"महाभारत मौसल पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-16" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: मौसल पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: मौसल पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
;युधिष्ठिर का अपशकुन देखना, यादवों के विनाश का समाचार सुनना, द्वारका में ऋषियों के शापवश साम्ब के पेट से मूसल की उत्पत्ति तथा मदिरा के निषेध की कठोर आज्ञा
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युधिष्ठिर का अपशकुन देखना, यादवों के विनाश का समाचार सुनना, द्वारका में ऋषियों के शापवश साम्ब के पेट से मूसल की उत्पत्ति तथा मदिरा के निषेध की कठोर आज्ञा
अन्तर्यामी नारायण स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण,( उन के नित्य सखा) नर स्वरूपा नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उन की लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेद व्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत)- का पाठ करना चाहिये । वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! महाभारत युद्ध के पश्चात् जब छत्तीसवाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ तब कौरव नन्दन राजा युधिष्ठिर को कई तरह के अपशकुन दिखायी देने लगे। बिजली की गड़गड़ाहट के साथ बालू और कंकड़ बरसाने वाली प्रचण्ड आँधी चलने लगी । पक्षी दाहिनी ओर मण्डल बनाकर उड़ते दिखायी देने लगे। बड़ी-बड़ी नदियाँ बालू के भीतर छिपकर बहने लगीं । दिशाएँ कुहरे से आच्छादित हो गयीं । आकाश से पृथ्वी पर अंगार बरसाने वाली उल्काएँ गिरने लगीं। राजन् ! सूर्य मण्डल धूल से आच्छन्न हो गया था । उदय काल में सूर्य तेजोहीन प्रतीत होते थे और उनका मण्डल प्रतिदिन अनेक कबन्धों (बिना सिर के धड़ों)- से युक्त दिखायी देता था। चन्द्रमा और सूर्य दोनों के चारों ओर भयानक घेरे दृष्टिगोचर होते थे । उन घेरों में तीन रंग प्रतीत होते थे । उनका किनारे का भाग काला एवं रूखा होता था । बीच में भस्म के समान धूसर रंग दीखता था और भीतरी किनारे की कान्ति अरूणवर्ण की दृष्टिगोचर होती थी। राजन् ! ये तथा और भी बहुत - से भयसूचक उत्पात दिखायी देने लगे, जो हृदय को उद्विग्न कर देने वाले थे। इसके थोड़े ही दिनों बाद कुरूराज युधिष्ठिर ने यह समाचार सुना कि मूसल को निमित्त बनाकर आपस में महान् युद्ध हुआ है; जिस में समस्त वृष्णिवंशियों का संहार हो गया । केवल भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम जी ही उस विनाश से बचे हुए हैं । यह सब सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने समस्त भाइयों को बुलाया और पूछा - ‘अब हमें क्या करना चाहिये ? ब्राह्मणों के शाप बल से विवश हो आपस में लड़-भिड़कर सारे वृष्णिवंशी विनष्ट हो गये । यह बात सुनकर पाण्डवों को बड़ी वेदना हुई । भगवान् श्रीकृष्ण का वध तो समुद्र को सोख लेने के समान असम्भव था; अतः उन वीरों ने भगवान् श्रीकृष्ण के विनाश की बात पर विश्वास नहीं किया। इस मौसल काण्ड की बात को लेकर सारे पाण्डव दुःख-शोक में डूब गये । उनके मन में विषाद छा गया और वे हताश हो मन मारकर बैठ गये। जनमेजय ने पूछा- भगवान् ! भगवान् श्रीकृष्ण के देखते-देखते वृष्णियों सहित अन्धक तथा महारथी भोजवंशी क्षत्रिय कैसे नष्ट हो गये ? वैशम्पायन जी ने कहा - राजन् ! महाभारत युद्ध के बाद छत्तीसवें वर्ष वृष्णिवंशियों में महान् अन्याय पूर्ण कलह आरम्भ हो गया । उसमें काल से प्रेरित होकर उन्होंने एक-दूसरे को मूसलों (अरों)- से मार डाला। जनमेजय ने पूछा- विप्रवर ! वृष्णि, अन्धक तथा भोजवंश के उन वीरों को किस ने शाप दिया था जिससे उनका संहार हो गया ? आप यह प्रसंग मुझे विस्तार पूर्वक बताइये । वैशम्पायन जी ने कहा- राजन् ! एक समय की बात है, महर्षि विश्वामित्र, कण्व और तपस्या के धनी नारद जी द्वारका में गये हुए थे । उस समय दैव के मारे हुए सारण आदि वीर साम्ब को स्त्री के वेष में विभूषित करके उन के पास ले गये । उन सब ने उन मुनियों का दर्शन किया और इस प्रकार पूछा।
