"महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-20" के अवतरणों में अंतर

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== द्वितीय अध्‍याय: आदिपर्व (पर्वसंग्रह पर्व)==
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==द्वितीय (2) अध्‍याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
ऋषि बोले-सूतनन्दन ! आपने अपने प्रवचन के प्रारम्भ में जो समन्तपञचक (कुरूक्षेत्र) की चर्चा की थी, अब हम उस देश (तथा वहाँ हुए युद्ध) के सम्बन्ध में पूर्ण रूप से सब- कुछ यथावत सुनना चाहते हैं। उग्रश्रवाजी ने कहा—साधुशिरोमणि विप्रगण ! अब मैं कल्याणदायिनी शुभ कथाँए कह रहा हूँ उसे आप लोग सावधान चित्त से सुनिये और इसी प्रसंग में समन्तपंचकृक्षेत्र का वर्णन भी सुन लीजि‍ये।  
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ऋषि बोले-सूतनन्दन! आपने अपने प्रवचन के प्रारम्भ में जो समन्तपञचक (कुरुक्षेत्र) की चर्चा की थी, अब हम उस देश (तथा वहाँ हुए युद्ध) के सम्बन्ध में पूर्ण रूप से सब- कुछ यथावत सुनना चाहते हैं। उग्रश्रवा जी ने कहा—साधुशिरोमणि विप्रगण! अब मैं कल्याणदायिनी शुभ कथाएँ कह रहा हूँ उसे आप लोग सावधान चित्त से सुनिये और इसी प्रसंग में समन्त  समन्तपंचकक्षेत्र का वर्णन भी सुन लीजि‍ये।  
त्रेता और द्वापर की सन्धि के समय शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ [[परशुराम]] जी ने क्षत्रियों के प्रति क्रोध से प्रेरित होकर अनेकों बार क्षत्रिय राजाओं का संहार किया। अग्न्‍िा के समान तेजस्वी परशुराम जी ने अपने पराक्रम से सम्पूर्ण क्षत्रियवंश का संहार करके समन्तपंचकक्षेत्र में रक्त के पाँच सरोवर बना दिये। क्रोध से आविष्ट होकर परशुराम जी ने उन रक्त रूप जल से भरे हुए सरोवरों में रक्तांजलि के द्वारा अपने पितरों का तर्पण किया, यह बात हमने सुनी है। तदनन्तर, ऋचीक आदि पितृगण परशुराम जी के पास आकर बोले-महाभारत राम ! सामर्थ्‍यशाली भृगुवंश भूषण परशुराम ! तुम्हारी इस पितृभक्ति और पराक्रम से हम बहुत ही प्रसन्न हैं। महाप्रतापी परशुराम ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें जिस वर की इच्छा हो हमसे माँग लो’। परशुराम जी ने कहा-यदि आप सब हमारे पितर मुझ पर प्रसन्न हैं और मुझे अपने अनुग्रह का पात्र समझते हैं तो मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंश का विध्वंस किया है, इस कुकर्म के पाप से मैं मुक्त हो जाऊँ और ये मेरे बनाये हुए सरोवर पृथ्वी में प्रसिद्ध तीर्थ हो जायें। यही वर मैं आप लोगों से चाहता हूँ। तदनन्तर ‘ऐसा ही होगा’ यह कहकर पितरों ने वरदान दिया। साथ ही ‘अब बचे खुचे क्षत्रिय वंश को क्षमा कर दो’- ऐसा कहकर उन्हें क्षत्रियों के संहार से भी रोक दिया। इसके पश्चात् परशुराम जी शान्त हो गये। उन रक्त से भरे सरोवरों के पास जो प्रदेश है उसे ही समन्तपंचक कहते हैं। यह क्षेत्र बहुत ही पुण्यप्रद है। जिस चिन्ह से जो देश युक्त होता है और जिससे जिसकी पहचान होती है, विद्वानों का कहना है कि उस देश का वही नाम रखना चाहिये। जब कलियुग और द्वापर की सन्धि का समय आया, तब उसी समन्तपंचकक्षेत्र में कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं का परस्पर भीषण युद्ध हुआ। भूमि सम्बन्धी दोषों से <ref>1.अधिक नीचा-ऊँचा होना, कांटेदार वृक्षों से व्याप्त होना तथा कंकड़ पत्थरों की अधिकता का होना आदि भूमि सम्बन्धी दोष माने गये हैं।</ref>रहित उस परम धार्मिक प्रदेश में युक्त करने की इच्छा से अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ इकट्ठी हुई थी। ब्राह्मणों ! वे सब सेनाएँ वहाँ इकट्ठी हुईं और वहीं नष्ट हो गयीं। द्विजवरों ! इसी से उस देश का नाम समान्तपंञचक<ref>समन्तनामक क्षेत्र में पाँच कुण्ड या सरोवर होने से उस क्षेत्र और उसके समीपवर्ती प्रदेश का भी समन्तपंचक नाम हुआ। परंतु उसका समन्त नाम क्यों पड़ा, इसका कारण इस श्लोक में बता रहे हैं- ‘समेतानाम् अन्तो यस्मिन् स समन्तः’ -समागम सेनाओं का अन्त हुआ हो जिस स्थान पर, उसे समन्त कहते है। इसी व्युत्पत्ति के अनुसार वह क्षेत्र समन्त कहलाता है।