"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 31-41" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  अष्टम अध्याय: श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  अष्टम अध्याय: श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद </div>
ऐसा करके भी ढ़िठाई की बातें करता है—उलटे हैं ही चोर बनाता और अपने घर का मालिक बन जाता है। इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरों में मूत्र आदि भी कर देता है। तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरी के अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानों पत्थर की मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!’ इस प्रकार गोपियाँ कहतीं जातीं और श्रीकृष्ण के भीत-चकित नेत्रों से मुखमंडल को देखती जातीं। उनकी यह दशा देखकर नन्दरानी यशोदाजी उनके मन का भाव ताड़ लेतीं और उनके ह्रदय में स्नेह और आनन्द की बाढ़ आ जाती। वे इस प्रकार हँसने लगतीं कि अपने लाड़ले कन्हैया को इस बात का उलाहना भी न दे पातीं, डाँटने की बात तक नहीं सोंचती<ref> भगवान् की लीला पर विचार करते समय यह बात स्मरण करनी चाहिये कि भगवान् का लीलाधाम, भगवान् के लीला पात्र, भगवान् का लीला शरीर और उसकी लीला प्राकृत नहीं होती। भगवान् ने देह-देही का भेद नहीं है। महाभारत में आया है—<br />
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ऐसा करके भी ढ़िठाई की बातें करता है—उलटे हैं ही चोर बनाता और अपने घर का मालिक बन जाता है। इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरों में मूत्र आदि भी कर देता है। तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरी के अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानों पत्थर की मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!’ इस प्रकार गोपियाँ कहतीं जातीं और श्रीकृष्ण के भीत-चकित नेत्रों से मुखमंडल को देखती जातीं। उनकी यह दशा देखकर नन्दरानी यशोदाजी उनके मन का भाव ताड़ लेतीं और उनके ह्रदय में स्नेह और आनन्द की बाढ़ आ जाती। वे इस प्रकार हँसने लगतीं कि अपने लाड़ले कन्हैया को इस बात का उलाहना भी न दे पातीं, डाँटने की बात तक नहीं सोंचती<ref> भगवान  की लीला पर विचार करते समय यह बात स्मरण करनी चाहिये कि भगवान  का लीलाधाम, भगवान  के लीला पात्र, भगवान  का लीला शरीर और उसकी लीला प्राकृत नहीं होती। भगवान  ने देह-देही का भेद नहीं है। महाभारत में आया है—<br />
 
‘परमात्मा का शरीर भूत समुदाय से बना हुआ नहीं होता। जो मनुष्य श्रीकृष्ण परमात्मा के शरीर को भौतिक जानता-मानता है, उसका समस्त श्रौत-स्मार्त कर्मों से बहिष्कार कर देना चाहिये अर्थात् उसका किसी भी शास्त्रीय कर्म में अधिकार नहीं है। यहाँ तक कि उसका मुँह देखने पर भी सचैल (वस्त्र सहित) स्नान करना चाहिये।’<br />
 
‘परमात्मा का शरीर भूत समुदाय से बना हुआ नहीं होता। जो मनुष्य श्रीकृष्ण परमात्मा के शरीर को भौतिक जानता-मानता है, उसका समस्त श्रौत-स्मार्त कर्मों से बहिष्कार कर देना चाहिये अर्थात् उसका किसी भी शास्त्रीय कर्म में अधिकार नहीं है। यहाँ तक कि उसका मुँह देखने पर भी सचैल (वस्त्र सहित) स्नान करना चाहिये।’<br />
श्रीमद्भागवत में ही ब्रम्हाजी ने भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा है—
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श्रीमद्भागवत में ही ब्रम्हाजी ने भगवान  श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा है—
 
‘आपने मुझ पर कृपा करने के लिये ही यह स्वेच्छामय सच्चिदानन्दस्वरुप प्रकट किया है, यह पांचभौतिक कदापि नहीं है।’<br />
 
