"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 125 श्लोक 1-19" के अवतरणों में अंतर

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== एक सौ पच्चीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
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==पञ्चविंशत्यधिकशततम (125) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
 
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चविंशत्यधिकशततम  अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 27 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
  
 
भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
 
भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
  
वैशम्पायनजी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ जनमेजय ! भगवान् श्रीकृष्ण का पूर्वोक्त वचन सुनकर शांतनुनन्दन भीष्म ने ईर्ष्या और क्रोध में भरे रहने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा-। ‘तात ! भगवान श्रीकृष्ण ने सुहृदयों में परस्पर शांति बनाए रखने की इच्छा से जो बात काही है, उसे स्वीकार करो । क्रोध के वशीभूत न होओ। ‘तात ! महात्मा केशव की बात न मानने से तुम कभी श्रेय, सुख और कल्याण नहीं पा सकोगे। वत्स ! महाबाहु केशव ने तुमसे धर्म और अर्थ के अनुकूल बात कही है । राजन् ! तुम उसे स्वीकार कर लो, प्रजा का विनाश न करो। ‘बेटा ! यह भरतवंश की राजलक्ष्मी समस्त राजाओं में प्रकाशित हो रही है, किन्तु मैं देखता हूँ की तुम अपनी दुष्टता के कारण इसे धृतराष्ट्र के जीते-जी ही नष्ट कर दोगे। ‘साथ ही अपनी इस अहंकारयुक्त बुद्धि के कारण तुम पुत्र, भाई, बांधवजन तथा मंत्रियों सहित अपने आपको भी जीवन से वंचित कर दोगे ॥6॥ ‘भरतश्रेष्ठ ! केशव का वचन सत्य और सार्थक है । तुम उनके, अपने पिता के तथा बुद्धिमान विदुर के वचनों की अवहेलना करके कुमार्ग पर न चलो । कुलघाती, कुपुरुष और कुबुद्धि से कलंकित न बनो तथा माता पिता को शोक के समुद्र में न डुबाओ। तदनंतर रोष के वशीभूत होकर बारंबार लंबी सांस खींचनेवाले दुर्योधन से द्रोणाचार्य ने इस प्रकार कहा - । ‘तात ! भगवान् श्रीकृष्ण और शांतनुनन्दन भीष्म ने धर्म और अर्थ से युक्त बात कही है । नरेश्वर ! तुम उसे स्वीकार करो।  ‘राजन् ! ये दोनों महापुरुष विद्वान, मेधावी, जितेंद्रिय, तुम्हारा भला चाहने वाले और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता हैं । इन्होनें तुमसे हित की ही बात कही है, अत: तुम इसका सेवन करो। ‘महामते ! श्रीकृष्ण और भीष्म ने जो कुछ कहा है, उसका पालन करो । परंतप ! तुम तुच्छ बुद्धिवाले लोगों की बात पर आस्था मत रखो । शत्रुदमन ! अपनी बुद्धि के मोह से माधव का तिरस्कार न करो। ‘जो लोग तुम्हें युद्ध के लिए उत्साहित कर रहे हैं, ये कभी तुम्हारे काम नहीं आ सकते । ये युद्ध का अवसर आने पर वैर का बोझ दूसरे के कंधे पर दाल देंगे। ‘समस्त प्रजाओं, पुत्रों, और भाइयों की हत्या न कराओ । जिनकी ओर भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, उन्हें युद्ध में अजेय समझो। ‘तात ! भरतनन्दन ! तुम्हारा वास्तविक हित चाहनेवाले श्रीकृष्ण और भीष्म का यही यथार्थ मत है । यदि तुम इसे ग्रहण नहीं करोगे तो पछताओगे। ‘जमदग्निनन्दन परशुरामजी ने जैसा बताया है, ये अर्जुन उससे भी महान् है और देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण तो देवताओं के लिए भी अत्यंत दु:सह हैं । भरतश्रेष्ठ ! तुम्हें सुखद और प्रिय लगनेवाली अधिक बातें कहने से क्या लाभ ? ये सब बातें जो हमें कहनी थीं, मैंने कह दीं । अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो । भरतवंशविभूषण ! अब तुमसे और कुछ कहने के लिए मेरे मन में उत्साह नहीं है’।
