महाभारत वन पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-18

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:५३, १३ अगस्त २०१५ का अवतरण ('==सप्तत्रिंश (37) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)== <...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्तत्रिंश (37) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन का सब भाई आदि से मिलकर इन्द्रकील पर्वत पर जाना इन्द्र का दर्शन करना

वैशम्पायनजी कहते हैं-नरश्रेष्ठ जनमेजय ! कुछ काल के अनन्तर धर्मराज युधिष्ठिर को व्यासजी के संदेश का स्मरण हो आया। तब उन्होंने परम बुद्धिमान् अर्जुन से एकान्त में वार्तालाप किया। शत्रुओं का दमन करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिर ने दो घड़ी तक वनवास के विषय में चिन्तन करके किंचित् मुसकराते हुए अर्जुन के शरीर को हाथ से स्पर्श किया और एकान्त में उन्हें सान्त्वना देते हुए इस प्रकार बोले। युधिष्ठिर ने कहा- भारत ! आजकल पितामह भीष्म, द्रोणचार्य, कृपाचार्य, कर्ण और अश्वत्थामा-इन सबमें चारों पादों से युक्त सम्पूर्ण धनुर्वेद प्रतिष्ठित है। वे दैव, ब्राह्म और मानुष तीनों पद्धतियों के अनुसार सम्पूर्ण अस्त्रों के प्रयोग की सारी कलाएं जानते हैं। उन अस्त्रों के ग्रहण और धारणरूप प्रयत्न से तो वे परिचित हैं ही, शत्रुओं द्वारा प्रयुक्त हुए अस्त्रों की चिकित्सा (निवारण के उपाय) को भी जानते हैं। उन सबको धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने बडे़ आश्वासन के साथ रखा है और उपभोग की सामग्री देकर संतुष्ट किया है। इतना ही नहीं, वह उनके प्रति गुरूनोचित बर्ताव करता है। अन्य सम्पूर्ण योद्धाओं पर भी दुर्योधन सदा ही बहुत प्रेम रखता है। इसके द्वारा सम्मानित और संतुष्ट किये हुए आचार्यगण उनके लिये सदा शांति का प्रयत्न करते हैं। जो लोग उनके द्वारा समस्त समय पर समाहत हुए हैं, वे कभी उसकी शक्ति क्षीण नहीं होने देंगे । पार्थ ! आज यह सारी पृथ्वी ग्राम, नगर, समुद्र, वन तथा खानों सहित दुर्योधन के वश में है। तुम्हीं हम सब लोगों के अत्यन्त प्रिय हो। हमारे उद्धार का सारा भार तुम पर है। शत्रुदमन ! अब इस समय के योग्य जो कर्तव्य मुझे उचित दिखायी देता है, उसे सुनो ! तात ! मैंने श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासजी से एक रहस्यमयी विद्या प्राप्त की है। उसका विधिवत् प्रयोग करने पर समस्त जगत् अच्छी प्रकार से ज्यों-का-त्यों स्पष्ट दिखने लगता है। तात ! उस मन्त्र विद्या से युक्त एवं एकाग्रचित होकर तुम यथा समय देवताओं की प्रसन्नता प्राप्त करो। भरतश्रेष्ठ ! अपने-आपको उग्र तपस्या में लगाओ। धनुष, कवच, खग धारण किये साधु-व्रत के पालन में स्थित हो मौनालम्बनपूर्वक किसी को आक्रमण मार्ग न देते हुए उत्तर दिशा की ओर जाओ। धंनजय ! इन्द्र को समस्त दिव्यास्त्रों का ज्ञान है। वृत्रासुर से डरे हुए सम्पूर्ण देवताओं ने उस समय अपनी सारी शक्ति इन्द्र को ही समर्पित कर दी थी। वे सब दिव्यास्त्र एक ही स्थान में हैं, तुम उन्हें वहीं से प्राप्त कर लोगे; अतः तुम इन्द्र की ही शरण लो। वही तुम्हें सब अस्त्र प्रदान करेंगे। आज ही दीक्षा ग्रहण करके तुम देवराज इन्द्र के दर्शन की इच्छा से यात्रा करो। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! ऐसा कहकर शक्तिशाली धर्मराज युधिष्ठिर मन, वाणी और शरीरों को संयम में रखकर दीक्षा ग्रहण करनेवाले अर्जुन को विधिपूर्वक पुर्वोक्त प्रतिस्मृति-विद्या का उपदेश दिया। तदनन्तर बडे़ भाई युधिष्ठिर ने अपने वीर भाई अर्जुन को वहां से प्रस्थान करने की आज्ञा दी। धर्मराज की आज्ञा से देवराज इन्द्र का दर्शन करने की इच्छा मन में रखकर महाबाहु धनंजय ने अग्नि में आहुति दी और स्वर्ण मुद्राओं की दक्षिणा लेकर ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराया तथा गाण्डीव धनुष और दो महान् अक्षय तूणीर साथ ले कवच, तलत्राण (जूते) तथा अगुलियों की रक्षा के लिये गोह के चमड़े का बना हुआ अगुलित्र धारण किया।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।