‘आपने मुझ पर कृपा करने के लिये ही यह स्वेच्छामय सच्चिदानन्दस्वरुप प्रकट किया है, यह पांचभौतिक कदापि नहीं है।’<br />
इससे यह स्पष्ट है कि भगवान् का सभी कुछ अप्राकृत होता है। इसी प्रकार यह माखन चोरी की लीला भी अप्राकृत दिव्य ही है।<br />
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इससे यह स्पष्ट है कि भगवान  का सभी कुछ अप्राकृत होता है। इसी प्रकार यह माखन चोरी की लीला भी अप्राकृत दिव्य ही है।<br />
यदि भगवान् के नित्य परम धाम में अभिन्नरूप से नित्य निवास करने वाली नित्यसिद्धा गोपियाँ की दृष्टि न देखकर केवल साधनसिद्ध गोपियों की दृष्टि से देखा जाय तो भी उनकी तपस्या इतनी कठोर थी, उनकी लालसा इतनी अनन्य थी, उनका प्रेम इतना व्यापक था और उनकी लगन इतनी सच्ची थी कि भक्तवांञ्छा कल्पतरु प्रेम रसमय भगवान् उनके इच्छानुसार उन्हें सुख पहुँचाने के लिये माखन चोरी की लीला करके उनकी इच्छित पूजा ग्रहण करें, चीर हरण करके उनका रहा-सहा व्यवधान का परदा उठा दें और रासलीला करके उनको दिव्य सुख पहुँचायें तो कोई बड़ी बात नहीं।<br />
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यदि भगवान  के नित्य परम धाम में अभिन्नरूप से नित्य निवास करने वाली नित्यसिद्धा गोपियाँ की दृष्टि न देखकर केवल साधनसिद्ध गोपियों की दृष्टि से देखा जाय तो भी उनकी तपस्या इतनी कठोर थी, उनकी लालसा इतनी अनन्य थी, उनका प्रेम इतना व्यापक था और उनकी लगन इतनी सच्ची थी कि भक्तवांञ्छा कल्पतरु प्रेम रसमय भगवान  उनके इच्छानुसार उन्हें सुख पहुँचाने के लिये माखन चोरी की लीला करके उनकी इच्छित पूजा ग्रहण करें, चीर हरण करके उनका रहा-सहा व्यवधान का परदा उठा दें और रासलीला करके उनको दिव्य सुख पहुँचायें तो कोई बड़ी बात नहीं।<br />
भगवान् की नित्यसिद्धा चिदानन्दमयी गोपियों के अतिरिक्त बहुत-सी गोपियाँ और थीं, जो अपनी महान् साधना के फलस्वरूप भगवान् की मुक्तजन-वांछित सेवा करने के लिये गोपियों के रूप में अवतीर्ण हुई थीं। उनमें से कुछ पूर्व-जन्म की देवकन्याएँ थीं, कुछ श्रुतियाँ थीं, कुछ तपस्वी ऋषि थे और कुछ अन्य भक्तजन। इनकी कथाएँ विभिन्न पुराणों में मिलती है। श्रुतिरूपा गोपियाँ, जो ‘नेति-नेति’ के द्वारा निरन्तर परमात्मा का वर्णन करते रहने पर भी उन्हें साक्षात्-रूप से प्राप्त नहीं कर सकतीं, गोपियों के साथ भगवान् के दिव्य रसमय विहार की बात जानकर गोपियों की उपासना करती हैं और अन्त में स्वयं गोपीरूप से परिणत होकर भगवान् श्रीकृष्ण को साक्षात् अपने प्रियतम रूप से प्राप्त करती हैं। इनमें मुख्य श्रुतियों के नाम हैं—उद्गीता, सुगीता, कलगीता, कलकण्ठिका और विपंची आदि।<br />
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भगवान  की नित्यसिद्धा चिदानन्दमयी गोपियों के अतिरिक्त बहुत-सी गोपियाँ और थीं, जो अपनी महान् साधना के फलस्वरूप भगवान  की मुक्तजन-वांछित सेवा करने के लिये गोपियों के रूप में अवतीर्ण हुई थीं। उनमें से कुछ पूर्व-जन्म की देवकन्याएँ थीं, कुछ श्रुतियाँ थीं, कुछ तपस्वी ऋषि थे और कुछ अन्य भक्तजन। इनकी कथाएँ विभिन्न पुराणों में मिलती है। श्रुतिरूपा गोपियाँ, जो ‘नेति-नेति’ के द्वारा निरन्तर परमात्मा का वर्णन करते रहने पर भी उन्हें साक्षात्-रूप से प्राप्त नहीं कर सकतीं, गोपियों के साथ भगवान  के दिव्य रसमय विहार की बात जानकर गोपियों की उपासना करती हैं और अन्त में स्वयं गोपीरूप से परिणत होकर भगवान  श्रीकृष्ण को साक्षात् अपने प्रियतम रूप से प्राप्त करती हैं। इनमें मुख्य श्रुतियों के नाम हैं—उद्गीता, सुगीता, कलगीता, कलकण्ठिका और विपंची आदि।<br />
भगवान् के श्रीरामावतार में उन्हें देखकर मुग्ध होने वाले—अपने आपको उनके स्वरुप-सौन्दर्य न्योछावर कर देने वाले सिद्ध ऋषिगण, जिनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें गोपी होकर प्राप्त करने का वर दिया था, व्रज में गोपी रूप से अवतीर्ण हुए थे। इसके अतिरिक्त मिथिला की गोपी, कोसल की गोपी, अयोध्या की गोपी—पुलिन्द गोपी, रमावैकुण्ठ, श्वेतद्वीप आदि की गोपियाँ जालन्धरी गोपी आदि गोपियों के अनेकों यूथ थे, जिनको बड़ी तपस्या करके भगवान् के वरदान पाकर गोपी रूप में अवतीर्ण होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पद्मपुराण के पातालखण्ड में बहुत-से ऐसे ऋषियों का वर्णन है, जिन्होंने बड़ी कठिन तपस्या आदि करके अनेकों कल्पों के बाद गोपी स्वरुप को प्राप्त किया था। उनमें से कुछ के नाम निम्नलिखित हैं—<br />
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भगवान  के श्रीरामावतार में उन्हें देखकर मुग्ध होने वाले—अपने आपको उनके स्वरुप-सौन्दर्य न्योछावर कर देने वाले सिद्ध ऋषिगण, जिनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान  ने उन्हें गोपी होकर प्राप्त करने का वर दिया था, व्रज में गोपी रूप से अवतीर्ण हुए थे। इसके अतिरिक्त मिथिला की गोपी, कोसल की गोपी, अयोध्या की गोपी—पुलिन्द गोपी, रमावैकुण्ठ, श्वेतद्वीप आदि की गोपियाँ जालन्धरी गोपी आदि गोपियों के अनेकों यूथ थे, जिनको बड़ी तपस्या करके भगवान  के वरदान पाकर गोपी रूप में अवतीर्ण होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पद्मपुराण के पातालखण्ड में बहुत-से ऐसे ऋषियों का वर्णन है, जिन्होंने बड़ी कठिन तपस्या आदि करके अनेकों कल्पों के बाद गोपी स्वरुप को प्राप्त किया था। उनमें से कुछ के नाम निम्नलिखित हैं—<br />
 
#एक उग्रतपा नाम के ऋषि थे। वे अग्निहोत्री और बड़े दृशव्रती थे। उनकी तपस्या अद्भुत थी। उन्होंने पंचदशाक्षर-मन्त्र का जाप और रासोन्मत्त नव किशोर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का ध्यान किया था। सौ कल्पों के बाद वे सुनन्द नामक गोप कि कन्या ‘सुनन्दा’ हुए।<br />
 
#एक उग्रतपा नाम के ऋषि थे। वे अग्निहोत्री और बड़े दृशव्रती थे। उनकी तपस्या अद्भुत थी। उन्होंने पंचदशाक्षर-मन्त्र का जाप और रासोन्मत्त नव किशोर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का ध्यान किया था। सौ कल्पों के बाद वे सुनन्द नामक गोप कि कन्या ‘सुनन्दा’ हुए।<br />
 
#एक सत्यतपा नाम के मुनि थे। वे सूखे पत्तों पर रहकर दशाक्षर मन्त्र का जाप और श्रीराधाजी के दोनों हाथ पकड़कर नाचते हुए श्रीकृष्ण का ध्यान करते थे। दस कल्प के बाद वे सुभद्र नामक गोप की कन्या ‘सुभद्रा’ हए।<br />
 
#एक सत्यतपा नाम के मुनि थे। वे सूखे पत्तों पर रहकर दशाक्षर मन्त्र का जाप और श्रीराधाजी के दोनों हाथ पकड़कर नाचते हुए श्रीकृष्ण का ध्यान करते थे। दस कल्प के बाद वे सुभद्र नामक गोप की कन्या ‘सुभद्रा’ हए।<br />
 
#हरिधामा नाम के एक ऋषि थे। वे निराहार रहकर ‘क्लीं’ कामबीज से युक्त विंशाक्षरी मन्त्र का जाप करते थे और माधवी मण्डप में कोमल-कोमल पत्तों की शय्या पर लेटे हुए युगल-सरकार का ध्यान करते थे। तीन कल्प के पश्चात् वे सारंग नामक गोप के घर ‘रंगवेणी’ नाम से अवतीर्ण हुए।<br />
 
#हरिधामा नाम के एक ऋषि थे। वे निराहार रहकर ‘क्लीं’ कामबीज से युक्त विंशाक्षरी मन्त्र का जाप करते थे और माधवी मण्डप में कोमल-कोमल पत्तों की शय्या पर लेटे हुए युगल-सरकार का ध्यान करते थे। तीन कल्प के पश्चात् वे सारंग नामक गोप के घर ‘रंगवेणी’ नाम से अवतीर्ण हुए।<br />
 