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वैशम्पायनजी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ जनमेजय ! भगवान  श्रीकृष्ण का पूर्वोक्त वचन सुनकर शांतनुनन्दन भीष्म ने ईर्ष्या और क्रोध में भरे रहने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा-। ‘तात ! भगवान श्रीकृष्ण ने सुहृदयों में परस्पर शांति बनाए रखने की इच्छा से जो बात काही है, उसे स्वीकार करो । क्रोध के वशीभूत न होओ। ‘तात ! महात्मा केशव की बात न मानने से तुम कभी श्रेय, सुख और कल्याण नहीं पा सकोगे। वत्स ! महाबाहु केशव ने तुमसे धर्म और अर्थ के अनुकूल बात कही है । राजन् ! तुम उसे स्वीकार कर लो, प्रजा का विनाश न करो। ‘बेटा ! यह भरतवंश की राजलक्ष्मी समस्त राजाओं में प्रकाशित हो रही है, किन्तु मैं देखता हूँ की तुम अपनी दुष्टता के कारण इसे धृतराष्ट्र के जीते-जी ही नष्ट कर दोगे। ‘साथ ही अपनी इस अहंकारयुक्त बुद्धि के कारण तुम पुत्र, भाई, बांधवजन तथा मंत्रियों सहित अपने आपको भी जीवन से वंचित कर दोगे ॥6॥ ‘भरतश्रेष्ठ ! केशव का वचन सत्य और सार्थक है । तुम उनके, अपने पिता के तथा बुद्धिमान विदुर के वचनों की अवहेलना करके कुमार्ग पर न चलो । कुलघाती, कुपुरुष और कुबुद्धि से कलंकित न बनो तथा माता पिता को शोक के समुद्र में न डुबाओ। तदनंतर रोष के वशीभूत होकर बारंबार लंबी सांस खींचनेवाले दुर्योधन से द्रोणाचार्य ने इस प्रकार कहा - । ‘तात ! भगवान  श्रीकृष्ण और शांतनुनन्दन भीष्म ने धर्म और अर्थ से युक्त बात कही है । नरेश्वर ! तुम उसे स्वीकार करो।  ‘राजन् ! ये दोनों महापुरुष विद्वान, मेधावी, जितेंद्रिय, तुम्हारा भला चाहने वाले और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता हैं । इन्होनें तुमसे हित की ही बात कही है, अत: तुम इसका सेवन करो। ‘महामते ! श्रीकृष्ण और भीष्म ने जो कुछ कहा है, उसका पालन करो । परंतप ! तुम तुच्छ बुद्धिवाले लोगों की बात पर आस्था मत रखो । शत्रुदमन ! अपनी बुद्धि के मोह से माधव का तिरस्कार न करो। ‘जो लोग तुम्हें युद्ध के लिए उत्साहित कर रहे हैं, ये कभी तुम्हारे काम नहीं आ सकते । ये युद्ध का अवसर आने पर वैर का बोझ दूसरे के कंधे पर दाल देंगे। ‘समस्त प्रजाओं, पुत्रों, और भाइयों की हत्या न कराओ । जिनकी ओर भगवान  श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, उन्हें युद्ध में अजेय समझो। ‘तात ! भरतनन्दन ! तुम्हारा वास्तविक हित चाहनेवाले श्रीकृष्ण और भीष्म का यही यथार्थ मत है । यदि तुम इसे ग्रहण नहीं करोगे तो पछताओगे। ‘जमदग्निनन्दन परशुरामजी ने जैसा बताया है, ये अर्जुन उससे भी महान् है और देवकीनन्दन भगवान  श्रीकृष्ण तो देवताओं के लिए भी अत्यंत दु:सह हैं । भरतश्रेष्ठ ! तुम्हें सुखद और प्रिय लगनेवाली अधिक बातें कहने से क्या लाभ ? ये सब बातें जो हमें कहनी थीं, मैंने कह दीं । अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो । भरतवंशविभूषण ! अब तुमसे और कुछ कहने के लिए मेरे मन में उत्साह नहीं है’।
  
