"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 9 श्लोक 19-37" के अवतरणों में अंतर

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नवम अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योगपर्व: नवम अध्याय: श्लोक 34- 58 का हिन्दी अनुवाद

बढ़ई ने कहा--देवराज ! इस क्रूर कर्म से आपको यहाँ लज्जा कैसे नहीं आती है? इस ऋषि कुमार की हत्या करने से बह्महत्या का पाप लगेगा क्या उसका भय आपको नहीं है।

इन्द्र ने कहा--यह मेरा महान शक्तिशाली शत्रु था, जिसे मैने वज्र से मार डाला है । इसके बाद ब्रह्महत्या से अपनी शुद्धि करने के लिये मै किसी ऐसे धर्म का अनुष्ठान करूँगा जो दूसरो के लिये अत्यन्त दुष्कर हो। बढ़ई ! यद्यपि यह मारा गया है, तो भी अभीतक मुझे इसका भय बना हुआ है । तू शीघ्र इसके मस्तकों के टुकडे-टुकडे कर दे । मै तैरे उपर अनुग्रह करूँगा। मनुष्य हिंसा प्रधान तामस यज्ञों में पशु का सिर तेरे भाग के रूप में देंगे । बढई ! यह तेरे ऊपर मेरा अनुग्रह है अब तू जल्दी मेरा प्रिय कार्य कर।

शल्य कहते है-राजन ! यह बात सुनकर बढ़ई ने उस समय महेन्द्र की आज्ञा के अनुसार कुठार से त्रिशिरा के तीनों सिरो के टुकडें कर दिये। कट जाने पर उनके अंदर से तीन प्रकार के पक्षी बाहर निकले, कपिजल, तीतर और गौरेये। जिस मुख से वे वेदोंकापाठ करते तथा केवल सोमरस पीते थें, उससे शीध्रतापूर्वक कपिजल पक्षी बाहर निकले थे। युधिष्ठिर ! जिसके द्वारा वे सम्पूर्ण दिशाओं को इस प्रकार देखते थे, मानो पी जायँगे, उस मुख से तीतर पक्षी निकले। भरतश्रेष्ठ ! त्रिशिरा का जो मुख सुरापान करने वाला था, उससे गौरये तथा वाज नामक पक्षी प्रकट हुए। उन तीनो सिरों के कट जाने पर इन्द्र की मानसिक चिन्ता दूर हो गयी । वे प्रसन्न होकर स्वर्ग लौट गये तथा बढऋई भी अपने घर चला गया। उस बढई ने भी अपने घर जाकर किसी से कुछ नहीं कहा । तदन्तर इन्द्र ने ऐसा काम किया है, यह एक वर्ष तक किसी को नहीं मालूम नहीं हुआ । युधिष्ठिर ! वर्ष पूर्ण होने पर भगवान पशुपति के भूतगण यह हल्ला मचाने लगे कि हमारे स्वामी इन्द्र ब्रह्महत्यारे है । तब पाकशासन इन्द्र ने ब्रह्महत्या से मक्ति पाने के लिये कठिन व्रत का आचरण किया । वे देवताओं तथा मरूöणों के साथ तपस्या में संलग्न हो गये । उन्होंने समुद्र, पृथ्वी, वृक्ष तथा स्त्रीसमुदाय को अपनी ब्रह्महत्या बाँटकर उन सब को अभीष्ट वरदान दिया । इसप्रकार वरदायक इन्द्र ने पृथ्वी, समुद्र वनस्पति तथा सित्रियों को घर देकर उस ब्रह्महत्या को दूर किया ! तदन्तर शुद्ध होकर भगवान इन्द्र देवताओं, मनुष्यों तथा महर्षियों से पूजित होते हुए अपने इन्द्र पर आसीन हुए ॥दैत्यों का संहार करने वाले इन्द्र ने शत्रु मारकर अपने आपको कृतार्थ माना । इधर त्वष्टा प्रजापति जब यह सुना कि इन्द्र ने मेरे पुत्रो को मार डाला है, तब उनकी आँखे क्रोध से लाल हो गयीं ओर वे इस प्रकार बोले।

त्वष्ठा ने कहा-मेरा पुत्र सदा क्षमाशील, संयमी और जितेन्द्रिय रहकर तपस्या में लगा हुआ था, तो भी इन्द्र ने बिना किसी अपराध के उसकी हत्या की है। अतः मै विनाश के लिये वृत्रासुर को उत्पन्न करूँगा। आज संसार के लोग मेरा पराक्रम तथा मेरी तपस्या का महान बल देखें। साथ ही वह पापात्मा और दुरात्मा देवेन्द भी मेरा महान तपोबल देख ले । ऐसा कहकर क्रोध में भरे हुए तपस्वी एवं महायशस्वी त्वष्टा ने आचमन करके अग्नि में आहुति दे घोर रूपवाले वृत्रासुर को उत्पन्न करके उससे कहा-इन्द्रशत्रो ! तू मेरी तपस्या के प्रभाव से खूब बढ़ जा। उनके इतना कहते ही सूर्य ओर अग्नि के समान तेजस्वीवृत्रासुर सारे आकाश को आक्रान्त करके बहुत कडा हो गया । वह ऐसा जान पड़ता था, मानो प्रलयकाल का सूर्य उदित हुआ हो । उसने पूछा-पिताजी मै क्या करूँ? तब त्वष्टा ने कहा-इन्द्र को मार डालो ।उनके ऐसा कहने पर वृत्रासुर स्वर्गलोक में गया वृत्रासुर तथा इन्द्र में बड़ा भारी युद्ध छिड़ गया। कुरूक्षेत्र ! वे दोनों क्रोध में भरे हुए थे। उनमें अत्यन्त धोर संग्राम होेने लगा । तदन्तर कुपित हुए वीर वृत्रासुर ने शतक्रतु इन्द्र को पकड़ लिया ओर मुँह बाकर उन्हें उसके भीतर डाल लिया ! वृत्रासुर के द्वारा इन्द्र के ग्रस लिये जाने पर सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवता धबरा गये। तब उन महासत्वशाली देवताओं ने जँभाई की सृष्टि की, जो वृत्रासुर का नाश करने वाली थी । जँभाई लेते समय जब वृत्रासुर ने अपना मुख फैलाया, तब बलनाशक इन्द्र अपने अंगो को समटकर बाहर निकल आये । तभी से सब लोगो के प्राणो में जृम्भा शक्ति का निवास हो गया। इन्द्रो को उसके मुख से निकला हुआ देख सब देवता बड़े प्रसन्न हुए । तदन्तर वृत्रासुर तथा इन्द्र में पुनः होने लगा। भरतश्रेष्ठ ! क्रोध में भरे हुए उन दोनों वीरो का वह भयानक संग्राम देर तक रहता रहा । वृत्रासुर त्वष्ठा के तेज और बल से व्याप्त हो जब युद्ध में अधिक बलशाली हो बढने लगा, तब इन्द्र युद्ध से विमुख होने पर सब देवताओं को बड़ा दुःख हुआ। भारत ! त्वष्ठा के तेज से मोहित हुए सब देवता देवराज इन्द्र तथा ऋिषयों से मिलकर सलाह करेने लगे कि अब हमें क्या करना चाहिये? राजन् ! भय से मोहत हुए सब देवता बहुत देर तक सोच-विचार कर के मन ही मन अविनाशी परमात्मा भगवान विष्णु की शरण में गये वे वृत्रासुर के वंध की इच्‍छा से मन्दराजचल के शिखर पर ध्यानस्ाि होकर बैठ गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक नौवाँ अध्याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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