#जाबालि नाम के एक ब्रम्हज्ञानी ऋषि थे, उन्होंने एक बार विशाल वन में विचरते-विचरते एक जगह बहुत बड़ी बावली देखी। उस बावली के पश्चिम तट पर बड़के नीचे एक तेजस्विनी युवती स्त्री कठोर तपस्या कर रही थी। वह बड़ी सुन्दर थी। चन्द्रमा की शुभ्र किरणों के समान उसकी चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी। उसका बायाँ हाथ अपनी कमर पर था और दाहिने हाथ से वह ज्ञानमुद्रा धारण किये हुए थी। जाबालि के बड़ी नम्रता के साथ पूछने पर उस तापसी ने बतलाया—<br />
 
#जाबालि नाम के एक ब्रम्हज्ञानी ऋषि थे, उन्होंने एक बार विशाल वन में विचरते-विचरते एक जगह बहुत बड़ी बावली देखी। उस बावली के पश्चिम तट पर बड़के नीचे एक तेजस्विनी युवती स्त्री कठोर तपस्या कर रही थी। वह बड़ी सुन्दर थी। चन्द्रमा की शुभ्र किरणों के समान उसकी चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी। उसका बायाँ हाथ अपनी कमर पर था और दाहिने हाथ से वह ज्ञानमुद्रा धारण किये हुए थी। जाबालि के बड़ी नम्रता के साथ पूछने पर उस तापसी ने बतलाया—<br />
‘मैं वह ब्रम्हविद्या हूँ, जिसे बड़े-बड़े योगी सदा ढूँढा करते हैं। मैं श्रीकृष्ण के चरणकमलों की प्राप्ति के लिये इस घोर वन में उन पुरुषोत्तम का ध्यान करती हुई दीर्घकाल से तपस्या कर रही हूँ। मैं ब्रम्हानन्द से परिपूर्ण हूँ और मेरी बुद्धि भी उसी आनन्द से परितृप्त है। परन्तु श्रीकृष्ण का प्रेम मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ, इसलिये मैं अपने को शून्य देखती हूँ।’ ब्रम्हज्ञानी जाबालि ने उसके चरणों पर गिरकर दीक्षा ली और फिर व्रज वीथियों में विरहने वाले भगवान् का ध्यान करते हुए वे एक पैर से खड़े होकर बड़ी कठोर तपस्या करते रहे। नौ कल्पों के बाद प्रचण्ड नामक गोप के घर वे ‘चित्रगन्धा’ के रूप में प्रकट हुए।<br />
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‘मैं वह ब्रम्हविद्या हूँ, जिसे बड़े-बड़े योगी सदा ढूँढा करते हैं। मैं श्रीकृष्ण के चरणकमलों की प्राप्ति के लिये इस घोर वन में उन पुरुषोत्तम का ध्यान करती हुई दीर्घकाल से तपस्या कर रही हूँ। मैं ब्रम्हानन्द से परिपूर्ण हूँ और मेरी बुद्धि भी उसी आनन्द से परितृप्त है। परन्तु श्रीकृष्ण का प्रेम मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ, इसलिये मैं अपने को शून्य देखती हूँ।’ ब्रम्हज्ञानी जाबालि ने उसके चरणों पर गिरकर दीक्षा ली और फिर व्रज वीथियों में विरहने वाले भगवान  का ध्यान करते हुए वे एक पैर से खड़े होकर बड़ी कठोर तपस्या करते रहे। नौ कल्पों के बाद प्रचण्ड नामक गोप के घर वे ‘चित्रगन्धा’ के रूप में प्रकट हुए।<br />
5.कुशध्वज नामक ब्रम्हर्षि के पुत्र शुचिश्रवा और सुवर्ण देवतत्वज्ञ थे। उन्होंने शीर्षासन करके ‘ह्रीं’ हंस-मन्त्र का जाप करते हुए और सुन्दर कन्दर्प-तुल्य गोकुलवासी दस वर्ष की उम्र के भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए घोर तपस्या की। कल्प के बाद वे व्रज में सुधीर नामक गोप के घर उत्पन्न हुए।<br />
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5.कुशध्वज नामक ब्रम्हर्षि के पुत्र शुचिश्रवा और सुवर्ण देवतत्वज्ञ थे। उन्होंने शीर्षासन करके ‘ह्रीं’ हंस-मन्त्र का जाप करते हुए और सुन्दर कन्दर्प-तुल्य गोकुलवासी दस वर्ष की उम्र के भगवान  श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए घोर तपस्या की। कल्प के बाद वे व्रज में सुधीर नामक गोप के घर उत्पन्न हुए।<br />
इसी प्रकार और भी बहुत-सी गोपियों के पूर्वजन्म की कथाएँ प्राप्त होती हैं, विस्तारभय से उन सबका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया। भगवान् के लिये इतनी तपस्या करके इतनी लगन के साथ कल्पों तक साधना करके जिन त्यागी भाग्वात्प्रेमियों ने गोपियों का तन-मन प्राप्त किया था, उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये, उन्हें आनन्द-दान देने के लिये यदि भगवान् उनकी मनचाही लीला करते हैं तो इसमें आश्चर्य और अनाचार की कौन-सी बात है ? रासलीला के प्रसंग में स्वयं भगवान् ने श्रीगोपियों से कहा है—<br />
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इसी प्रकार और भी बहुत-सी गोपियों के पूर्वजन्म की कथाएँ प्राप्त होती हैं, विस्तारभय से उन सबका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया। भगवान  के लिये इतनी तपस्या करके इतनी लगन के साथ कल्पों तक साधना करके जिन त्यागी भाग्वात्प्रेमियों ने गोपियों का तन-मन प्राप्त किया था, उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये, उन्हें आनन्द-दान देने के लिये यदि भगवान  उनकी मनचाही लीला करते हैं तो इसमें आश्चर्य और अनाचार की कौन-सी बात है ? रासलीला के प्रसंग में स्वयं भगवान  ने श्रीगोपियों से कहा है—<br />
‘गोपियों! तुमने लोक और परलोक के सारे बन्धनों को काटकर मुझसे निष्कपट प्रेम किया है; यदि मैं तुममें से प्रत्येक के लिये अलग-अलग अनन्त काल तक जीवन धारण करके तुम्हारे प्रेम का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ और ऋणी ही रहूँगा। तुम मुझे अपने साधु स्वभाव से ऋणरहित मानकर और भी ऋणी बना दो। ये उत्तम है।’ सर्वलोक महेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं जिन महाभाग गोपियों के ऋणी रहना चाहते हैं, उनकी इच्छा, इच्छा होने से पूर्व ही भगवान् पूर्ण कर दें—यह तो स्वाभाविक ही है।<br />
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‘गोपियों! तुमने लोक और परलोक के सारे बन्धनों को काटकर मुझसे निष्कपट प्रेम किया है; यदि मैं तुममें से प्रत्येक के लिये अलग-अलग अनन्त काल तक जीवन धारण करके तुम्हारे प्रेम का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ और ऋणी ही रहूँगा। तुम मुझे अपने साधु स्वभाव से ऋणरहित मानकर और भी ऋणी बना दो। ये उत्तम है।’ सर्वलोक महेश्वर भगवान  श्रीकृष्ण स्वयं जिन महाभाग गोपियों के ऋणी रहना चाहते हैं, उनकी इच्छा, इच्छा होने से पूर्व ही भगवान  पूर्ण कर दें—यह तो स्वाभाविक ही है।<br />
 