</ref>पड गया। वह देश अत्यन्त पुण्यमय एवं रमणीय कहा गया है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! तीनों लोकों में जिस प्रकार उस देश की प्रसिद्धि हुई थी, वह सब मैंने आप लोगों से कह दिया। ऋषियों ने पूछा—सूतनन्दन ! अभी-अभी आपने जो अक्षौहिणी शब्द का उच्चारण किया है, इसके सम्बन्ध में हम लोग सारी बातें यथार्थ रूप से सुनना चाहते हैं। अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते हैं? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात हैं। उग्रश्रवाजी ने कहा—एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े -बस, इन्हीं को सेना के सर्मज्ञ विद्वानों ने ‘पत्ति’ कहा है। इसी पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान पुरूष ‘सेनामुख’ कहते हैं। तीन ‘सेनामुखों’ को एक ‘गुल्म’ कहा जाता है। तीन गुल्म का एक ‘गण’ होता है, तीन गण की एक ‘वाहिनी’ होती है और तीन वाहिनीयों को सेना का रहस्य जानने वाले विद्वानों ने ‘पृतना’ कहा है। तीन पृतना की एक ‘चमू’तीन चमू की एक ‘अनीकिनी’ और दस अनीकिनी की एक ‘अक्षौहिणी’ होती है। यह विद्वानों का कथन हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! गणित के तत्वज्ञ विद्वानों ने एक अक्षौहिणी सेना में रथों की संख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (21870) बतलायी है। हाथियों की संख्या भी इतनी ही रहनी चाहिये। निष्पाप ब्राह्मणों ! एक अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की संख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (109350) जाननी चाहिये। एक अक्षौहिणी सेना में घोड़ो की ठीक-ठीक संख्या पैंसठ हजार छःसौ दश (65610) कहीं गयी है। तपोधनो ! संख्या का तत्व जानने वाले विद्वानों ने इसी को अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आप लोगों को विस्तारपूर्वक बताया है। श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! इसी गणना के अनुसार [[कौरव|कौरवों]] [[पाण्डव]] दोनों सेनाओं की संख्या अठारह अक्षौहिणी थी। अदभुद कर्म करने वाले काल की प्रेरणा से समन्तपंचकक्षेत्र कौंरवों को निमित्त बनाकर इतनी सेनाएँ इकट्ठी हुईं और वहीं नाश को प्राप्त हो गयीं। अस्त्र-शस्त्रों के सर्वोपरि मर्मज्ञ [[भीष्म|भीष्म पितामह]] ने दस दिनों तक युद्ध किया, [[द्रोणआचार्य]] ने पाँच दिनों तक कौरव सेना की रक्षा की। शत्रु सेना को पीडि़त करने वाले वीरवर कर्ण ने दो दिन युद्ध किया और शल्य ने आधे दिन तक। इसके पश्चात ([[दुर्योधन]] और [[भीम|भीमसेन]] का परस्पर) गदायुद्ध आधे दिन तक होता रहा।
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त्रेता और द्वापर की सन्धि के समय शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ [[परशुराम]] जी ने क्षत्रियों के प्रति क्रोध से प्रेरित होकर अनेकों बार क्षत्रिय राजाओं का संहार किया। अग्न्‍िा के समान तेजस्वी परशुराम जी ने अपने पराक्रम से सम्पूर्ण क्षत्रियवंश का संहार करके समन्तपंचकक्षेत्र में रक्त के पाँच सरोवर बना दिये। क्रोध से आविष्ट होकर परशुराम जी ने उन रक्त रूप जल से भरे हुए सरोवरों में रक्तांजलि के द्वारा अपने पितरों का तर्पण किया, यह बात हमने सुनी है। तदनन्तर, ऋचीक आदि पितृगण परशुराम जी के पास आकर बोले-महाभारत राम! सामर्थ्‍यशाली भृगुवंश भूषण परशुराम! तुम्हारी इस पितृभक्ति और पराक्रम से हम बहुत ही प्रसन्न हैं। महाप्रतापी परशुराम! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें जिस वर की इच्छा हो हमसे माँग लो।' परशुराम जी ने कहा-यदि आप सब हमारे पितर मुझ पर प्रसन्न हैं और मुझे अपने अनुग्रह का पात्र समझते हैं तो मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंश का विध्वंस किया है, इस कुकर्म के पाप से मैं मुक्त हो जाऊँ और ये मेरे बनाये हुए सरोवर पृथ्वी में प्रसिद्ध तीर्थ हो जायें। यही वर मैं आप लोगों से चाहता हूँ। तदनन्तर ‘ऐसा ही होगा’ यह कहकर पितरों ने वरदान दिया। साथ ही ‘अब बचे खुचे क्षत्रिय वंश को क्षमा कर दो’- ऐसा कहकर उन्हें क्षत्रियों के संहार से भी रोक दिया। इसके पश्चात परशुराम जी शान्त हो गये। उन रक्त से भरे सरोवरों के पास जो प्रदेश है उसे ही समन्तपंचक कहते हैं। यह क्षेत्र बहुत ही पुण्यप्रद है। जिस चिन्ह से जो देश युक्त होता है और जिससे जिसकी पहचान होती है, विद्वानों का कहना है कि उस देश का वही नाम रखना चाहिये। जब कलियुग और द्वापर की सन्धि का समय आया, तब उसी समन्तपंचकक्षेत्र में कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं का परस्पर भीषण युद्ध हुआ। भूमि सम्बन्धी दोषों से <ref>1.अधिक नीचा-ऊँचा होना, कांटेदार वृक्षों से व्याप्त होना तथा कंकड़ पत्थरों की अधिकता का होना आदि भूमि सम्बन्धी दोष माने गये हैं।</ref>रहित उस परम धार्मिक प्रदेश में युक्त करने की इच्छा से अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ इकट्ठी हुई थी। ब्राह्मणों! वे सब सेनाएँ वहाँ इकट्ठी हुईं और वहीं नष्ट हो गयीं। द्विजवरों! इसी से उस देश का नाम समान्तपंञचक<ref>समन्तनामक क्षेत्र में पाँच कुण्ड या सरोवर होने से उस क्षेत्र और उसके समीपवर्ती प्रदेश का भी समन्तपंचक नाम हुआ। परंतु उसका समन्त नाम क्यों पड़ा, इसका कारण इस श्लोक में बता रहे हैं- ‘समेतानाम अन्तो यस्मिन् स समन्तः’ -समागम सेनाओं का अन्त हुआ हो जिस स्थान पर, उसे समन्त कहते हैं। इसी व्युत्पत्ति के अनुसार वह क्षेत्र समन्त कहलाता है।</ref>पड़ गया। वह देश अत्यन्त पुण्यमय एवं रमणीय कहा गया है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मणों! तीनों लोकों में जिस प्रकार उस देश की प्रसिद्धि हुई थी, वह सब मैंने आप लोगों से कह दिया। ऋषियों ने पूछा—सूतनन्दन! अभी-अभी आपने जो अक्षौहिणी शब्द का उच्चारण किया है, इसके सम्बन्ध में हम लोग सारी बातें यथार्थ रूप से सुनना चाहते हैं। अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते हैं? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है। उग्रश्रवाजी ने कहा—एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े -बस, इन्हीं को सेना के सर्मज्ञ विद्वानों ने ‘पत्ति’ कहा है। इसी पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान पुरुष ‘सेनामुख’ कहते हैं। तीन ‘सेनामुखों’ को एक ‘गुल्म’ कहा जाता है।  
  
 
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 265-276|अगला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 21-41}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अादिपर्व अध्याय 1 श्लोक 242-276|अगला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 2 श्लोक 32-69}}
 
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अादिपर्व]]
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अादिपर्व]]
 
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११:४९, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वितीय (2) अध्‍याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

