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१०:५९, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

1.तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ।।

संजय ने कहाः इस प्रकार दया से भरे हुए और आँसुओं से डबडबाई आंखों वाले अर्जुन से, जिसका मन दुःख से भरा हुआ था, कृष्ण ने कहा: अर्जुन की दया का दैवीय करुणा से कोई मेल नहीं है। यह तो एक प्रकार की स्वार्थवृत्ति है, जिसके कारण वह ऐसा कार्य करने से हिचकता है, जिसमें उसे अपने ही लोगों को चोट पहुँचानी होगी। अर्जुन एक आत्मदया की भावुकतापूर्ण मनोवृत्ति के कारण इस कार्य से पीछे हटना चाहता है और उसका गुरु कृष्ण उसको फटकारता है। कौरव लोग उसके अपने सम्बन्धी हैं, यह बात तो उसे पहले भी मालूम थी।

2.कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्य जुष्टमस्वग्र्य मकीर्ति करमर्जुन ।।

भगवान् कृष्ण ने कहा: हे अर्जुन, तुझे यह आत्मा का कलंक (यह उदासी) इस विषय समय में कहाँ से आ लगा। यह वस्तु श्रेष्ठ मन वाले लोगों के लिए बिलकुल अनजानी है (आर्य लोग इसे पसन्द नहीं करते), यह स्वर्ग ले जाने वाली नहीं है और (पृथ्वी पर ) यह अपयश देने वाली है। आर्यां में अयोग्य। कुछ लोगों का कहना है कि आर्य लोग वे हैं, जो आन्तरिक संस्कार और सामाजिक व्यवहार को, जिसमें कि उत्साह और सौजन्य, कुलीनता और सरल व्यवहार पर जोर दिया गया है, अंगीकार करते हैं।अर्जुन को संशय से छुटकारा दिलाने के प्रयत्न में कृष्ण आत्मा की अनश्वरता के सिद्धान्त का उल्लेख करता है और अर्जुन की प्रतिष्ठा और सैरिक परम्पराओं की भावनाओं को जगाता है। उसके सम्मुख भगवान् के प्रयोजन को प्रस्तुत करता है और इस बात को संकेत करता है कि संसार में कर्म किस प्रकार किया जाना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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