महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 170-181

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प्रथम अध्‍याय: आदिपर्व (अनुक्रमणिकापर्व)

महाभारत अादिपर्व प्रथम अध्याय श्लोक 211-241

जब मैंने सुना कि उसी सरोवर के तट पर श्रीकृष्ण के साथ पाण्डव जाकर खड़े हैं और मेरे पुत्र को असहार दुर्वचन कहकर नीचा दिखा रहे हैं, तभी संजय ! मैंने विजय की आशा सर्वथा त्याग दी। संजय ! जब मैंने सुना कि गदा युद्ध में मेरा पुत्र बड़ी निपुणता से पैंतरे बदल कर रणकौशल प्रकट कर रहा है और श्रीकृष्ण की सलाह से भीमसेन ने गदायुद्ध की मर्यादा के विपरीत जाँघ में गदा का प्रहार करके उसे मार डाला, तब तो संजय ! मेरे मन में विजय की आशा रह ही नहीं गयी। संजय ! जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा आदि दुष्‍टों ने सोते हुए पाञचाल नरपतियों और द्रौपदी के होनहार पुत्रों को मारकर अत्यन्त बीमत्स और वंश के यश को कलंकित करने वाला काम किया है, तब तो मुझे विजय की आशा रही ही नहीं। संजय ! जब मैंने सुना कि भीमसेन के पीछा करने पर अश्वत्थामा ने क्रोध पूर्वक सींक के बाण पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया, जिससे कि पाण्डवों का गर्भस्थ वंशधर भी नष्ट हो जाय, तभी मेरे मन में विजय की आशा नहीं रही। जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा के द्वारा प्रयुक्त ब्रह्मशिर अस्त्र को अर्जुन ने ‘स्वस्ति’ ‘स्वस्ति’ कहकर अपने अस्त्र से शान्त कर दिया और अश्वत्थामा को अपना मणिरत्न भी देना पड़ा। संजय ! उसी समय मुझे जीत की आशा नहीं रही। जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा अपने महान् अस्त्रों का प्रयोग करके उत्तरा का गर्भ गिराने की चेष्टा कर रहा है तथा श्रीकृष्ण दूपायन व्यास और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने परस्पर विचार करके उसे शापों से अभिशप्‍त कर दिया है (तभी मेरी विजय की आशा सदा के लिये समाप्त हो गयी)। इस समय गान्धारी की दशा शोचनीय हो गयी है; क्‍योंकि उसके पुत्र पौत्र, पिता तथा भाई बन्धुओं में से कोई नहीं रहा। पाण्डवों ने दुष्कर कार्य कर डाला। उन्होंने फिर से अपना अकण्टक राज्य प्राप्त कर लिया। हाय-हाय ! कितने कष्ट की बात है, मैंने सुना है कि इस भयंकर युद्ध में केवल दस व्यक्ति बचे हैं; मेरे पक्ष के तीन कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा तथा पाण्डव पक्ष के सात श्रीकृष्ण, सात्यकि और पाँचों पाण्डव। क्षत्रियों के इस भीषण संग्राम में अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट हो गयी। सारथे ! यह सब सुनकर मेरी आँखों के सामने घना अन्धकार छाया हुआ है। मेरे हृदय में मोह का आवेश-सा होता जा रहा है। मैं चेतना शून्य हो रहा हूँ। मेरा मन विह्नल-सा हो रहा है। उग्रश्रवाजी कहते हैं-धृतराष्ट्र ने ऐसा कहकर बहुत विलाप किया और अत्यन्त दुःख के कारण वे मूर्च्छित हो गये। फिर होश में आकर कहने लगे। धृतराष्ट्र ने कहा-संजय ! युद्ध का यह परिणाम निकलने