महाभारत सभा पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-20

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षट्चत्वारिंश (46) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

व्यासजी की भविष्यवाणी से युधिष्ठिर की चिन्ता और समत्पूर्ण बर्ताव करने की प्रतिज्ञा

वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! यज्ञों में श्रेष्ठ परम दुर्लभ राजसूय यज्ञ में समाप्त हो जाने पर शिष्यों से घिरे हुए भगवान व्यास राजा युधिष्ठिर के पास आये। उन्हें देखकर भाइयों से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर तुरंत आसन से उठकर खड़े हो गये और आसन एवं पाद्य आदि समर्पण करके उन्होंने पितामह व्याजी का यथावत् पूजन किया। तत्पश्चात सुवर्णमय उत्तम आसन पर बैठकर भगवान व्यास ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘बैठ जाओ’। भाइयों से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर के बैठ जाने पर बातचीत में कुशल भगवान व्यास ने उनसे कहा- ‘कुन्तीनन्दन! बड़े आनन्द की बात है कि तुम परम दुर्लभ सम्राट का पद पाकर सदा उन्नतिशील हो रहे हो। कुरुकुल का भार वहन करने वाले नरेश! तुमने समस्त कुरुवंशियों को समृद्धिशाली बना दिया। ‘राजन्! अब मैं जाऊँगा। इसके लिये तुम्हारी अनुमति चाहता हूँ। तुमने मेरा अच्छी तरह सम्मान किया है।’ महात्मा कृष्णद्वैपायन व्यास के ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने उस पितामह के दोनों चरणों को पकड़ कर प्रणाम किया और कहा। युधिष्ठिर बोले- नरश्रेष्ठ! मेरे मन में एक भारी संशय उत्पन्न हो गया है। विप्रवर! आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो उसका समाधान कर सके। पितामह! देवर्षि भगवान नारद ने स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वी विषयक तीन प्रकार के उत्पात बताये हैं। क्या शिशुपाल के मारे जाने से वे महान उत्पात शान्त हो गये? वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर का यह प्रश्न सुनकर पराशरनन्दन कृष्ण द्वैपायन भगवान व्यास ने इस प्रकार कहा-‘राजन्! उत्पादों का महान फल तेरह वर्षों तक हुआ करता है। इस समय जो उत्पात प्रकट हुआ था, वह समस्त क्षत्रियों का विनाश करने वाला होगा। ‘भरत कुलतिलक! एकमात्र तुम्ही को निमित्त बनाकर यथा समय समस्त भूमिपालों का समुदाय आपस में लड़कर अपराध से लड़कर नष्ट हो जाएगा। भारत! क्षत्रियों का यह विनाश दुर्योधन के अपराध से तथा भीमसेन और अर्जुन के पराक्रम द्वारा सम्पन्न होगा। ‘राजेन्द्र! तुम रात के अन्त में स्वप्न में उन वृषभध्वज भगवान शंकर का दर्शन करोगे, जो नीलकण्ठ, भव, स्थाणु, कपाली, त्रिपुरान्तक, उग्र, रुद्र, पशुपति, महादेव, उमापति, हर, शर्व, वूष, शूली, पिना की तथा कृत्तिवासा कहलाते हैं। ‘उन भगवान शिव की कान्ति कैलाश शिखर के समान उज्जवल होगी। वे वृषभ पर आरूढ़ हुए सदा दक्षिण दिशा की ओर देख रहे होंगे। ‘राजन्! तुम्हें इस प्रकार ऐसा स्वप्न दिखायी देगा, किंतु उसके लिये तुम्हेंं चिन्ता नहीं करनी चाहिये, क्योंकि काल सब के लिये दुर्लंघय है। ‘ तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं कैलास पर्वत पर जाऊँगा। तुम सावधान एवं जितेन्द्रिय होकर पृथ्वी का पालन करो’। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर भगवान कृष्ण द्वैपायन व्यास वेद मार्ग का अनुसरण करने वाले अपने शिष्यों के साथ कैलाश पर्वत पर चले गये। अपने पितामह व्यासजी के चले जाने पर चिन्ता और शोक से युक्त राजा युधिष्ठिर बारंबार गरम साँसें लेते हुए उसी बात का चिन्तन करते रहे। अहो! देव का विधान पुरुषार्था से कि स प्रकार टाला जा सकता है? महर्षि ने जो कुछ कहा है, वह निश्चय ही होगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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