भला विचारिये तो सही श्रीकृष्णगतप्राणा, श्रीकृष्णरस भावित मति गोपियों के मन की क्या स्थिति थी। गोपियों का तन, मन, धन—सभी कुछ प्राणप्रियतम का श्रीकृष्ण का था। वे संसार में जीती थीं श्रीकृष्ण के लिये, घर में रहती थीं श्रीकृष्ण के लिये और घर के सारे काम करती थीं श्रीकृष्ण के लिये। उनकी निर्मल और योगीन्द्र दुर्लभ पवित्र बुद्धि में बुद्धि में श्रीकृष्ण के सिवा अपना कुछ था ही नहीं। श्रीकृष्ण के लिये ही, श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये ही, श्रीकृष्ण की निज सामग्री से ही श्रीकृष्ण को पूजकर—श्रीकृष्ण को सुखी देखकर वे सुखी होती थीं। प्रातःकाल निद्रा टूटने के समय से लेकर रात को सोने तक वे जो कुछ भी करती थीं, सब श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये ही करती थीं। यहाँ तक कि उनकी निद्रा भी श्रीकृष्ण में ही होती थी। स्वप्न और सुषुप्ति दोनों में ही वे श्रीकृष्ण की मधुर और शान्त लीला देखतीं और अनुभव करती थीं। रात को दही जमाते समय श्यामसुन्दर की माधुरी छवि का ध्यान करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी यह अभिलाषा करती थी कि मेरा दही सुन्दर जमे, श्रीकृष्ण के लिये उसे बिलोकर मैं बढ़िया-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छिके पर रखूँ, जितने पर श्रीकृष्ण के हाथ आसानी से पहुँच सकें। फिर मेरे प्राण धन श्रीकृष्ण अपने सखाओं को साथ लेकर हँसते और क्रीड़ा करते हुए घर में पदार्पण करें, माखन लूटें और अपने सखाओं और बन्दरों को लुटाये, आनन्द में मत्त होकर मेरे आँगन में नाचें और मैं किसी कोने में छिपकर इस लीला को अपनी आँखों से देखकर जीवन को सफल करूँ और फिर अचानक ही पकड़कर ह्रदय से लगा लूँ। सूरदासजी ने गाया है—<br />
 
भला विचारिये तो सही श्रीकृष्णगतप्राणा, श्रीकृष्णरस भावित मति गोपियों के मन की क्या स्थिति थी। गोपियों का तन, मन, धन—सभी कुछ प्राणप्रियतम का श्रीकृष्ण का था। वे संसार में जीती थीं श्रीकृष्ण के लिये, घर में रहती थीं श्रीकृष्ण के लिये और घर के सारे काम करती थीं श्रीकृष्ण के लिये। उनकी निर्मल और योगीन्द्र दुर्लभ पवित्र बुद्धि में बुद्धि में श्रीकृष्ण के सिवा अपना कुछ था ही नहीं। श्रीकृष्ण के लिये ही, श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये ही, श्रीकृष्ण की निज सामग्री से ही श्रीकृष्ण को पूजकर—श्रीकृष्ण को सुखी देखकर वे सुखी होती थीं। प्रातःकाल निद्रा टूटने के समय से लेकर रात को सोने तक वे जो कुछ भी करती थीं, सब श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये ही करती थीं। यहाँ तक कि उनकी निद्रा भी श्रीकृष्ण में ही होती थी। स्वप्न और सुषुप्ति दोनों में ही वे श्रीकृष्ण की मधुर और शान्त लीला देखतीं और अनुभव करती थीं। रात को दही जमाते समय श्यामसुन्दर की माधुरी छवि का ध्यान करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी यह अभिलाषा करती थी कि मेरा दही सुन्दर जमे, श्रीकृष्ण के लिये उसे बिलोकर मैं बढ़िया-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छिके पर रखूँ, जितने पर श्रीकृष्ण के हाथ आसानी से पहुँच सकें। फिर मेरे प्राण धन श्रीकृष्ण अपने सखाओं को साथ लेकर हँसते और क्रीड़ा करते हुए घर में पदार्पण करें, माखन लूटें और अपने सखाओं और बन्दरों को लुटाये, आनन्द में मत्त होकर मेरे आँगन में नाचें और मैं किसी कोने में छिपकर इस लीला को अपनी आँखों से देखकर जीवन को सफल करूँ और फिर अचानक ही पकड़कर ह्रदय से लगा लूँ। सूरदासजी ने गाया है—<br />
 
'''मैया री, मोहि माखन भावै । जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि नहीं रूचि आवै ।।'''<br />
 
'''मैया री, मोहि माखन भावै । जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि नहीं रूचि आवै ।।'''<br />
पंक्ति ३६: पंक्ति ३६:
 
'''कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवार । कोउ कहति, मैं बाँधि राखौं, को सकै निरवार ।।'''<br />
 
'''कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवार । कोउ कहति, मैं बाँधि राखौं, को सकै निरवार ।।'''<br />
 
'''सूर प्रभु के मिलन कारन, करति बिबिध बिचार । जोरि कर बिधि कौं मनावति पुरुष नंद कुमार ।।'''<br />
 