ऋषि बोले-सूतनन्दन! आपने अपने प्रवचन के प्रारम्भ में जो समन्तपञचक (कुरुक्षेत्र) की चर्चा की थी, अब हम उस देश (तथा वहाँ हुए युद्ध) के सम्बन्ध में पूर्ण रूप से सब- कुछ यथावत सुनना चाहते हैं। उग्रश्रवा जी ने कहा—साधुशिरोमणि विप्रगण! अब मैं कल्याणदायिनी शुभ कथाएँ कह रहा हूँ उसे आप लोग सावधान चित्त से सुनिये और इसी प्रसंग में समन्त समन्तपंचकक्षेत्र का वर्णन भी सुन लीजि‍ये। त्रेता और द्वापर की सन्धि के समय शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम जी ने क्षत्रियों के प्रति क्रोध से प्रेरित होकर अनेकों बार क्षत्रिय राजाओं का संहार किया। अग्न्‍िा के समान तेजस्वी परशुराम जी ने अपने पराक्रम से सम्पूर्ण क्षत्रियवंश का संहार करके समन्तपंचकक्षेत्र में रक्त के पाँच सरोवर बना दिये। क्रोध से आविष्ट होकर परशुराम जी ने उन रक्त रूप जल से भरे हुए सरोवरों में रक्तांजलि के द्वारा अपने पितरों का तर्पण किया, यह बात हमने सुनी है। तदनन्तर, ऋचीक आदि पितृगण परशुराम जी के पास आकर बोले-महाभारत राम! सामर्थ्‍यशाली भृगुवंश भूषण परशुराम! तुम्हारी इस पितृभक्ति और पराक्रम से हम बहुत ही प्रसन्न हैं। महाप्रतापी परशुराम! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें जिस वर की इच्छा हो हमसे माँग लो।' परशुराम जी ने कहा-यदि आप सब हमारे पितर मुझ पर प्रसन्न हैं और मुझे अपने अनुग्रह का पात्र समझते हैं तो मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंश का विध्वंस किया है, इस कुकर्म के पाप से मैं मुक्त हो जाऊँ और ये मेरे बनाये हुए सरोवर पृथ्वी में प्रसिद्ध तीर्थ हो जायें। यही वर मैं आप लोगों से चाहता हूँ। तदनन्तर ‘ऐसा ही होगा’ यह कहकर पितरों ने वरदान दिया। साथ ही ‘अब बचे खुचे क्षत्रिय वंश को क्षमा कर दो’- ऐसा कहकर उन्हें क्षत्रियों के संहार से भी रोक दिया। इसके पश्चात परशुराम जी शान्त हो गये। उन रक्त से भरे सरोवरों के पास जो प्रदेश है उसे ही समन्तपंचक कहते हैं। यह क्षेत्र बहुत ही पुण्यप्रद है। जिस चिन्ह से जो देश युक्त होता है और जिससे जिसकी पहचान होती है, विद्वानों का कहना है कि उस देश का वही नाम रखना चाहिये। जब कलियुग और द्वापर की सन्धि का समय आया, तब उसी समन्तपंचकक्षेत्र में कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं का परस्पर भीषण युद्ध हुआ। भूमि सम्बन्धी दोषों से [१]रहित उस परम धार्मिक प्रदेश में युक्त करने की इच्छा से अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ इकट्ठी हुई थी। ब्राह्मणों! वे सब सेनाएँ वहाँ इकट्ठी हुईं और वहीं नष्ट हो गयीं। द्विजवरों! इसी से उस देश का नाम समान्तपंञचक[२]पड़ गया। वह देश अत्यन्त पुण्यमय एवं रमणीय कहा गया है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मणों! तीनों लोकों में जिस प्रकार उस देश की प्रसिद्धि हुई थी, वह सब मैंने आप लोगों से कह दिया। ऋषियों ने पूछा—सूतनन्दन! अभी-अभी आपने जो अक्षौहिणी शब्द का उच्चारण किया है, इसके सम्बन्ध में हम लोग सारी बातें यथार्थ रूप से सुनना चाहते हैं। अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते हैं? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है। उग्रश्रवाजी ने कहा—एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े -बस, इन्हीं को सेना के सर्मज्ञ विद्वानों ने ‘पत्ति’ कहा है। इसी पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान पुरुष ‘सेनामुख’ कहते हैं। तीन ‘सेनामुखों’ को एक ‘गुल्म’ कहा जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.अधिक नीचा-ऊँचा होना, कांटेदार वृक्षों से व्याप्त होना तथा कंकड़ पत्थरों की अधिकता का होना आदि भूमि सम्बन्धी दोष माने गये हैं।
  2. समन्तनामक क्षेत्र में पाँच कुण्ड या सरोवर होने से उस क्षेत्र और उसके समीपवर्ती प्रदेश का भी समन्तपंचक नाम हुआ। परंतु उसका समन्त नाम क्यों पड़ा, इसका कारण इस श्लोक में बता रहे हैं- ‘समेतानाम अन्तो यस्मिन् स समन्तः’ -समागम सेनाओं का अन्त हुआ हो जिस स्थान पर, उसे समन्त कहते हैं। इसी व्युत्पत्ति के अनुसार वह क्षेत्र समन्त कहलाता है।

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