महाभारत वन पर्व अध्याय 161 श्लोक 1-21

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एकषष्‍टयधिकशततम (161) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकषष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

कुबेरका गन्धमादन पर्वतपर आगमन और युधिष्ठिर से उनकी भेंट

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! उस समय उस पर्वतकी गुफा नाना प्रकारके शब्दोंसे प्रतिध्वनित हो रही थी। वह प्रतिध्वनि सुनकर अजातशत्रु कुन्तीकुमार युधिष्ठिर, दोनों माद्री-पुत्र नकुल-सहदेव, पुरोहित धौम्य, द्रौपदी और समस्त ब्राह्मण तथा सुहद-ये सभी भीमसेनको न देखनेके कारण बहुत उदास हो गये। तब वे महारथी शूर-वीर द्रौपदीको आर्ष्टिषेणकी देखरेखमें सौपकर हाथोंसे अस्त्र-शस्त्र लिये एक साथ पर्वतपर चढ़ गये। तदनन्तर शत्रुओंका दमन करनेवाले वे महाधनुर्धर एवं महारथी वीर उस पर्वतके शिखरपर पहुंचकर जब इधर-उधर दृष्टिपात करने लगे, तब उन्हें भीमसेन दिखायी दिये। साथ ही उन्होंने भीमसेनके द्वारा मार गिराये हुए महान् शक्तिशाली तथा परम उत्साही विशालकाय राक्षस भी देखे, जिनमें से कुछ छटपटा रहे थे और कुछ मरे पड़े थे। उस समय गदा, खंग और धनुष धारण किये महाबाहु भीमसेन समरभूमिमें सम्पूर्ण दानवोंका संहार करके खड़े हुए देवराज इन्द्रके समान शोभा पा रहे थे। तब वे उत्‍तम आश्रयको प्राप्त हुए महारथी पाण्डव भाई भीमसेनको हदयसे लगाकर उनके पास ही बैठ गये। जैसे महान् भाग्यशाली देवश्रेष्ठ इन्द्र आदि लोकपालोंके द्वारा स्वर्गलोककी शोभा होती हैं, उसी प्रकार उन चार महाधनुर्धर बन्धुओंसे उस समय वह पर्वत-शिखर सुशोभित हो रहा था। राजा युधिष्ठिरने कुबेरका भवन देखकर और मारे गये राक्षसोंकी ओर दृष्टिपात करके अपने पास बैठे हुए भाई भीमसेनसे कहा। युधिष्ठिर बोले-वीर भीमसेन! तुमने दुःसाहसवश अथवा मोहके कारण जो यह पापकर्म किया है, वह मुनिवृतिसे रहनेवाले तुम्हारे अनुरूप नहीं हैं। राक्षसोंका यह संहार व्यर्थ ही किया गया है। भीमसेन! धर्मज्ञ पुरूष यह जानते और मानते हैं कि राजद्रोहका कार्य नहीं करना चाहिये; परंतु तुमने तो न केवल राजद्रोहका अपितु देवताओंके भी द्रोहका कार्य किया हैं। पार्थ! जो अर्थ और धर्मका अनादर करके पापमें मन लगाता है, उसी अपने पापकर्मोंका फल अवश्य प्राप्त होता है। यदि तुम यही कार्य करना चाहते हो जो मुझे प्रिय लगे, तो आजसे फिर कभी ऐसा काम तुम्हें नहीं करना चाहिये। वैशम्पायनजीकहते हैं-जनमेजय! धर्मात्मा भाई महातेजस्वी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर अर्थतत्वके विभागको ठीक-ठीक जाननेवाले थे। वे धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले अपने भाई भीमसेनसे उपर्युक्त बातें कहकर चुप हो गये और उसी विषयपर बार-बार विचार करने लगे। उधर भीमसेनकी मारसे बचे हुए राक्षस एक साथ हो कुबेरके भवनमें गये। वे महान् वेगशाली तो थें ही, तीव्र गतिसे धनाध्यक्षके महलमें पहुंचकर भयंकर आर्तनाद करने लगे। भीमसेनका भय उस समय भी उन्हें पीड़ा दे रहा था। वे अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़ चुके थे एवं थके हुए थे। उनके कवच खूनसे लथपथ हो गये थे। राजन्! अपने सिरके बाल बिखेरे हुए थे वे राक्षस यक्षराज कुबेरसे इस प्रकार बोले-'देव! आपके भी सभी राक्षस, जो युद्धमें सदा आगे रहते और गदा, परिघ, खंग, तोमर तथा प्राप्त आदिके युद्धमें कुशल थे, मार डाले गये। 'धनेश्वर! एक मनुष्यने बलपूर्वक इस पर्वतको रौंद बाला है और युद्धमें क्रोधवश नामक राक्षसोंगणोंको मार भगाया है। 'नरेश्वर ! राक्षसों और यक्षोंमे जो प्रमुख वीर थे, वे आज उत्साहशून्य तथा निष्प्राण होकर रणभूमिमें सो रहे हैं। हमलोग उसके कृपा-प्रसादसे छूट गये है।; परंतु आपके सखा राक्षस मणिमान् मार डाले गये हैं। 'यह सब कार्य एक मनुष्यने किया है। इसके बाद जो करना उचित हो, वह कीजिये।' राक्षसोंकी यह बात सुनकर समस्त यक्षगणोंके स्वामी कुबेर कुपित हो उठे क्रोधसे उनकी आंखें लाल हो गयीं। वे सहसा बोल उठे 'यह कैसे सम्पन्न हुआ ?'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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