'''सूर प्रभु के मिलन कारन, करति बिबिध बिचार । जोरि कर बिधि कौं मनावति पुरुष नंद कुमार ।।'''<br />
रातों गोपियाँ जाग-जागकर प्रातःकाल होने की बाट देखती। उनका मन श्रीकृष्ण में लगा रहता। प्रातःकाल जल्दी-जल्दी दही मथकर, माखन निकालकर छीके पर रखतीं; कहीं प्राण धन आकर लौट न जायँ, इसलिये सब काम छोड़कर वे सबसे पहले यही काम करतीं और श्यामसुन्दर की प्रतीक्षा में व्याकुल होती हुई मन-ही-मन सोचतीं—‘हा! आज प्राण प्रियतम क्यों नहीं आये ? इतनी देर क्यों हो गयी ? क्या आज इस दासी का घर पवित्र न करेंगे ? क्या आज मेरे समर्पण किये हुए इस तुच्छ माखन का भोग लगाकर स्वयं सुखी होकर मुझे सुख न देंगे ? कहीं यशोदा मैया ने तो उन्हें नहीं रोक लिया ? उनके घर तो नौ लाख गौएँ हैं। माखन की क्या कमी है। मेरे घर तो वे कृपा करके ही आते हैं!’ इन्हीं विचारों में आँसू बहाती हुई गोपी क्षण-क्षण में दौड़कर दरवाजे पर जाती, लाज छोड़कर रास्ते की ओर देखती, सखियों से पूछती। एक-एक निमेष उसके लिये युग के समान हो जाता! ऐसी भाग्यवती गोपियों की मनःकामना भगवान् उनके घर पधार कर पूर्ण करते।<br />
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रातों गोपियाँ जाग-जागकर प्रातःकाल होने की बाट देखती। उनका मन श्रीकृष्ण में लगा रहता। प्रातःकाल जल्दी-जल्दी दही मथकर, माखन निकालकर छीके पर रखतीं; कहीं प्राण धन आकर लौट न जायँ, इसलिये सब काम छोड़कर वे सबसे पहले यही काम करतीं और श्यामसुन्दर की प्रतीक्षा में व्याकुल होती हुई मन-ही-मन सोचतीं—‘हा! आज प्राण प्रियतम क्यों नहीं आये ? इतनी देर क्यों हो गयी ? क्या आज इस दासी का घर पवित्र न करेंगे ? क्या आज मेरे समर्पण किये हुए इस तुच्छ माखन का भोग लगाकर स्वयं सुखी होकर मुझे सुख न देंगे ? कहीं यशोदा मैया ने तो उन्हें नहीं रोक लिया ? उनके घर तो नौ लाख गौएँ हैं। माखन की क्या कमी है। मेरे घर तो वे कृपा करके ही आते हैं!’ इन्हीं विचारों में आँसू बहाती हुई गोपी क्षण-क्षण में दौड़कर दरवाजे पर जाती, लाज छोड़कर रास्ते की ओर देखती, सखियों से पूछती। एक-एक निमेष उसके लिये युग के समान हो जाता! ऐसी भाग्यवती गोपियों की मनःकामना भगवान  उनके घर पधार कर पूर्ण करते।<br />
 
सूरदासजी ने गाया है—<br />
 
सूरदासजी ने गाया है—<br />
 
'''प्रथम करी हरि माखन-चोरी । ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी ।।'''<br />
 
'''प्रथम करी हरि माखन-चोरी । ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी ।।'''<br />
 
'''मन में यहै बिचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाउँ । गोकुल जनम लियौ सुख-कारन, सबकै माखन खाऊँ ।।'''<br />
 
'''मन में यहै बिचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाउँ । गोकुल जनम लियौ सुख-कारन, सबकै माखन खाऊँ ।।'''<br />
 
'''बाल रूप जसुमति मोहि जानै, गोपिनि मिलि सुख भोग । सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं ये मेरे ब्रज लोग ।।'''<br />
 
'''बाल रूप जसुमति मोहि जानै, गोपिनि मिलि सुख भोग । सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं ये मेरे ब्रज लोग ।।'''<br />
अपने निज जन व्रजवासियों को सुखी करने के लिये ही तो भगवान् गोकुल में पधारे थे। माखन तो नन्द बाबा के घर पर कम न था। लाख-लाख गौएँ थीं। वे चाहे जितना खाते-लुटाते। परन्तु वे तो केवल नन्द बाबा के ही नहीं; सभी व्रजवासियों के अपने थे, सभी को सुख देना चाहते थे। गोपियों की लालसा पूरी करने के लिए ही वे उनके घर जाते और चुरा-चुराकर माखन खाते। यह वास्तव में चोरी नहीं, यह तो गोपियों की पूजा-पद्धति का भगवान् के द्वारा स्वीकार था। भक्तवत्सल भगवान् भक्तों की पूजा स्वीकार कैसे न करें ?<br />
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अपने निज जन व्रजवासियों को सुखी करने के लिये ही तो भगवान  गोकुल में पधारे थे। माखन तो नन्द बाबा के घर पर कम न था। लाख-लाख गौएँ थीं। वे चाहे जितना खाते-लुटाते। परन्तु वे तो केवल नन्द बाबा के ही नहीं; सभी व्रजवासियों के अपने थे, सभी को सुख देना चाहते थे। गोपियों की लालसा पूरी करने के लिए ही वे उनके घर जाते और चुरा-चुराकर माखन खाते। यह वास्तव में चोरी नहीं, यह तो गोपियों की पूजा-पद्धति का भगवान  के द्वारा स्वीकार था। भक्तवत्सल भगवान  भक्तों की पूजा स्वीकार कैसे न करें ?<br />
भगवान् की इस दिव्य लीला—माखन चोरी का रहस्य न जानने के कारण ही कुछ लोग इसे आदर्श के विपरीत बतलाते हैं। उन्हें पहले समझना चाहिये चोरी क्या वस्तु है, वह किसकी होती है और कौन करता है। चोरी उसे कहते हैं जब किसी दूसरे की कोई चीज, उसकी इच्छा के बिना, उसके अनजान में और आगे भी वह जान न पाये—ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है। भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के घर से माखन लेते थे उनकी इच्छा से, गोपियों के अनजान में नहीं—उनकी जान में, उनके देखते-देखते और आगे जनाने की कोई बात ही नहीं—उनके सामने ही दौड़ते हुए निकल जाते थे। दूसरी बात महतत्व की यह है कि संसार में या संसार के बाहर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो श्रीभगवान् की नहीं है और वे उसकी चोरी करते हैं। गोपियों का तो सर्वस्व श्रीभगवान् का था ही, सारा जगत् ही उनका है। वे भला, किसकी चारी कर सकते हैं ? हाँ, चोर तो वास्तव में वे लोग हैं, जो भगवान् की वस्तु को अपनी मानकर ममता-आसक्ति में फँसे रहते हैं और दण्ड के पात्र बनते हैं। उपर्युक्त सभी दृष्टियों से यही सिद्ध होता है कि माखनचोरी चोरी न थी, भगवान् दिव्य-लीला थी। असल में गोपियों ने प्रेम की अधिकता से ही भगवान् का प्रेम का नाम ‘चोर’ रख दिया था, क्योंकि वे उनके चितचोर तो थे ही।<br />
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भगवान  की इस दिव्य लीला—माखन चोरी का रहस्य न जानने के कारण ही कुछ लोग इसे आदर्श के विपरीत बतलाते हैं। उन्हें पहले समझना चाहिये चोरी क्या वस्तु है, वह किसकी होती है और कौन करता है। चोरी उसे कहते हैं जब किसी दूसरे की कोई चीज, उसकी इच्छा के बिना, उसके अनजान में और आगे भी वह जान न पाये—ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है। भगवान  श्रीकृष्ण गोपियों के घर से माखन लेते थे उनकी इच्छा से, गोपियों के अनजान में नहीं—उनकी जान में, उनके देखते-देखते और आगे जनाने की कोई बात ही नहीं—उनके सामने ही दौड़ते हुए निकल जाते थे। दूसरी बात महतत्व की यह है कि संसार में या संसार के बाहर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो श्रीभगवान  की नहीं है और वे उसकी चोरी करते हैं। गोपियों का तो सर्वस्व श्रीभगवान  का था ही, सारा जगत् ही उनका है। वे भला, किसकी चारी कर सकते हैं ? हाँ, चोर तो वास्तव में वे लोग हैं, जो भगवान  की वस्तु को अपनी मानकर ममता-आसक्ति में फँसे रहते हैं और दण्ड के पात्र बनते हैं। उपर्युक्त सभी दृष्टियों से यही सिद्ध होता है कि माखनचोरी चोरी न थी, भगवान  दिव्य-लीला थी। असल में गोपियों ने प्रेम की अधिकता से ही भगवान  का प्रेम का नाम ‘चोर’ रख दिया था, क्योंकि वे उनके चितचोर तो थे ही।<br />
जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण को भगवान् नहीं मानते, यद्यपि उन्हें श्रीमद्भागवत में वर्णित भगवान् की लीला पर विचार करने कोई अधिकार नहीं है, परन्तु उनकी दृष्टि से भी इस प्रसंग में कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। क्योंकि श्रीकृष्ण उस समय लगभग दो-तीन वर्ष के बच्चे थे और गोपियाँ अत्यधिक स्नेह के कारण उनके ऐसे-ऐसे मधुर खेल देखना चाहती थीं। आशा है, इससे शंका करने वालों को कुछ सन्तोष होगा ।<br />
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जो लोग भगवान  श्रीकृष्ण को भगवान  नहीं मानते, यद्यपि उन्हें श्रीमद्भागवत में वर्णित भगवान  की लीला पर विचार करने कोई अधिकार नहीं है, परन्तु उनकी दृष्टि से भी इस प्रसंग में कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। क्योंकि श्रीकृष्ण उस समय लगभग दो-तीन वर्ष के बच्चे थे और गोपियाँ अत्यधिक स्नेह के कारण उनके ऐसे-ऐसे मधुर खेल देखना चाहती थीं। आशा है, इससे शंका करने वालों को कुछ सन्तोष होगा ।<br />
 
