"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-1" के अवतरणों में अंतर
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त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
शरीर, वाणी और मन से होने वाले पापों के परित्याग का उपदेश
युधिष्ठिर ने पूछा – पितामह ! लोकयात्रा का भली-भांति निर्वाह करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को क्या करना चाहिए ? कैसा स्वभाव बनाकर किस प्रकार लोक में जीवन बिताना चाहिए ? भीष्मजी ने कहा - राजन् ! शरीर से तीन प्रकार के कर्म, वाणी से चार प्रकार के कर्म और मन से भी तीन प्रकार के कर्म - इस तरह कुल दस तरह के कर्मों का त्याग कर दे। दूसरों के प्राणनाश करना, चोरी करना और परायी स्त्री से संसर्ग रखना - ये तीन शरीर से होने वाले पाप हैं । इन सबका परित्याग कर देना उचित है। मुंह से बुरी बोंत निकालना, कठोर बोलना, चुगली खाना और झूठ बोलना - ये चार वाणी से होने वाले पाप हैं। राजेन्द्र ! इन्हें न तो कभी जबान पर लाना चाहिए और न मन में ही सोचना चाहिए। दूसरे के धन को लेने का उपाय न सोचना, समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखना और कर्मों का फल अवश्य मिलता है, इस बातपर विश्वास रखना - ये तीन मन से आचरण करने योग्य कार्य हैं । इन्हें सदा करना चाहिए। (इनके विपरीत दूसरों के धनका लालच करना, समस्त प्राणियों से वैर रखना और कर्मों के फल पर विश्वास न करना - ये तीन मानसिक पाप हैं - इनसे सदा बचे रहना चाहिए)।
इसलिये मनुष्य का कर्तव्य है कि वह मन, वाणी या शरीर से कभी अशुभ कर्म न करें, क्योंकि वह शुभ या अशुभ जैसा कर्म करता है, उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ता है। एक समय अमृत की उत्पति हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिये देवताओं का असुरों के साथ साठ हजार वर्षों तक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम के नाम से प्रसिद्ध है। उस युद्ध में अत्यंत भयंकर दैत्यों एवं बड़े-बड़े असुरों की मार खाकर देवता किसी रक्षक को नही पाते थे। दैत्यों द्वारा सताये जाने वाले देवता दु:खी होकर अपने लिये आश्रय ढूंढ़ते हुए देवदेवेश्वर महाज्ञानी ब्रहृाजी की शरीर में गये। नरेश्वर ! तदनन्तर देवताओं सहित कमल योनि ब्रहृाजी हाथ जोड़कर रोग-शोक से रहित भगवान नारायण की स्तुति करने लगे। ब्रहृाजी बोले - प्रभो ! आपके रूप का चिन्तन करने से, नामों स्मरण और जप से, पूजन से तथा तप और योग आदि से मनीषी पुरूष कल्याण को प्राप्त होते हैं।
भक्तवत्सल ! कमलनयन ! परमेश्वर ! पापहारी परमात्मन् ! निर्विकार ! आदिपुरूष ! नारायण ! आपको नमस्कार है । सम्पूर्ण लोकों के आदिकारण ! सर्वात्मन् ! अमित पराक्रमी नारायण ! सम्पूर्ण भूत और भविष्य के स्वामी ! सर्व भूतमहेश्वर ! आपको नमस्कार है। प्रभो ! आप देवताओं के भी देवता और समस्त विद्याओं कें परम आश्रय हैं । जगत् के जितने भी बीज हैं, उन सबका संग्रह करने वाले आप ही हैं। आप ही जगत् के परम कारण हैं। वीर ! ये देवता दानव, दैत्य आदि से अत्यंत पीडित हो रहे हैं । आप इनकी रक्षा कीजिये । विजयशीलों में सबसे श्रेष्ठ नारायणदेव ! आप लोकों, लोकपालों तथा ऋषियों का संरक्षण कीजिये। सम्पूर्ण अंगों और उपनिषदों सहित वेद, उनके रहस्य, उंकार और वषट्कार आप ही को उत्तम यज्ञ का स्वरूप बताते हैं।
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