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अन्तर्यामी नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, (उन के नित्य सखा) नर स्वरूपा नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उन की लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेद व्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! महाभारत युद्ध के पश्चात जब छत्तीसवाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ तब कौरव नन्दन राजा युधिष्ठिर को कई तरह के अपशकुन दिखायी देने लगे। बिजली की गड़गड़ाहट के साथ बालू और कंकड़ बरसाने वाली प्रचण्ड आँधी चलने लगी। पक्षी दाहिनी ओर मण्डल बनाकर उड़ते दिखायी देने लगे। बड़ी-बड़ी नदियाँ बालू के भीतर छिपकर बहने लगीं। दिशाएँ कुहरे से आच्छादित हो गयीं। आकाश से पृथ्वी पर अंगार बरसाने वाली उल्काएँ गिरने लगीं। राजन् ! सूर्य मण्डल धूल से आच्छन्न हो गया था। उदय काल में सूर्य तेजोहीन प्रतीत होते थे और उनका मण्डल प्रतिदिन अनेक कबन्धों (बिना सिर के धड़ों) से युक्त दिखायी देता था। चन्द्रमा और सूर्य दोनों के चारों ओर भयानक घेरे दृष्टिगोचर होते थे। उन घेरों में तीन रंग प्रतीत होते थे। उनका किनारे का भाग काला एवं रूखा होता था। बीच में भस्म के समान धूसर रंग दीखता था और भीतरी किनारे की कान्ति अरुणवर्ण की दृष्टिगोचर होती थी। राजन् ! ये तथा और भी बहुत-से भयसूचक उत्पात दिखायी देने लगे, जो हृदय को उद्विग्न कर देने वाले थे। इसके थोड़े ही दिनों बाद कुरुराज युधिष्ठिर ने यह समाचार सुना कि मूसल को निमित्त बनाकर आपस में महान युद्ध हुआ है; जिस में समस्त वृष्णिवंशियों का संहार हो गया। केवल भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ही उस विनाश से बचे हुए हैं। यह सब सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने समस्त भाइयों को बुलाया और पूछा- ‘अब हमें क्या करना चाहिये ? ब्राह्मणों के शाप बल से विवश हो आपस में लड़-भिड़कर सारे वृष्णिवंशी विनष्ट हो गये। यह बात सुनकर पाण्डवों को बड़ी वेदना हुई। भगवान श्रीकृष्ण का वध तो समुद्र को सोख लेने के समान असम्भव था; अतः उन वीरों ने भगवान श्रीकृष्ण के विनाश की बात पर विश्वास नहीं किया। इस मौसल काण्ड की बात को लेकर सारे पाण्डव दुःख-शोक में डूब गये। उनके मन में विषाद छा गया और वे हताश हो मन मारकर बैठ गये। जनमेजय ने पूछा- भगवान ! भगवान श्रीकृष्ण के देखते-देखते वृष्णियों सहित अन्धक तथा महारथी भोजवंशी क्षत्रिय कैसे नष्ट हो गये ? वैशम्पायन जी ने कहा- राजन् ! महाभारत युद्ध के बाद छत्तीसवें वर्ष वृष्णिवंशियों में महान अन्याय पूर्ण कलह आरम्भ हो गया। उसमें काल से प्रेरित होकर उन्होंने एक-दूसरे को मूसलों (अरों) से मार डाला। जनमेजय ने पूछा- विप्रवर ! वृष्णि, अन्धक तथा भोजवंश के उन वीरों को किस ने शाप दिया था जिससे उनका संहार हो गया ? आप यह प्रसंग मुझे विस्तार पूर्वक बताइये। वैशम्पायन जी ने कहा- राजन् ! एक समय की बात है, महर्षि विश्वामित्र, कण्व और तपस्या के धनी नारद जी द्वारका में गये हुए थे। उस समय दैव के मारे हुए सारण आदि वीर साम्ब को स्त्री के वेष में विभूषित करके उन के पास ले गये। उन सब ने उन मुनियों का दर्शन किया और इस प्रकार पूछा।
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<div align="center">'''[[महाभारत मौसल पर्व अध्याय 1 श्लोक 17-31|आगे जाएँ »]]'''</div>
