महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 194 श्लोक 32-45

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चतुर्नवत्‍यधिकशततम (194) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्नवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद

जब अपने मन में दु:ख से युक्‍त अप्रसन्नता का भाव जाग्रत् हो, तब यह समझना चाहिये कि रजोगुण की प्रवृत्ति हुई है। अत: उस दु:ख को पाकर मन में चिन्ता न करे (क्योंकि चिन्ता से दु:ख और बढ़ता है)। जब मन में कोई मोहयुक्‍त भाव पैदा हो और किसी भी इन्द्रिय का विषय स्पष्‍ट जान न पडे़, उसके विषय में कोई तर्क भी काम न करे ओर वह किसी तरह समझ में न आवे, तब यही निश्‍चय करना चाहिये कि तमोगुण की वृद्धि हुई है। जब मन में किसी प्रकार भी अत्यन्त हर्ष, प्रेम, आनन्द, सुख और शान्ति का अनुभव हो रहा हो, तब इन गुणों को सात्तिवक समझना चाहिये। जिस समय किसी कारण से या बिना कारण ही अंसतोष, शोक, संताप, लोभ ओर असहनशीलता के भाव दिखायी दें तो उन्हें रजोगुण का चिन्ह जानना चाहिये । इसी प्रकार जब अपमान, मोह, प्रमाद, स्वप्न, निद्रा और आलस्य आदि दोष किसी तरह भी घेरते हों तो उन्हें तमोगुण के ही विविध रूप समझे। जिसका दूर तक दौड़ लगाने वाला और अनेक विषयों की ओर जाने वाला कामनायुक्त संशयात्मक मन अच्छी तरह वश में हो जाता है, वह मनुष्‍य इहलोक में तथा मरने के बाद परलोक में भी सुखी होता है। बुद्धि ओर आत्मा–ये दोनों ही सूक्ष्‍म तत्‍त्‍व हैं तथापि इनमें बड़ा भारी अन्तर है। तुम इस अन्तर पर दृष्टिपात करो। इनमें बुद्धि तो गुणों की सृष्टि करती है और आत्मा गुणों की सृष्टि से अलग रहता है। जैसे गूलर का फल और उसके भीतर रहने वाले कीड़े एक साथ रहते हुए भी एक–दुसरे से अलग हैं, उसी प्रकार बुद्धि और आत्‍मा दोनों का एक साथ रहना और भिन्‍न–भिन्‍न होना समझना चाहिये। ये दोनों स्‍वभाव से ही अलग–अलग हैं तो भी सदा एक–दूसरे से मिले रहते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे मछली और जल एक–दूसरे से पृथक् होकर भी परस्‍पर संयुक्‍त रहते है। यही स्थिति बुद्धि और आत्‍मा की भी है। सत्‍त्‍व आदि गुण जड होने के कारण आत्‍मा को नहीं जानते; किंतु आत्‍मा चेतन है, इसलिये वह गुणों को सब प्रकार से जानता है। यद्यपि आत्‍मा गुणों का साक्षीहै, अत: उनसे सर्वथा भिन्‍न है तो भी वह अपने को उन गुणों से संयुक्‍त मानता है। जैसे घडे़ में रखा हुआ दीपक घडे़ के छेदों से अपना प्रकाश फैलाकर वस्‍तुओं का ज्ञान कराता है, उसी प्रकार परमात्‍मा शरीर के भीतर स्थित होकर चेष्‍टा और ज्ञान से शून्‍य इन्द्रियों तथा मन–बुद्धि इन सातों के द्वारा सम्‍पूर्ण पदार्थों का अनुभव कराता है। बुद्धि गुणों की सृष्टि करती है और आत्‍मा साक्षी बनकर देखता रहता है । उन बुद्धि और आत्‍मा का यह संयोग अनादि है। बुद्धिका परमात्‍मा के सिवा दूसरा कोई आश्रय नहीं है और क्षेत्रज्ञका भी कोई दूसरा आश्रय नहीं है। बुद्धि मन से ही घनिष्‍ठ संबंध रखती है । गुणों के साथ उसका साक्षात् सम्‍पर्क कदापि नहीं होता। जब जीव बुद्धिरूपी सारथि और मनरूपी बागडोर–द्वारा इन्द्रियरूपी अश्‍वों की लगाम अच्‍छी तरह काबू में रखता है तब घडे़ में रखे हुए प्रज्‍वलित दीपक के समान अपने भीतर ही उसका आत्‍मा प्रकाशित होने लगता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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