<div align="right">'''हनुमान प्रसाद पोद्दार'''</div>
 
<div align="right">'''हनुमान प्रसाद पोद्दार'''</div>
 
</ref>। एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे। उन लोगों ने माँ यशोदा के पास आकर कहा—‘माँ! कन्हैया ने मिट्टी खायी है’<ref>'''मृद्-भक्षण के हेतु—'''
 
</ref>। एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे। उन लोगों ने माँ यशोदा के पास आकर कहा—‘माँ! कन्हैया ने मिट्टी खायी है’<ref>'''मृद्-भक्षण के हेतु—'''
#भगवान् श्रीकृष्ण ने विचार किया कि मुझमें शुद्ध सत्वगुण ही रहता है और आगे बहुत-से रजोगुणी कर्म करने हैं। उसके लिए थोडा-सा ‘रज’ संग्रह कर लें।<br />
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#भगवान  श्रीकृष्ण ने विचार किया कि मुझमें शुद्ध सत्वगुण ही रहता है और आगे बहुत-से रजोगुणी कर्म करने हैं। उसके लिए थोडा-सा ‘रज’ संग्रह कर लें।<br />
 
#संस्कृत-साहित्य में पृथ्वी का एक नाम ‘क्षमा’ भी है। श्रीकृष्ण ने देखा कि ग्वालबाल खुलकर मेरे साथ खेलते हैं; कभी-कभी अपमान भी कर बैठते हैं। उनके साथ क्षमांश धारण करके ही क्रीडा करनी चाहिये, जिससे कोई विघ्न न पड़े।<br />
 
#संस्कृत-साहित्य में पृथ्वी का एक नाम ‘क्षमा’ भी है। श्रीकृष्ण ने देखा कि ग्वालबाल खुलकर मेरे साथ खेलते हैं; कभी-कभी अपमान भी कर बैठते हैं। उनके साथ क्षमांश धारण करके ही क्रीडा करनी चाहिये, जिससे कोई विघ्न न पड़े।<br />
 
#संस्कृत-भाषा में पृथ्वी को ‘रसा’ भी कहते हैं। श्रीकृष्ण ने सोचा सब रस तो ले ही चुका हूँ, अब रसा-रस का आस्वादन करूँ।<br />
 
#संस्कृत-भाषा में पृथ्वी को ‘रसा’ भी कहते हैं। श्रीकृष्ण ने सोचा सब रस तो ले ही चुका हूँ, अब रसा-रस का आस्वादन करूँ।<br />
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#पहले विष भक्षण किया था, मिट्टी खाकर उसकी दवा की।<br />
 
#पहले विष भक्षण किया था, मिट्टी खाकर उसकी दवा की।<br />
 
#पहले गोपियों का मक्खन खाया था, उलाहना देने पर मिट्टी खा ली, जिससे मुँह साफ हो जाय।<br />
 
#पहले गोपियों का मक्खन खाया था, उलाहना देने पर मिट्टी खा ली, जिससे मुँह साफ हो जाय।<br />
#भगवान् श्रीकृष्ण के उदर में रहने वाले कोटि-कोटि ब्राम्हणों के जीव व्रज-रज—गोपियों के चरणों की रज—प्राप्त करने के लिये व्याकुल हो रहे थे। उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये भगवान् ने मिट्टी खायी।<br />
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#भगवान  श्रीकृष्ण के उदर में रहने वाले कोटि-कोटि ब्राम्हणों के जीव व्रज-रज—गोपियों के चरणों की रज—प्राप्त करने के लिये व्याकुल हो रहे थे। उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये भगवान  ने मिट्टी खायी।<br />
#भगवान् स्वयं ही अपने भक्तों की चरण-रज मुख के द्वारा अपने ह्रदय में धारण करते हैं।<br />
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#भगवान  स्वयं ही अपने भक्तों की चरण-रज मुख के द्वारा अपने ह्रदय में धारण करते हैं।<br />
 
