भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 80

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

3.क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ।।

हे पार्थ (अर्जुन), ऐसे नामर्द मत बनो, क्यों कि यह तुम्हें शोभा नहीं देता। इस मन की तुच्छ दुर्बलता को त्याग दो और हे परन्तप (शत्रुओं को सताने वाले अर्जुन), उठकर खडे़ हो जाओ। अर्जुन के सन्देहों का समाधान नहीं होता।
        
4.कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूधन ।
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।

अर्जुन ने कहा: हे मधुसूधन (कृष्ण), मैं युद्ध में भीष्म और द्रोण पर किस तरह बाण चला पाऊंगा? हे शत्रुओं को मारने वाले कृष्ण, वे तो मेरे लिए पूजनीय हैं।

5.गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहै व
भुज्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्।।

इन पूजनीय गुरुओं को[१] मारने की अपेक्षा तो इस संसार में भीख माँगकर जीना कहीं अधिक भला है। यद्यपि उन्हें केवल अपने लाभ का ही ध्यान है, फिर भी वे मेरे गुरु हैं और उन्हें मारकर मैं केवल उन सांसारिक सुखों का उपयोग कर पाऊंगा जो उनके रक्त से सने हुए होंगे। रुधिरप्रदिग्धान्: खून से सने हुए। यदि हम इतिहास के प्रत्येक रक्तरंजित पृष्ट के पीड़ितों की दशा को हृदयंगम कर लें, यदि हम नारियों के कष्टों, शिशुओं के चीत्कारों और विपत्ति, अत्याचार तथा विविध रूपों में अन्याय के वृत्तान्तों को सुनें तो कोई भी ऐसा व्यक्ति, जिसमें जरा भी मानवीय अनुभूति है, इस प्रकार की रक्तरंजित विजयों से आनन्द अनुभव नहीं करेगा।

6.न चैतद्विद्यः कतरन्नो गरीयो
यदा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेअवस्थिताः प्रमुखे धर्तराष्ट्राः।।

हमें तो यह भी मालूम नहीं है कि हमारे लिए क्या भला है; हम उन्हें जीत लें, या वे हमें जीत लें। धृतराष्ट्र कि जिन पुत्रों को मारने के बाद हमें जीने की कोई इच्छा नहीं है, वे ही हमारे सम्मुख युद्ध में आकर खडे़ हुए हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महानुभावान् श्रुताध्ययनतप-आचारादिनिबन्धनः प्रभावो येषां तान् हि महानुभावान् इत्येकं वा पदम्। हिमं जाड्यम्अपहन्तीति हिमहा आदित्योअग्निर्वा, तस्येवानुभावः सामथ्र्य येषां तान् । - मधुसूदन। यह पिछली एक कल्पनाबहुल व्याख्या है।

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