"महाभारत आदि पर्व अध्याय 19 श्लोक 22-31" के अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 22-31 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 22-31 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओं के बड़े-बडे़ नगरों को विध्वंस कर डालने की शक्ति थी। हाथी की सूँड के समान विशाल भुजदण्ड वाले उग्रवेशशाली भगवान नारायण ने उस महातेजस्वी एवं महाबलशाली चक्र को दानवों के दल पर चलाया। उस महासमर में पुरूषोत्तम श्रीहरि के हाथों से संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्त्रों दैत्यों तथा दानवों को विदीर्ण करता हुआ बड़े वेग से बारम्बार उनकी सेना पर पड़ने लगा। श्रीहरि के हाथों से चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्नि की भाँति अपनी लपलपाती लपटों से असुरों को चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े-टुकडे़ कर डालता था। इस प्रकार रणभूमि के भीतर पृथ्वी और आकाश में घमू-घूमकर वह पिशाच की भाँति बार-बार रक्त पीने लगा। इसी प्रकार उदार एवं उत्साह- भरे हृदय वाले महाबली असुर भी, जो जलरहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखायी देते थे, उस समय सहस्त्रों की संख्या में आकाश में उड़-उड़कर शिलाखण्डों की वर्षा से बार-बार देवताओं को पीडि़त करने लगे। तत्पश्चात आकाश से नाना प्रकार के लाल, पीले, नीले आदि रंग वाले बादलों- जैसे बड़े-बड़े पर्वत भय उत्पन्न करते हुए वृक्षों सहित पृथ्वी पर गिरने लगे। उनके ऊँचे-ऊँचे शिखर गलते जा रहे थे और वे एक-दूसरे से टकराकर बड़े जोर का शब्द करते थे। उस समय एक दूसरे का लक्ष्य करके बार-बार जोर-जोर से गरजने वाले देवताओं और असुरों के उस समरांगण में सब ओर भयंकर मार-काट मच रही थी; बडे़-बड़े पर्वतों के गिरने से आहत हुई वन सहित सारी भूमि काँपने लगी। तब उस महाभयंकर देवासुर-संग्राम में भगवान नर ने उत्तम सुवर्ण-भूषित अग्रभाग वाले पंखयुक्त बड़े-बड़े बाणों द्वार पर्वत शिखरों को विदीर्ण करते हुए समस्त आकाशमार्ग को आच्छादित कर दिया। इस प्रकार देवताओं के द्वारा पीडि़त हुए महादैत्य आकाश में जलती हुई आग के समान उद्भासित होने वाले सुदर्शन चक्र को अपने पर कुपित देख पृथ्वी के भीतर और खारे पानी के समुद्र में घुस गये। तदनन्तर देवताओं ने विजय पाकर मन्दराचल को सम्मानपूर्वक उसके पूर्वस्थान पर ही पहुँचा दिया। इसके बाद वे अमृत धारण करने वाले देवता अपने सिंहनाद से अन्तरिक्ष और सवर्गलोक को भी सब ओर से गुँजाते हुए अपने-अपने स्थान को चले गये। देवताओं को इस विजय से बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन्होंने उस अमृत को बड़ी सुव्यवस्था से रखा। अमरों सहित इन्द्र ने अमृत की वह निधि किरीटधारी भगवान नर को रक्षा के लिये सौंप दी। | वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओं के बड़े-बडे़ नगरों को विध्वंस कर डालने की शक्ति थी। हाथी की सूँड के समान विशाल भुजदण्ड वाले उग्रवेशशाली भगवान नारायण ने उस महातेजस्वी एवं महाबलशाली चक्र को दानवों के दल पर चलाया। उस महासमर में पुरूषोत्तम श्रीहरि के हाथों से संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्त्रों दैत्यों तथा दानवों को विदीर्ण करता हुआ बड़े वेग से बारम्बार उनकी सेना पर पड़ने लगा। श्रीहरि के हाथों से चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्नि की भाँति अपनी लपलपाती लपटों से असुरों को चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े-टुकडे़ कर डालता था। इस प्रकार रणभूमि के भीतर पृथ्वी और आकाश में घमू-घूमकर वह पिशाच की भाँति बार-बार रक्त पीने लगा। इसी प्रकार उदार एवं उत्साह- भरे हृदय वाले महाबली असुर भी, जो जलरहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखायी देते थे, उस समय सहस्त्रों की संख्या में आकाश में उड़-उड़कर शिलाखण्डों की वर्षा से बार-बार देवताओं को पीडि़त करने लगे। तत्पश्चात आकाश से नाना प्रकार के लाल, पीले, नीले आदि रंग वाले बादलों- जैसे बड़े-बड़े पर्वत भय उत्पन्न करते हुए वृक्षों सहित पृथ्वी पर