वैशंपायनजी कहते हैं – जनमजेय ! जब द्रोणाचार्य अपनी बात कह रहे थे, उसी समय विदूरजी भी अमर्ष में भरे हुए धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन की ओर देखकर बीच में ही कहने लगे-। ‘भरतभूषण दुर्योधन ! मैं तुम्हारे लिए शोक नहीं करता । मुझे तो तुम्हारे इन बूढ़े माता-पिता गांधारी और धृतराष्ट्र के लिए भारी शोक हो रहा है।‘क्योंकि ये दोनों तुम-जैसे दुष्ट सहायक के कारण मित्रों और मंत्रियों के मारे जाने पर पंख कटे हुए पक्षियों की भांति अनाथ (असहाय) होकर विचरेंगे। ‘तुम्हारे जैसे पापी और कुलघाती कुपुरुष पुत्र को जन्म देने के कारण ये दोनों शोकमग्न हो भिक्षुक की भांति इस पृथ्वी पर इधर-उधर भटकते फिरेंगे’।तत्पश्चात् राजा धृतराष्ट्र ने राजाओं से घिरकर भाइयों के साथ बैठे हुए दुर्योधन से कहा -। ‘दुर्योधन ! मेरी इस बात पर ध्यान दो । महात्मा श्रीकृष्ण ने जो बात बताई है, वह अत्यंत कल्याणकारक, योगक्षेम की प्राप्ति करानेवाली तथा दीर्घकाल तक स्थिर रहनेवाली है, तुम इसे स्वीकार करो । ‘अनायास ही महान् कर्म करनेवाले इन भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता से हम लोग समस्त राजाओं में सम्मानित रहकर अपने सभी अभीष्ट मनोरथों को प्राप्त कर लेंगे। ‘तात ! भगवान् श्रीक़ृष्ण से मिलकर तुम युधिष्ठिर के पास जाओ और पूर्ण रूप से मंगल सम्पादन करो, जिससे भरतवंशियों को कोई क्षति न उठानी पड़े।  ‘तात ! भगवान् श्रीक़ृष्ण को मध्यस्थ बनाकर अब शांति धारण करो । मैं तुम्हारे लिए यही समयोचित कर्तव्य मानता हूँ । दुर्योधन ! तुम मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन न करो । ‘यदि तुम शांति के लिए प्रार्थना करनेवाले भगवान् श्रीक़ृष्ण का जो तुम्हारे हित की बात बता रहे हैं, तिरस्कार करोगे- इनकी आज्ञा नहीं मानोगे तो तुम्हारा पराभव हुए बिना नहीं रह सकता’।
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वैशंपायनजी कहते हैं – जनमजेय ! जब द्रोणाचार्य अपनी बात कह रहे थे, उसी समय विदूरजी भी अमर्ष में भरे हुए धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन की ओर देखकर बीच में ही कहने लगे-। ‘भरतभूषण दुर्योधन ! मैं तुम्हारे लिए शोक नहीं करता । मुझे तो तुम्हारे इन बूढ़े माता-पिता गांधारी और धृतराष्ट्र के लिए भारी शोक हो रहा है।
 
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में भीष्म आदि के वचनों से संबंध रखनेवाला एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
 
                                                                                            
 
                                                                                            
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 124 श्लोक 45- 62|अगला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 126 श्लोक 1- 18}}
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 124 श्लोक 52-62|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 125 श्लोक 20-27}}
 
 
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत उद्योगपर्व]]
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[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत उद्योग पर्व]]
 
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१२:११, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चविंशत्यधिकशततम (125) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना

वैशम्पायनजी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ जनमेजय ! भगवान श्रीकृष्ण का पूर्वोक्त वचन सुनकर शांतनुनन्दन भीष्म ने ईर्ष्या और क्रोध में भरे रहने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा-। ‘तात ! भगवान श्रीकृष्ण ने सुहृदयों में परस्पर शांति बनाए रखने की इच्छा से जो बात काही है, उसे स्वीकार करो । क्रोध के वशीभूत न होओ। ‘तात ! महात्मा केशव की बात न मानने से तुम कभी श्रेय, सुख और कल्याण नहीं पा सकोगे। वत्स ! महाबाहु केशव ने तुमसे धर्म और अर्थ के अनुकूल बात कही है । राजन् ! तुम उसे स्वीकार कर लो, प्रजा का विनाश न करो। ‘बेटा ! यह भरतवंश की राजलक्ष्मी समस्त राजाओं में प्रकाशित हो रही है, किन्तु मैं देखता हूँ की तुम अपनी दुष्टता के कारण इसे धृतराष्ट्र के जीते-जी ही नष्ट कर दोगे। ‘साथ ही अपनी इस अहंकारयुक्त बुद्धि के कारण तुम पुत्र, भाई, बांधवजन तथा मंत्रियों सहित अपने आपको भी जीवन से वंचित कर दोगे ॥6॥ ‘भरतश्रेष्ठ ! केशव का वचन सत्य और सार्थक है । तुम उनके, अपने पिता के तथा बुद्धिमान विदुर के वचनों की अवहेलना करके कुमार्ग पर न चलो । कुलघाती, कुपुरुष और कुबुद्धि से कलंकित न बनो तथा माता पिता को शोक के समुद्र में न डुबाओ। तदनंतर रोष के वशीभूत होकर बारंबार लंबी सांस खींचनेवाले दुर्योधन से द्रोणाचार्य ने इस प्रकार कहा - । ‘तात ! भगवान श्रीकृष्ण और शांतनुनन्दन भीष्म ने धर्म और अर्थ से युक्त बात कही है । नरेश्वर ! तुम उसे स्वीकार करो। ‘राजन् ! ये दोनों महापुरुष विद्वान, मेधावी, जितेंद्रिय, तुम्हारा भला चाहने वाले और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता हैं । इन्होनें तुमसे हित की ही बात कही है, अत: तुम इसका सेवन करो। ‘महामते ! श्रीकृष्ण और भीष्म ने जो कुछ कहा है, उसका पालन करो । परंतप ! तुम तुच्छ बुद्धिवाले लोगों की बात पर आस्था मत रखो । शत्रुदमन ! अपनी बुद्धि के मोह से माधव का तिरस्कार न करो। ‘जो लोग तुम्हें युद्ध के लिए उत्साहित कर रहे हैं, ये कभी तुम्हारे काम नहीं आ सकते । ये युद्ध का अवसर आने पर वैर का बोझ दूसरे के कंधे पर दाल देंगे। ‘समस्त प्रजाओं, पुत्रों, और भाइयों की हत्या न कराओ । जिनकी ओर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, उन्हें युद्ध में अजेय समझो। ‘तात ! भरतनन्दन ! तुम्हारा वास्तविक हित चाहनेवाले श्रीकृष्ण और भीष्म का यही यथार्थ मत है । यदि तुम इसे ग्रहण नहीं करोगे तो पछताओगे। ‘जमदग्निनन्दन परशुरामजी ने जैसा बताया है, ये अर्जुन उससे भी महान् है और देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण तो देवताओं के लिए भी अत्यंत दु:सह हैं । भरतश्रेष्ठ ! तुम्हें सुखद और प्रिय लगनेवाली अधिक बातें कहने से क्या लाभ ? ये सब बातें जो हमें कहनी थीं, मैंने कह दीं । अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो । भरतवंशविभूषण ! अब तुमसे और कुछ कहने के लिए मेरे मन में उत्साह नहीं है’।

वैशंपायनजी कहते हैं – जनमजेय ! जब द्रोणाचार्य अपनी बात कह रहे थे, उसी समय विदूरजी भी अमर्ष में भरे हुए धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन की ओर देखकर बीच में ही कहने लगे-। ‘भरतभूषण दुर्योधन ! मैं तुम्हारे लिए शोक नहीं करता । मुझे तो तुम्हारे इन बूढ़े माता-पिता गांधारी और धृतराष्ट्र के लिए भारी शोक हो रहा है।


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