"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 58 श्लोक 1-18" के अवतरणों में अंतर

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==अट्टावनवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)==
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==अष्टपञ्चाशत्तम (58) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)==
 
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्तिपर्व : अट्टावनवाँ अध्याय: श्लोक 1-30 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
 
 
  
 
भीष्म द्वारा राज्य रक्षा के साधनों का वर्णन तथा संध्या के समय युधिष्ठिर आदि का विदा होना और रास्ते में स्नान-संध्यादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर हस्तिनापुर में प्रवेश
 
भीष्म द्वारा राज्य रक्षा के साधनों का वर्णन तथा संध्या के समय युधिष्ठिर आदि का विदा होना और रास्ते में स्नान-संध्यादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर हस्तिनापुर में प्रवेश
  
भीष्म जी कहते है- युधिष्ठिर! यह मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, राजधर्मरूपी दुध का माखन है। भगवान बृहस्पति इस न्यायानुकूल धर्म की ही प्रशंसा करते है। इनके सिवा भगवान विशालाक्ष, महातपस्वी शुक्राचार्य, सहस्त्र नेत्रोंवाले इन्द्र, प्राचेतस मनु, भगवान भरद्वाज और मुनिवर गौरशिरा- ये सभी ब्राह्मण भक्त और ब्रह्मवादी लोग राजशास्त्र के प्रणेता है, ये सब राजा के लिये प्रजापालनरूप् धर्म की ही प्रशंसा करते है। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ कमलनयन युधिष्ठिर! इस रक्षात्मक धर्म के साधनों का वर्णन करता हूँ, सुनो। युधिष्ठिर! गुप्तचर ( जासूस ) रखना, दूसरे राष्ट्रों में अपना प्रतिनिधि ( राजदूत ) नियुक्त करना, सेवकों को उनके प्रति ईष्र्या न रखते हुए समय पर वेतन और भत्ता देना, युक्ति से कर लेना, अन्याय से प्रजा के धन को न हड़पना, सत्पुरूषों का संग्रह करना, शूरता, कार्यदक्षता, सत्यभाषण, प्रजा का हित-चिन्तन, सरल या कुटिल उपायों से भी शत्रुपक्ष में फूट डालना, पुराने घरों की मरम्मत एवं मन्दिरों का जीर्णोद्वार कराना, दीन-दुखियों की देखभाल करना, समयानुसार शारीरिक और आर्थिक दोनों प्रकार के दण्ड का प्रयोग करना, साधु पुरूषों का त्याग न करना, कुलीन मनुष्यों को अपने पास रखना, संग्रह योग्य वस्तुओं का संग्रह करना, बुद्धिमान पुरूषों का सेवन करना, पुरस्कार आदि के द्वारा सेना का हर्ष और उत्साह बढाना, नित्य-निरन्तर प्रजा की देखभाल करना, कार्य करने में कष्ट का अनुभव न करना, कोष को बढाना, नगर की रक्षा का पूरा प्रबन्ध करना, इस विषय में दूसरों के विश्वास पर न रहना, पुरवासियों ने अपने विरूद्ध कोई गुटबंदी की हो तो उसमें फूट डलवा देना, शत्रु, मित्र और मध्यस्थों पर यथोचित दृष्टि रखना, दूसरों के द्वारा अपने सेवकों में भी गुटबंदी न होने देना, स्वयं ही अपने नगर का निरीक्षण करना, स्वयं किसी पर भी पूरा विश्वास न करना, दूसरों को आश्वासन देना, नीतिधर्म का अनुसरण करना, सदा ही उद्योगशील बने रहना, शत्रुओं की ओर से सावधान रहना और नीच कर्मों तथा दुष्ट पुरूषों को सदा के लिये त्याग देना- ये सभी राज्य की रक्षा के साधन है। बृहस्पति ने राजाओं के लिये उद्योग के महत्व का प्रतिपादन किया है। उद्योग ही राजधर्म का मूल है। इस विषय में जो श्लोक हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो। देवराज इन्द्र ने उद्योग से ही अमृत प्राप्त किया, उद्योग से ही असुरों का संहार किया तथा उद्योग से ही देवलोक और इहलोक में श्रेष्ठता प्राप्त की। जो उद्योग में वीर है, वह पुरूष केवल वाग्वीर पुरूषों पर अपना आधिपत्य जमा लेता है। वाग्वीर विद्वान उद्योगवीर पुरूषों का मनोरंजन करते हुए उनकी उपासना करते है।जो राजा उद्योगहीन होता हैं, वह बुद्विमान होने पर भी विषहीन सर्प के समान सदैव शत्रुओं के द्वारा परास्त होता रहता है। बलवान पुरूष कभी दुर्बल शत्रु की अवहेलना न करे अर्थात उसे छोटा समझकर उसकी ओर से लापरवाही न दिखावे; क्योंकि आग थोडी सी हो तो भी जला डालती है और विष कम मात्रा में हो तो भी मार डालता है। चतुरागिणी सेना के एक अंग से भी सम्पन्न हुआ शत्रु दुर्ग का आश्रय लेकर समृद्धिशाली राजा के समूचे देश को भी संतप्त कर डालता है।।18।।