पर अब मैं अविलम्व अपने प्राण छोड़ना चाहता हूँ। अब जीवन धारण करने का कुछ भी फल मुझे दिखलायी नहीं देता। उग्रश्रवाजी कहते हैं- जब राजा धृतराष्ट्र दीनता पूर्वक विलाप करते हुए ऐसा कर रहे थे और नाग के समान लम्बी साँस ले रहे थे तथा बार बार मूर्छित होते जा रहे थे, तब बुद्धिमान् संजय ने यह सारगर्भित प्रवचन किया। संजय ने कहा-महाराज ! अपने परम ज्ञानी देवर्षि नारद एवं महर्षि व्यास के मुख से महान् उत्साह से युक्त एवं परम पराक्रमी नृपतियों का चरित्र श्रवण किया है। आपने ऐसे ऐसे राजाओं के चरित्र सुने हैं जो सर्वसद्रुण सम्पन्न महान् राजवंशों में उत्पन्न, दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के पारदर्शी एवं देवराज इन्द्र के समान प्रभावशाली थे। जिन्होंने धर्मयुद्ध से पृथ्वी पर विजय प्राप्त की बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ किये, इस लोक में उज्ज्वल यश प्राप्त किया और फिर काल के गालमं समा गयें। इसमें से महारथी शैव्य, विजयी वीरों में श्रेष्ठ सृञजय, सुहोत्र, रन्तिदेव, काक्षीवान् औशिज, बाह्रीक, दमन,चैद्य, शर्याति, अपराजित नल, शत्रुघाती विश्वामित्र, महावली अम्वरीष, मरूत्त, मनु, इक्ष्वाकु, गय, भरत, दशरथनन्दन, श्रीराम, शशबिन्दु, भागीरथ, महाभाग्यशाली कृतवीर्य, जनमेजय और वे शुभकर्मा ययाति, जिनका यज्ञ देवताओं ने स्वयं करवाया था, जिन्होंने अपनी राष्ट्रभूमि को यज्ञों को खास बना दिया था और सारी पृथ्वी यज्ञ सम्बन्धी यूपों (खंभों) से अंकित कर दी थी-इन चौबीस राजाओं का वर्णन पूर्व काल में देवर्षि नारद ने पुत्र शोक से अत्यन्त संतप्त महाराज श्वैल्य का दुःख दूर करने के लिये किया था। महाराज ! पिछले युग में इन राजाओं के अतिरिक्त दूसरे और बहुत से महारथी, महात्मा, शौर्य-वीर्य आदि सद्गुणों से सम्पन्न, परम पराक्रमी राजा हो गये हैं। जैसे-पूरू, कुरू, यदु, शूर, महातेजस्वी विष्वगश्व, अणुह, युवनाश्व, ककुत्स्थ, पराक्रमी रघु, विजय, वीतिहोत्र, अंग, भव, श्वेत, बृहद्गरू, उशीनर, शतरथ, कंक, दुलिदुह, द्रुम, दम्भोद्भव पर, वेन, सगर, संकृति, निमि, अजेय, परशु, पुण्ड्र, शम्भु, निष्पाप देवावृध, देवाह्नय, सुप्रतिम, सुपतीक, वृहद्रथ, महान्, उत्साही और महाविनयी सुक्रत, निषधराज नल, सत्यव्रत, शान्तभय, सुमित्र, सुबल, प्रभु, जानुजंक, अनरण्य, अर्क, प्रियभृत्य, शुचित्रत, बलबन्धु, निरामर्द, केतुश्रृंग, बृहद्वल, धृष्टकेतु, बृहत्केतु, दीप्तकेतु, निरामय, अवीक्षित़्, चपल, धूर्त, कृतबन्धु, द्दढेषुधि, महापुराणों में सम्मानित प्रत्यंग, परहा और श्रुति- ये और इनके अतिरिक्त दूसरे सैकड़ों तथा हजारों राजा सुने जाते हैं, जिनका सैकड़ों बार वर्णन किया गया है और इनके सिबा दूसरे भी, जिनकी संख्या पह्मों में कही गयी है, बड़े बुद्धिमान् और शक्तिशाली थे। महाराज ! किंतु वे अपने विपुल भोग वैभव को छोड़कर वैसे ही मर गये, जैसे आपके पुत्रों की मृत्यु हुई है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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