#छोटे बालक स्वभाव से ही मिट्टी खा लिया करते हैं।
 
#छोटे बालक स्वभाव से ही मिट्टी खा लिया करते हैं।
</ref>। हितैषिणी यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया<ref>यशोदाजी जानती थीं कि इस हाथ ने मिट्टी खाने में सहायता की है। चोर का सहायक भी चोर ही है। इसलिये उन्होंने हाथ ही पकड़ा।</ref>। उस समय श्रीकृष्ण की आँखें डर के मारे नाच रहीं थीं<ref>भगवान् ने नेत्र में सूर्य और चद्रमा का निवास है। वे कर्म के साक्षी हैं। उन्होंने सोचा कि पता नहीं श्रीकृष्ण मिट्टी खाना स्वीकार करेंगे कि मुकर जायँगे। अब हमारा कर्तव्य क्या है। इसी भाव को सूचित करते हुए दोनों नेत्र चकराने लगे।</ref>। यशोदा मैया ने डाँटकर कहा— ‘क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेले में छिपकर मिट्टी क्यों खायी ? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं ओर से गवाही दे रहें हैं’ ।
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</ref>। हितैषिणी यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया<ref>यशोदाजी जानती थीं कि इस हाथ ने मिट्टी खाने में सहायता की है। चोर का सहायक भी चोर ही है। इसलिये उन्होंने हाथ ही पकड़ा।</ref>। उस समय श्रीकृष्ण की आँखें डर के मारे नाच रहीं थीं<ref>भगवान  ने नेत्र में सूर्य और चद्रमा का निवास है। वे कर्म के साक्षी हैं। उन्होंने सोचा कि पता नहीं श्रीकृष्ण मिट्टी खाना स्वीकार करेंगे कि मुकर जायँगे। अब हमारा कर्तव्य क्या है। इसी भाव को सूचित करते हुए दोनों नेत्र चकराने लगे।</ref>। यशोदा मैया ने डाँटकर कहा— ‘क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेले में छिपकर मिट्टी क्यों खायी ? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं ओर से गवाही दे रहें हैं’ ।
  
[[कृष्ण|भगवान् श्रीकृष्ण]] ने कहा—‘माँ! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहें हैं। यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखों से देख लो । यशोदाजी ने कहा—‘अच्छी बात। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।’ माता के ऐसा कहने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया<ref>
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[[कृष्ण|भगवान  श्रीकृष्ण]] ने कहा—‘माँ! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहें हैं। यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखों से देख लो । यशोदाजी ने कहा—‘अच्छी बात। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।’ माता के ऐसा कहने पर भगवान  श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया<ref>
 
#मा! मिट्टी खाने के सम्बन्ध में ये मुझ अकेले का ही नाम ले रहे हैं। मैंने खायी, तो सबने खायी, देख लो मेरे मुख में सम्पूर्ण विश्व!
 
#मा! मिट्टी खाने के सम्बन्ध में ये मुझ अकेले का ही नाम ले रहे हैं। मैंने खायी, तो सबने खायी, देख लो मेरे मुख में सम्पूर्ण विश्व!
#श्रीकृष्ण ने विचार किया कि उस दिन मेरे मुख में विश्व देखकर माता ने अपने नेत्र बंद कर लिये थे। आज भी जब मैं अपना मुँह खोलूँगा, तब यह अपने नेत्र बंद कर लेगी। यह विचार से मुख खोल दिया।</ref>। [[परीक्षित]]! भगवान् श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीला के लिए ही मनुष्य के बालक बने हुए हैं ।यशोदाजी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत् विद्द्मान हैं। आकाश (वह शून्य जिसमें किसी की गति नहीं), दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, विद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत् (प्राणियों के चलने-फिरने का आकश), वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े । परीक्षित्! जीव, काल, स्वाभाव, कर्म, उसकी वासना और शरीर आदि के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखनेवाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण व्रज और अपने-आपको भी यशोदाजी ने श्रीकृष्ण के नन्हें से खुले हुए मुख में देखा। वे बड़ी शंका में पड़ गयीं । वे सोंचने लगीं कि ‘यह कोई स्वप्न है या भगवान् की माया ? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है ? सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो’। ‘जो चित्त, मन, कर्म और वाणी के द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्ता से ही इसकी प्रतीति होती है, जिसका स्वरुप सर्वथा अचिन्त्य है—उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ ।
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#श्रीकृष्ण ने विचार किया कि उस दिन मेरे मुख में विश्व देखकर माता ने अपने नेत्र बंद कर लिये थे। आज भी जब मैं अपना मुँह खोलूँगा, तब यह अपने नेत्र बंद कर लेगी। यह विचार से मुख खोल दिया।</ref>। [[परीक्षित]]! भगवान  श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीला के लिए ही मनुष्य के बालक बने हुए हैं ।यशोदाजी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत् विद्द्मान हैं। आकाश (वह शून्य जिसमें किसी की गति नहीं), दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, विद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत् (प्राणियों के चलने-फिरने का आकश), वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े । परीक्षित्! जीव, काल, स्वाभाव, कर्म, उसकी वासना और शरीर आदि के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखनेवाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण व्रज और अपने-आपको भी यशोदाजी ने श्रीकृष्ण के नन्हें से खुले हुए मुख में देखा। वे बड़ी शंका में पड़ गयीं । वे सोंचने लगीं कि ‘यह कोई स्वप्न है या भगवान  की माया ? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है ? सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो’। ‘जो चित्त, मन, कर्म और वाणी के द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्ता से ही इसकी प्रतीति होती है, जिसका स्वरुप सर्वथा अचिन्त्य है—उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ ।
 
{{लेख क्रम |पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 25-30|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 42-52}}
 
{{लेख क्रम |पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 25-30|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 42-52}}
  

