"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 1-13" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  अष्टम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद </div>

१४:२०, २३ जुलाई २०१५ का अवतरण

दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

नामकरण-संस्कार और बाललीला

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! यदुवंशियों के कुलपुरोहित थे श्रीगर्गाचार्यजी। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेवजी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल में आये । उन्हें देखकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे हठ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनके चरणों में प्रणाम किया। इसके बाद ‘ये स्वयं भगवान् ही हैं’—इस भाव से उनकी पूजा की । जब गर्गाचार्यजी आराम से बैठ गये और विधिपूर्वक उनका आतिथ्य-सत्कार हो गया, तब नन्दबाबा ने बड़ी ही मधुर वाणी से उनका अभिनन्दन किया और कहा—‘भगवन्! आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? आप-जैसे महात्माओं का हमारे-जैसे गृहस्थों के घर आ जाना ही हमारे परम कल्याण का कारण है। हम तो घरों में इतने उलझ रहे हैं और इन प्रपंचों में हमारा चित्त इतना दीन हो रहा है कि हम आपके आश्रम तक जा भी नहीं सकते। हमारे कल्याण के सिवा आपके आगमन का और कोई हेतु नहीं है । प्रभो! जो बात साधारणतः इन्द्रियों की पहुँच के बाहर है अथवा भूत और भविष्य के गर्भ में निहित हैं, वह भी ज्योतिष-शास्त्र के द्वारा प्रत्यक्ष जान ली जाती है। आपने उसी ज्योतिष-शास्त्र की रचना की है । आप ब्रम्ह्वेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। इसलिए मेरे इन दोनों बालकों का नामकरणादि संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राम्हण जन्म से ही मनुष्यमात्र का गुरु है’।

गर्गाचार्यजी ने कहा—नन्दजी! मैं सब जगह यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्द हूँ। यदि तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकी का पुत्र है । कंस की बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोंचा करती है। वसुदेजी के साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है। जब से देवकी की कन्या से उसने यह बात सुनी है कि उसको मारनेवाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोंचा करता है कि देवकी के आठवें गर्भ से कन्या का जन्म नहीं होना चाहिए। यदि मैंने तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और वह इस बालक को वसुदेवजी का लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अनर्थ हो जयेगा ।

नन्दबाबा ने कहा—आचार्यजी! आप चुपचाप इस एकान्त गौशाला में केवल स्वस्तिवाचन करके इस बालक का द्विजाति समुचित नामकरण-संस्कार मात्र कर दीजिये। औरों की कौन कहे, मेरे सगे-सम्बन्धी भी इस बात को न जानने पावें ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—गर्गाचार्यजी तो संस्कार करना चाहते ही थे। जब नन्दबाबा ने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने एकान्त में छिपकर गुप्तरूप से दोनों बालकों का नामकरण-संस्कार कर दिया ।

गर्गाचार्यजी ने कहा—‘यह रोहिणी का पुत्र है। इसलिये इसका नाम होगा रौहिणेय। यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसलिए इसका दूसरा नाम होगा ‘राम’। इसके बल की कोई सीमा नहीं है, अतः इसका एक नाम ‘बल’ भी है। यह यादवों में और तुम लोगों में कोई भेदभाव नहीं रखेगा और लोगों में फूट पड़ने पर मेल करवायेगा, इसलिए इसका एक नाम ‘संकर्षण’ भी है । और यह जो साँवला-साँवला है, यह प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगों में इसने क्रमशः श्वेत, रक्त और पीत—ये तीन विभिन्न रंग स्वीकार किये थे। अबकी यह कृष्णवर्ण हुआ है। इसलिये इसका नाम ‘कृष्ण’ होगा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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