राजा के लिये जो गोपनीय रहस्य की बात हो, शत्रुओं पर विजय पाने के लिये वह जो लोगों का संग्रह करता हो, विजय के ही उद्देश्य से उसके हद्य में जो कार्य छिपा हो अथवा उसे जो न करने योग्य असत कार्य करना हो, वह सब कुछ उसे सरलभाव से ही छिपाये रखना चाहिये। वह लोगों में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये सदा धार्मिक कर्मों का अनुष्ठान करे। राज्य एक बहुत बडा तन्त्र है। जिन्होंने अपने मन को वश में नहीं किया है, ऐसे क्रूर स्वभाव वाले राजा उस विशाल तन्त्र को सँभाल नहीं सकते। इसी प्रकार जो बहुत कोमल प्रकृति के होते है, वे भी इसका भार वहन नहीं कर सकते। उनके लिये राज्य बडा भारी जंजाल हो जाता है। युधिष्ठिर! राज्य सब के उपभोग की वस्तु है; अतः सदा सरल भाव से ही उसकी सँभाल की जा सकती है। इसलिये राजा में क्रूरता और कोमलता दोनों भावों का सम्मिश्रण होना चाहिये। प्रजा की रक्षा करते हुए राजा के प्राण चले जाये तो भी वह उसके लिये महान धर्म है। राजाओं के व्यवहार और बर्ताव ऐसे ही होने चाहिए। कुरूश्रेष्ठ! यह मैंने तुम्हारे सामने राजधर्मों का लेशमात्र वर्णन किया है। अब तुम्हें जिस बात में संदेह हो, वह पूछो।
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भीष्म जी कहते है- युधिष्ठिर! यह मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, राजधर्मरूपी दुध का माखन है। भगवान बृहस्पति इस न्यायानुकूल धर्म की ही प्रशंसा करते है। इनके सिवा भगवान विशालाक्ष, महातपस्वी शुक्राचार्य, सहस्त्र नेत्रोंवाले इन्द्र, प्राचेतस मनु, भगवान भरद्वाज और मुनिवर गौरशिरा- ये सभी ब्राह्मण भक्त और ब्रह्मवादी लोग राजशास्त्र के प्रणेता है, ये सब राजा के लिये प्रजापालनरूप् धर्म की ही प्रशंसा करते है। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ कमलनयन युधिष्ठिर! इस रक्षात्मक धर्म के साधनों का वर्णन करता हूँ, सुनो। युधिष्ठिर! गुप्तचर ( जासूस ) रखना, दूसरे राष्ट्रों में अपना प्रतिनिधि ( राजदूत ) नियुक्त करना, सेवकों को उनके प्रति ईष्र्या न रखते हुए समय पर वेतन और भत्ता देना, युक्ति से कर लेना, अन्याय से प्रजा के धन को न हड़पना, सत्पुरूषों का संग्रह करना, शूरता, कार्यदक्षता, सत्यभाषण, प्रजा का हित-चिन्तन, सरल या कुटिल उपायों से भी शत्रुपक्ष में फूट डालना, पुराने घरों की मरम्मत एवं मन्दिरों का जीर्णोद्वार कराना, दीन-दुखियों की देखभाल करना, समयानुसार शारीरिक और आर्थिक दोनों प्रकार के दण्ड का प्रयोग करना, साधु पुरूषों का त्याग न करना, कुलीन मनुष्यों को अपने पास रखना, संग्रह योग्य वस्तुओं का संग्रह करना, बुद्धिमान पुरूषों का सेवन करना, पुरस्कार आदि के द्वारा सेना का हर्ष और उत्साह बढाना, नित्य-निरन्तर प्रजा की देखभाल करना, कार्य करने में कष्ट का अनुभव न करना, कोष को बढाना, नगर की रक्षा का पूरा प्रबन्ध करना, इस विषय में दूसरों के विश्वास पर न रहना, पुरवासियों ने अपने विरूद्ध कोई गुटबंदी की हो तो उसमें फूट डलवा देना, शत्रु, मित्र और मध्यस्थों पर यथोचित दृष्टि रखना, दूसरों के द्वारा अपने सेवकों में भी गुटबंदी न होने देना, स्वयं ही अपने नगर का निरीक्षण करना, स्वयं किसी पर भी पूरा विश्वास न करना, दूसरों को आश्वासन देना, नीतिधर्म का अनुसरण करना, सदा ही उद्योगशील बने रहना, शत्रुओं की ओर से सावधान रहना और नीच कर्मों तथा दुष्ट पुरूषों को सदा के लिये त्याग देना- ये सभी राज्य की रक्षा के साधन है। बृहस्पति ने राजाओं के लिये उद्योग के महत्व का प्रतिपादन किया है। उद्योग ही राजधर्म का मूल है। इस विषय में जो श्लोक हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो। देवराज इन्द्र ने उद्योग से ही अमृत प्राप्त किया, उद्योग से ही असुरों का संहार किया तथा उद्योग से ही देवलोक और इहलोक में श्रेष्ठता प्राप्त की। जो उद्योग में वीर है, वह पुरूष केवल वाग्वीर पुरूषों पर अपना आधिपत्य जमा लेता है। वाग्वीर विद्वान उद्योगवीर पुरूषों का मनोरंजन करते हुए उनकी उपासना करते है।जो राजा उद्योगहीन होता हैं, वह बुद्विमान होने पर भी विषहीन सर्प के समान सदैव शत्रुओं के द्वारा परास्त होता रहता है। बलवान पुरूष कभी दुर्बल शत्रु की अवहेलना न करे अर्थात उसे छोटा समझकर उसकी ओर से लापरवाही न दिखावे; क्योंकि आग थोडी सी हो तो भी जला डालती है और विष कम मात्रा में हो तो भी मार डालता है। चतुरागिणी सेना के एक अंग से भी सम्पन्न हुआ शत्रु दुर्ग का आश्रय लेकर समृद्धिशाली राजा के समूचे देश को भी संतप्त कर डालता है।  
 