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 39 श्लोक 18-27|अगला=महाभारत  मौसल पर्व अध्याय 1 श्लोक 17-31}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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१९:५५, ३० अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

प्रथम (1) अध्याय: मौसल पर्व

महाभारत: मौसल पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर का अपशकुन देखना, यादवों के विनाश का समाचार सुनना, द्वारका में ऋषियों के शापवश साम्ब के पेट से मूसल की उत्पत्ति तथा मदिरा के निषेध की कठोर आज्ञा

अन्तर्यामी नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, (उन के नित्य सखा) नर स्वरूपा नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उन की लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेद व्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! महाभारत युद्ध के पश्चात जब छत्तीसवाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ तब कौरव नन्दन राजा युधिष्ठिर को कई तरह के अपशकुन दिखायी देने लगे। बिजली की गड़गड़ाहट के साथ बालू और कंकड़ बरसाने वाली प्रचण्ड आँधी चलने लगी। पक्षी दाहिनी ओर मण्डल बनाकर उड़ते दिखायी देने लगे। बड़ी-बड़ी नदियाँ बालू के भीतर छिपकर बहने लगीं। दिशाएँ कुहरे से आच्छादित हो गयीं। आकाश से पृथ्वी पर अंगार बरसाने वाली उल्काएँ गिरने लगीं। राजन् ! सूर्य मण्डल धूल से आच्छन्न हो गया था। उदय काल में सूर्य तेजोहीन प्रतीत होते थे और उनका मण्डल प्रतिदिन अनेक कबन्धों (बिना सिर के धड़ों) से युक्त दिखायी देता था। चन्द्रमा और सूर्य दोनों के चारों ओर भयानक घेरे दृष्टिगोचर होते थे। उन घेरों में तीन रंग प्रतीत होते थे। उनका किनारे का भाग काला एवं रूखा होता था। बीच में भस्म के समान धूसर रंग दीखता था और भीतरी किनारे की कान्ति अरुणवर्ण की दृष्टिगोचर होती थी। राजन् ! ये तथा और भी बहुत-से भयसूचक उत्पात दिखायी देने लगे, जो हृदय को उद्विग्न कर देने वाले थे। इसके थोड़े ही दिनों बाद कुरुराज युधिष्ठिर ने यह समाचार सुना कि मूसल को निमित्त बनाकर आपस में महान युद्ध हुआ है; जिस में समस्त वृष्णिवंशियों का संहार हो गया। केवल भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ही उस विनाश से बचे हुए हैं। यह सब सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने समस्त भाइयों को बुलाया और पूछा- ‘अब हमें क्या करना चाहिये ? ब्राह्मणों के शाप बल से विवश हो आपस में लड़-भिड़कर सारे वृष्णिवंशी विनष्ट हो गये। यह बात सुनकर पाण्डवों को बड़ी वेदना हुई। भगवान श्रीकृष्ण का वध तो समुद्र को सोख लेने के समान असम्भव था; अतः उन वीरों ने भगवान श्रीकृष्ण के विनाश की बात पर विश्वास नहीं किया। इस मौसल काण्ड की बात को लेकर सारे पाण्डव दुःख-शोक में डूब गये। उनके मन में विषाद छा गया और वे हताश हो मन मारकर बैठ गये। जनमेजय ने पूछा- भगवान ! भगवान श्रीकृष्ण के देखते-देखते वृष्णियों सहित अन्धक तथा महारथी भोजवंशी क्षत्रिय कैसे नष्ट हो गये ? वैशम्पायन जी ने कहा- राजन् ! महाभारत युद्ध के बाद छत्तीसवें वर्ष वृष्णिवंशियों में महान अन्याय पूर्ण कलह आरम्भ हो गया। उसमें काल से प्रेरित होकर उन्होंने एक-दूसरे को मूसलों (अरों) से मार डाला। जनमेजय ने पूछा- विप्रवर ! वृष्णि, अन्धक तथा भोजवंश के उन वीरों को किस ने शाप दिया था जिससे उनका संहार हो गया ? आप यह प्रसंग मुझे विस्तार पूर्वक बताइये। वैशम्पायन जी ने कहा- राजन् ! एक समय की बात है, महर्षि विश्वामित्र, कण्व और तपस्या के धनी नारद जी द्वारका में गये हुए थे। उस समय दैव के मारे हुए सारण आदि वीर साम्ब को स्त्री के वेष में विभूषित करके उन के पास ले गये। उन सब ने उन मुनियों का दर्शन किया और इस प्रकार पूछा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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