गिरने लगे। उनके ऊँचे-ऊँचे शिखर गलते जा रहे थे और वे एक-दूसरे से टकराकर बड़े जोर का शब्द करते थे। उस समय एक दूसरे का लक्ष्य करके बार-बार जोर-जोर से गरजने वाले देवताओं और असुरों के उस समरांगण में सब ओर भयंकर मार-काट मच रही थी; बडे़-बड़े पर्वतों के गिरने से आहत हुई वन सहित सारी भूमि काँपने लगी। तब उस महाभयंकर देवासुर-संग्राम में भगवान नर ने उत्तम सुवर्ण-भूषित अग्रभाग वाले पंखयुक्त बड़े-बड़े बाणों द्वार पर्वत शिखरों को विदीर्ण करते हुए समस्त आकाशमार्ग को आच्छादित कर दिया। इस प्रकार देवताओं के द्वारा पीडि़त हुए महादैत्य आकाश में जलती हुई आग के समान उद्भासित होने वाले सुदर्शन चक्र को अपने पर कुपित देख पृथ्वी के भीतर और खारे पानी के समुद्र में घुस गये। तदनन्तर देवताओं ने विजय पाकर मन्दराचल को सम्मानपूर्वक उसके पूर्वस्थान पर ही पहुँचा दिया। इसके बाद वे अमृत धारण करने वाले देवता अपने सिंहनाद से अन्तरिक्ष और सवर्गलोक को भी सब ओर से गुँजाते हुए अपने-अपने स्थान को चले गये। देवताओं को इस विजय से बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन्होंने उस अमृत को बड़ी सुव्यवस्था से रखा। अमरों सहित इन्द्र ने अमृत की वह निधि किरीटधारी भगवान नर को रक्षा के लिये सौंप दी। | ||
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०६:२३, १० अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
एकोनविंश (19) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओं के बड़े-बडे़ नगरों को विध्वंस कर डालने की शक्ति थी। हाथी की सूँड के समान विशाल भुजदण्ड वाले उग्रवेशशाली भगवान नारायण ने उस महातेजस्वी एवं महाबलशाली चक्र को दानवों के दल पर चलाया। उस महासमर में पुरूषोत्तम श्रीहरि के हाथों से संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्त्रों दैत्यों तथा दानवों को विदीर्ण करता हुआ बड़े वेग से बारम्बार उनकी सेना पर पड़ने लगा। श्रीहरि के हाथों से चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्नि की भाँति अपनी लपलपाती लपटों से असुरों को चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े-टुकडे़ कर डालता था। इस प्रकार रणभूमि के भीतर पृथ्वी और आकाश में घमू-घूमकर वह पिशाच की भाँति बार-बार रक्त पीने लगा। इसी प्रकार उदार एवं उत्साह- भरे हृदय वाले महाबली असुर भी, जो जलरहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखायी देते थे, उस समय सहस्त्रों की संख्या में आकाश में उड़-उड़कर शिलाखण्डों की वर्षा से बार-बार देवताओं को पीडि़त करने लगे। तत्पश्चात आकाश से नाना प्रकार के लाल, पीले, नीले आदि रंग वाले बादलों- जैसे बड़े-बड़े पर्वत भय उत्पन्न करते हुए वृक्षों सहित पृथ्वी पर गिरने लगे। उनके ऊँचे-ऊँचे शिखर गलते जा रहे थे और वे एक-दूसरे से टकराकर बड़े जोर का शब्द करते थे। उस समय एक दूसरे का लक्ष्य करके बार-बार जोर-जोर से गरजने वाले देवताओं और असुरों के उस समरांगण में सब ओर भयंकर मार-काट मच रही थी; बडे़-बड़े पर्वतों के गिरने से आहत हुई वन सहित सारी भूमि काँपने लगी। तब उस महाभयंकर देवासुर-संग्राम में भगवान नर ने उत्तम सुवर्ण-भूषित अग्रभाग वाले पंखयुक्त बड़े-बड़े बाणों द्वार पर्वत शिखरों को विदीर्ण करते हुए समस्त आकाशमार्ग को आच्छादित कर दिया। इस प्रकार देवताओं के द्वारा पीडि़त हुए महादैत्य आकाश में जलती हुई आग के समान उद्भासित होने वाले सुदर्शन चक्र को अपने पर कुपित देख पृथ्वी के भीतर और खारे पानी के समुद्र में घुस गये। तदनन्तर देवताओं ने विजय पाकर मन्दराचल को सम्मानपूर्वक उसके पूर्वस्थान पर ही पहुँचा दिया। इसके बाद वे अमृत धारण करने वाले देवता अपने सिंहनाद से अन्तरिक्ष और सवर्गलोक को भी सब ओर से गुँजाते हुए अपने-अपने स्थान को चले गये। देवताओं को इस विजय से बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन्होंने उस अमृत को बड़ी सुव्यवस्था से रखा। अमरों सहित इन्द्र ने अमृत की वह निधि किरीटधारी भगवान नर को रक्षा के लिये सौंप दी।
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