 
वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! भीष्मजी का यह वक्तव्य सुनकर भगवान व्यास, देवस्थान, अश्म, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण, कृपाचार्य, सात्यकि और संजय बडे प्रसन्न हुए और हर्ष से खिले हुए मुखोंद्वारा साधुवाद देते हुए धर्मात्माओं में श्रेष्ठ पुरूषसिंह भीष्मजी की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। तत्पश्चात कुरूश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने मन ही मन दुखी हो दोनों नेत्रों में आँसू भरकर धीरे से भीष्मजी के चरण छूए और कहा- पितामह! इस समय भगवान सूर्य अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी के रस का शोषण करके अस्ताचलको जा रहे है; इसलिये अब मैं कल आपसे अपना संदेह पूछूँगा। तदनन्तर ब्रह्मणों को प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण, कृपाचार्य तथा युधिष्ठिर आदि ने महानदी गंगा के पुत्र भीष्मजी की परिक्रमा की। फिर वे प्रसन्नतापूर्वक अपने रथों पर आरूढ हो गये। फिर दृषद्वती नदी में स्नान करके उत्तम व्रत का पालन करने वाले वे शत्रुसंतापी वीर विधिपूर्वक संध्या, तर्पण और जप आदि मंगलकारी कर्मों का अनुष्ठान करके वहाँ से हस्तिनापुर में चले आये।
 
 
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में युधिष्ठिर आदि का अपने निवास स्थान को प्रस्थान विषयक अट्टावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 57 श्लोक 21-45|अगला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 59 श्लोक 00}}  
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 57 श्लोक 33-45|अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 58 श्लोक 19-30}}  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत शान्तिपर्व]]
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[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत शान्ति पर्व]]
 
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०५:५८, ४ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

अष्टपञ्चाशत्तम (58) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

भीष्म द्वारा राज्य रक्षा के साधनों का वर्णन तथा संध्या के समय युधिष्ठिर आदि का विदा होना और रास्ते में स्नान-संध्यादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर हस्तिनापुर में प्रवेश

