"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 95-109" के अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 95-109 का हिन्दी अनुवाद </div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 95-109 का हिन्दी अनुवाद </div> | ||
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्म आदि का समादरविषयक तैतालिसवां अध्याय पुरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्म आदि का समादरविषयक तैतालिसवां अध्याय पुरा हुआ।</div> | ||
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०५:१२, १७ जुलाई २०१५ का अवतरण
त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
उस समय आपके पुत्र युयुत्सुने पाण्डवों की ओर देखकर प्रसन्नचित्त हो धर्मराज कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा-‘महाराज! निष्पाप नरेश! यदि आप मुझे स्वीकार करें तो मैं आपलोगों के लिये युद्धमें धृतराष्ट्र के पुत्रों से युद्ध करूंगा। युधिष्ठिर बोले-युयुत्सो! आओ, आओ। हम सब लोग मिलकर तुम्हारे इन मुर्ख भाईयों से युद्ध करेंगे। यह बात हम और भगवान् श्रीकृष्ण सभी कह रहे है। महाबाहो! मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। तुम मेरे लिये युद्ध करो। राजा धृतराष्ट्र की वंशपरम्परा तथा पिण्डोदक-क्रिया तुमपर ही अवलम्बित दिखायी देती है। महातेजस्वी राजकुमार! हम तुम्हें अपनाते हैं। तुम भी हमे स्वीकार करो। अत्यन्त क्रोधी दुर्बुद्धि दुर्योधन अब इस संसार में जीवित नही रहेगा। संजय कहते है-राजन्! तदनन्तर युयुत्सु युधिष्ठिर की बात को सच मानकर आपके सभी पुत्रों को त्याग कर डंका पीटता हुआ पाण्डवों की सेना में चला गया। वह दुर्योधन के पापकर्म की निन्दा करता हुआ युद्ध का निश्चय करके पाण्डवों के साथ उन्हीं की सेनामें रहने लगा। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने भाईयोंसहित अत्यन्त प्रसन्न हो सोने का बना हुआ चमकीला कवच धारण किया। फिर वे सभी श्रेष्ठ पुरूष अपने-अपने रथपर आरूढ हुए; इसके बाद उन्होनें पुनः शत्रुओं के मुकाबले में पहले की भॉति ही अपनी सेना की व्यूह-रचना की। उन श्रेष्ठ पुरूषोंने सैकडों दुन्दुमियां और नगारे बजाने तथा अनेक प्रकार से सिंह-गर्जनाएं की। पुरूषसिंह पाण्डवों को पुनः रथपर बैठे देख धृष्टघुम्न आदि राजा बडे़ हुए। माननीय पुरूषों का सम्मान करनेवाले पाण्डवों के उस गौरवों को देखकर सब भूपाल उनकी बडी प्रशंसा करने लगे। सब राजा महात्मा पाण्डवों के सौहार्द, कृपाभाव, समयो-चित कर्तव्य के पालन तथा कुटुम्बियों के प्रति परम दयाभाव की चर्चा करने लगे। यशस्वी पाण्डवों के लिये सब और से उनकी स्तुति प्रशंसा से भरी हुई ‘साधु-साधु’ की बातें निकलती थी। उन्हें ऐसी पवित्र वाणी सुनने को मिलती थी, जो मन और ह्रदय के हर्ष को बढानेवाली थी। वहां जिन-जिन म्लेच्छों और आर्योने पाण्डवों का वह बर्ताव देखा तथा सुना, वे सब गदगदकण्ठ होकर रोने लगे। तदनन्तर हर्ष में भरे हुए सभी मनस्वी पुरूषों ने सैकड़ों और हजारों बड़ी-बड़ी भेरियों तथा गोदुग्ध के समान श्वेत शंको को बजाया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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