महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 177 श्लोक 1-15

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सप्‍तसप्‍तत्‍यधिकशततम (177) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

मङिक्‍गीता- धन की तृष्‍णा से दुख और उसकी माकना के त्‍याग से परम सुख की प्राप्ति

युधिष्ठिर ने पूछा- दादाजी! यदि कोई मनुष्‍य धन की तृष्‍णा से ग्रस्‍त होकर तरह–तरह के उघों करने पर भी धन न पा सके तो वह क्‍या करे, जिससे उसे सुख की प्राप्ति हो सके? भीष्‍म जी ने कहा- भारत! सबमें समता का भाव, व्‍यर्थ परिश्रम का अभाव, सत्‍यभाषण, संसार से वैराग्‍य और कर्मासक्ति का अभाव- ये पांचों जिसे मनुष्‍य में होते है, वह सुखी होता है। ज्ञानवृद्ध पुरूष इन्‍हीं पांच वस्‍तुओं को शांति का कारण बताते हैं। यहीं स्‍वर्ग है, यही धर्म है और यही परम उत्‍तम सुख माना गया है। युधिष्ठिर, इस विषय में जानकार पुरूष एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते है। मङिक्‍ नामक मुनि ने भोगों से विरक्‍त होकर जो उद्गार प्रकट किया था, वही इस इतिहास में वर्णित है। उसे बताता हूं, सुनो। मङिक्‍ धन के लिये अनेक प्रकार की चेष्‍टाएं करते थे, परंतु हर बार उनका प्रयत्‍न व्‍यर्थ हो जाता था। अंत में जब बहुत थोड़ा धन शेष रह गया तो उसे देकर उन्‍होंने दो नये बछड़े खरीदे। एक दिन उन दोनों बछड़ों को परस्‍पर जोड़कर वे हल चलाने की शिक्षा देने के लिये ले जा रहे थे। जब वे दोनों बछड़े गांव से बाहर निकले तो बैठे हुए एक ऊंट को बीच में करके सहसा दौड़ पड़े। जब वे उसकी गर्दन के पास पहुंचे तो ऊंट के लिये यह असहृय हो उठा। वह रोष में भरकर खड़ा हो गया और उन दोनों बछड़ों को ऊपर लटकाये बड़े जोर से भागने लगा। बलपूर्वक अपहरण करने वाले उस ऊंट के द्वारा उन दोनों बछड़ों को अपहर्त होते और मरते देख मंकिक्‍ने इस प्रकार कहा- ‘मनुष्‍य कैसा ही चतुर क्‍यों न हो, जो उसके भाग्‍य नहीं है, उस धन को वह श्रद्धापूर्वक भलीभांति प्रयत्‍न करके भी नहीं पा सकता। ‘पहले मैंने जो प्रयत्‍न किया था उसमें अनेक प्रकार के अनर्थ खड़े हो गये थे। उन अनर्थों से युक्‍त होने पर भी मैं धनोपार्जन की ही चेष्‍टा में लगा रहा, परंतु देखों, आज इन बछड़ों की संगति से मुझ पर कैसा दैवी उपद्रव आ गया? ‘यह ऊंट मेरे बछड़ों को उछाल–उछालकर विषम मार्ग से ही जा रहा है। काकतालीयन्‍याय से (अर्थात देवसंयोग से) इन्‍हें गर्दन पर उठाकर बुरे मार्ग से ही दौड़ रहा है। इन ऊंट के में मेरे दोनों प्‍यारे बछड़े दो मणियों के समान लटक रहे हैं। यह केवल दैव की ही लीला है। हठपूर्वक किये हुए पुरूषार्थ से क्‍या होता है? ‘यदि कभी कोई पुरूषार्थ सफल होता दिखायी देता है तो वहां भी खोज करने पर दैव का ही सहयोग सिद्ध होता है। ‘अत: सुख की इच्‍छा रखने वाले पुरूष को धन आदि की ओर से वैराग्‍य का ही आश्रय लेना चाहिये। धनोपार्जन की चेष्‍टा से निराश होकर जो विरक्‍त हो जाता है, वह सुख की नींद सोता है। ‘अहा! शुकदेवा मुनि ने जनक के राजमहल से विशाल वन की ओर जाते समय सब ओर से बंधनमुक्‍त हो क्‍या ही अच्‍छा कहा था ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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