भीष्म जी कहते है- युधिष्ठिर! यह मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, राजधर्मरूपी दुध का माखन है। भगवान बृहस्पति इस न्यायानुकूल धर्म की ही प्रशंसा करते है। इनके सिवा भगवान विशालाक्ष, महातपस्वी शुक्राचार्य, सहस्त्र नेत्रोंवाले इन्द्र, प्राचेतस मनु, भगवान भरद्वाज और मुनिवर गौरशिरा- ये सभी ब्राह्मण भक्त और ब्रह्मवादी लोग राजशास्त्र के प्रणेता है, ये सब राजा के लिये प्रजापालनरूप् धर्म की ही प्रशंसा करते है। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ कमलनयन युधिष्ठिर! इस रक्षात्मक धर्म के साधनों का वर्णन करता हूँ, सुनो। युधिष्ठिर! गुप्तचर ( जासूस ) रखना, दूसरे राष्ट्रों में अपना प्रतिनिधि ( राजदूत ) नियुक्त करना, सेवकों को उनके प्रति ईष्र्या न रखते हुए समय पर वेतन और भत्ता देना, युक्ति से कर लेना, अन्याय से प्रजा के धन को न हड़पना, सत्पुरूषों का संग्रह करना, शूरता, कार्यदक्षता, सत्यभाषण, प्रजा का हित-चिन्तन, सरल या कुटिल उपायों से भी शत्रुपक्ष में फूट डालना, पुराने घरों की मरम्मत एवं मन्दिरों का जीर्णोद्वार कराना, दीन-दुखियों की देखभाल करना, समयानुसार शारीरिक और आर्थिक दोनों प्रकार के दण्ड का प्रयोग करना, साधु पुरूषों का त्याग न करना, कुलीन मनुष्यों को अपने पास रखना, संग्रह योग्य वस्तुओं का संग्रह करना, बुद्धिमान पुरूषों का सेवन करना, पुरस्कार आदि के द्वारा सेना का हर्ष और उत्साह बढाना, नित्य-निरन्तर प्रजा की देखभाल करना, कार्य करने में कष्ट का अनुभव न करना, कोष को बढाना, नगर की रक्षा का पूरा प्रबन्ध करना, इस विषय में दूसरों के विश्वास पर न रहना, पुरवासियों ने अपने विरूद्ध कोई गुटबंदी की हो तो उसमें फूट डलवा देना, शत्रु, मित्र और मध्यस्थों पर यथोचित दृष्टि रखना, दूसरों के द्वारा अपने सेवकों में भी गुटबंदी न होने देना, स्वयं ही अपने नगर का निरीक्षण करना, स्वयं किसी पर भी पूरा विश्वास न करना, दूसरों को आश्वासन देना, नीतिधर्म का अनुसरण करना, सदा ही उद्योगशील बने रहना, शत्रुओं की ओर से सावधान रहना और नीच कर्मों तथा दुष्ट पुरूषों को सदा के लिये त्याग देना- ये सभी राज्य की रक्षा के साधन है। बृहस्पति ने राजाओं के लिये उद्योग के महत्व का प्रतिपादन किया है। उद्योग ही राजधर्म का मूल है। इस विषय में जो श्लोक हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो। देवराज इन्द्र ने उद्योग से ही अमृत प्राप्त किया, उद्योग से ही असुरों का संहार किया तथा उद्योग से ही देवलोक और इहलोक में श्रेष्ठता प्राप्त की। जो उद्योग में वीर है, वह पुरूष केवल वाग्वीर पुरूषों पर अपना आधिपत्य जमा लेता है। वाग्वीर विद्वान उद्योगवीर पुरूषों का मनोरंजन करते हुए उनकी उपासना करते है।जो राजा उद्योगहीन होता हैं, वह बुद्विमान होने पर भी विषहीन सर्प के समान सदैव शत्रुओं के द्वारा परास्त होता रहता है। बलवान पुरूष कभी दुर्बल शत्रु की अवहेलना न करे अर्थात उसे छोटा समझकर उसकी ओर से लापरवाही न दिखावे; क्योंकि आग थोडी सी हो तो भी जला डालती है और विष कम मात्रा में हो तो भी मार डालता है। चतुरागिणी सेना के एक अंग से भी सम्पन्न हुआ शत्रु दुर्ग का आश्रय लेकर समृद्धिशाली राजा के समूचे देश को भी संतप्त कर डालता है।


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