुए धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखा और जब शस्त्रास्त्र लगभग चलने शुरु हो गए, तब उसने अपना धनुष उठाया। प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते: जब शस्त्र चलने शुरू हो गये। यह संकट का काल अर्जुन को गहरी चिन्ता में डाल देता है। विरोधी दल युद्धसज्जा में खड़े है। शंख बज रहे हैं और प्रत्याशित युद्ध की उत्तेजना उन सब पर छाई हुई है। तब एकाएक आत्मविश्लेषण के क्षण में अर्जुन यह अनुभव करता है कि इस संघर्ष का अर्थ यह है कि जीवन की सारी योजना को, जाति और परिवार के, कानून और व्यवस्था के, देशभक्ति और गुरुओं के प्रति आदर के उन महान् आदर्शों को, जिनका वह निष्ठापूर्वक पालन करता रहा था, त्याग देना होगा। अर्जुन ने एक प्राचीन श्लोक का उद्धरण देकर अपने भाई को उत्साहित किया थाः ’’ विजय की इच्छा रखने वाले लोग शक्ति और बल से उतना नहीं जीतते, जितना सत्य, करुणा, दया और पुण्य से। जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ विजय सुनिश्चित है।’’’ विजय उसके गुणों में से एक है और उसी प्रकार विनय भी।’’[१] कृष्ण अर्जुन को अपने-आप को शुद्ध करने और सफलता के लिए दुर्गा से प्रार्थना करष्ने की सलाह देता है। अर्जुन अपने रथ से उतर पड़ता है इस भक्ति से प्रसन्न हो कर देवी अर्जुन को वर देती है: ’’ हे पाण्डव, तू बहुत जल्दी अपने शत्रुओं को जीत लेगा। स्वयं भगवान् नारायण तेरी सहायता करने के लिए विद्यमान हैं।’’ और फिर भी अर्जुन ने एक कर्मशील मनुष्य की भाँति अपने इस कार्य की उलझनों पर विचार नहीं किया। अपने गुरु की उपस्थिति, भगवान् की चेतना उसे यह समझने में सहायता देती है कि जिन शत्रुओं से उसे लड़ना है, वे उसके लिए प्रिय और पूज्य हैं। उसे न्याय की रक्षा और अवैध हिंसा के दमन के लिए सामाजिक बन्धनों को तोड़ना होगा। पृथ्वी पर भगवान् के राज्य की स्थापना भगवान् और मनुष्य के मध्य सहयोग से होने वाला कार्य है। सृष्टि के कार्य में मनुष्य भी समान भाग लेने वाला है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. युध्यध्वमनहकंरा यतोधर्मस्ततो जयः’’’ यतः कृष्णस्ततो जयः, वही 21, 11-12

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