१२:४६, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद

ऐसा करके भी ढ़िठाई की बातें करता है—उलटे हैं ही चोर बनाता और अपने घर का मालिक बन जाता है। इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरों में मूत्र आदि भी कर देता है। तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरी के अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानों पत्थर की मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!’ इस प्रकार गोपियाँ कहतीं जातीं और श्रीकृष्ण के भीत-चकित नेत्रों से मुखमंडल को देखती जातीं। उनकी यह दशा देखकर नन्दरानी यशोदाजी उनके मन का भाव ताड़ लेतीं और उनके ह्रदय में स्नेह और आनन्द की बाढ़ आ जाती। वे इस प्रकार हँसने लगतीं कि अपने लाड़ले कन्हैया को इस बात का उलाहना भी न दे पातीं, डाँटने की बात तक नहीं सोंचती[१]। एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे। उन लोगों ने माँ यशोदा के पास आकर कहा—‘माँ! कन्हैया ने मिट्टी खायी है’[२]। हितैषिणी यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया[३]। उस समय श्रीकृष्ण की आँखें डर के मारे नाच रहीं थीं[४]। यशोदा मैया ने डाँटकर कहा— ‘क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेले में छिपकर मिट्टी क्यों खायी ? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं ओर से गवाही दे रहें हैं’ ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘माँ! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहें हैं। यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखों से देख लो । यशोदाजी ने कहा—‘अच्छी बात। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।’ माता के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया[५]परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीला के लिए ही मनुष्य के बालक बने हुए हैं ।यशोदाजी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत् विद्द्मान हैं। आकाश (वह शून्य जिसमें किसी की गति नहीं), दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, विद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत् (प्राणियों के चलने-फिरने का आकश), वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े । परीक्षित्! जीव, काल, स्वाभाव, कर्म, उसकी वासना और शरीर आदि के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखनेवाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण व्रज और अपने-आपको भी यशोदाजी ने श्रीकृष्ण के नन्हें से खुले हुए मुख में देखा। वे बड़ी शंका में पड़ गयीं । वे सोंचने लगीं कि ‘यह कोई स्वप्न है या भगवान की माया ? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है ? सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो’। ‘जो चित्त, मन, कर्म और वाणी के द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्ता से ही इसकी प्रतीति होती है, जिसका स्वरुप सर्वथा अचिन्त्य है—उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवान की लीला पर विचार करते समय यह बात स्मरण करनी चाहिये कि भगवान का लीलाधाम, भगवान के लीला पात्र, भगवान का लीला शरीर और उसकी लीला प्राकृत नहीं होती। भगवान ने देह-देही का भेद नहीं है। महाभारत में आया है—
    ‘परमात्मा का शरीर भूत समुदाय से बना हुआ नहीं होता। जो मनुष्य श्रीकृष्ण परमात्मा के शरीर को भौतिक जानता-मानता है, उसका समस्त श्रौत-स्मार्त कर्मों से बहिष्कार कर देना चाहिये अर्थात् उसका किसी भी शास्त्रीय कर्म में अधिकार नहीं है। यहाँ तक कि उसका मुँह देखने पर भी सचैल (वस्त्र सहित) स्नान करना चाहिये।’
    श्रीमद्भागवत में ही ब्रम्हाजी ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा है— ‘आपने मुझ पर कृपा करने के लिये ही यह स्वेच्छामय सच्चिदानन्दस्वरुप प्रकट किया है, यह पांचभौतिक कदापि नहीं है।’
    इससे यह स्पष्ट है कि भगवान का सभी कुछ अप्राकृत होता है। इसी प्रकार यह माखन चोरी की लीला भी अप्राकृत दिव्य ही है।
    यदि भगवान के नित्य परम धाम में अभिन्नरूप से नित्य निवास करने वाली नित्यसिद्धा गोपियाँ की दृष्टि न देखकर केवल साधनसिद्ध गोपियों की दृष्टि से देखा जाय तो भी उनकी तपस्या इतनी कठोर थी, उनकी लालसा इतनी अनन्य थी, उनका प्रेम इतना व्यापक था और उनकी लगन इतनी सच्ची थी कि भक्तवांञ्छा कल्पतरु प्रेम रसमय भगवान उनके इच्छानुसार उन्हें सुख पहुँचाने के लिये माखन चोरी की लीला करके उनकी इच्छित पूजा ग्रहण करें, चीर हरण करके उनका रहा-सहा व्यवधान का परदा उठा दें और रासलीला करके उनको दिव्य सुख पहुँचायें तो कोई बड़ी बात नहीं।
    भगवान की नित्यसिद्धा चिदानन्दमयी गोपियों के अतिरिक्त बहुत-सी गोपियाँ और थीं, जो अपनी महान् साधना के फलस्वरूप भगवान की मुक्तजन-वांछित सेवा करने के लिये गोपियों के रूप में अवतीर्ण हुई थीं। उनमें से कुछ पूर्व-जन्म की देवकन्याएँ थीं, कुछ श्रुतियाँ थीं, कुछ तपस्वी ऋषि थे और कुछ अन्य भक्तजन। इनकी कथाएँ विभिन्न पुराणों में मिलती है। श्रुतिरूपा गोपियाँ, जो ‘नेति-नेति’ के द्वारा निरन्तर परमात्मा का वर्णन करते रहने पर भी उन्हें साक्षात्-रूप से प्राप्त नहीं कर सकतीं, गोपियों के साथ भगवान के दिव्य रसमय विहार की बात जानकर गोपियों की उपासना करती हैं और अन्त में स्वयं गोपीरूप से परिणत होकर भगवान श्रीकृष्ण को साक्षात् अपने प्रियतम रूप से प्राप्त करती हैं। इनमें मुख्य श्रुतियों के नाम हैं—उद्गीता, सुगीता, कलगीता, कलकण्ठिका और विपंची आदि।
    भगवान के श्रीरामावतार में उन्हें देखकर मुग्ध होने वाले—अपने आपको उनके स्वरुप-सौन्दर्य न्योछावर कर देने वाले सिद्ध ऋषिगण, जिनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें गोपी होकर प्राप्त करने का वर दिया था, व्रज में गोपी रूप से अवतीर्ण हुए थे। इसके अतिरिक्त मिथिला की गोपी, कोसल की गोपी, अयोध्या की गोपी—पुलिन्द गोपी, रमावैकुण्ठ, श्वेतद्वीप आदि की गोपियाँ जालन्धरी गोपी आदि गोपियों के अनेकों यूथ थे, जिनको बड़ी तपस्या करके भगवान के वरदान पाकर गोपी रूप में अवतीर्ण होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पद्मपुराण के पातालखण्ड में बहुत-से ऐसे ऋषियों का वर्णन है, जिन्होंने बड़ी कठिन तपस्या आदि करके अनेकों कल्पों के बाद गोपी स्वरुप को प्राप्त किया था। उनमें से कुछ के नाम निम्नलिखित हैं—
    1. एक उग्रतपा नाम के ऋषि थे। वे अग्निहोत्री और बड़े दृशव्रती थे। उनकी तपस्या अद्भुत थी। उन्होंने पंचदशाक्षर-मन्त्र का जाप और रासोन्मत्त नव किशोर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का ध्यान किया था। सौ कल्पों के बाद वे सुनन्द नामक गोप कि कन्या ‘सुनन्दा’ हुए।
    2. एक सत्यतपा नाम के मुनि थे। वे सूखे पत्तों पर रहकर दशाक्षर मन्त्र का जाप और श्रीराधाजी के दोनों हाथ पकड़कर नाचते हुए श्रीकृष्ण का ध्यान करते थे। दस कल्प के बाद वे सुभद्र नामक गोप की कन्या ‘सुभद्रा’ हए।
    3. हरिधामा नाम के एक ऋषि थे। वे निराहार रहकर ‘क्लीं’ कामबीज से युक्त विंशाक्षरी मन्त्र का जाप करते थे और माधवी मण्डप में कोमल-कोमल पत्तों की शय्या पर लेटे हुए युगल-सरकार का ध्यान करते थे। तीन कल्प के पश्चात् वे सारंग नामक गोप के घर ‘रंगवेणी’ नाम से अवतीर्ण हुए।
    4. जाबालि नाम के एक ब्रम्हज्ञानी ऋषि थे, उन्होंने एक बार विशाल वन में विचरते-विचरते एक जगह बहुत बड़ी बावली देखी। उस बावली के पश्चिम तट पर बड़के नीचे एक तेजस्विनी युवती स्त्री कठोर तपस्या कर रही थी। वह बड़ी सुन्दर थी। चन्द्रमा की शुभ्र किरणों के समान उसकी चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी। उसका बायाँ हाथ अपनी कमर पर था और दाहिने हाथ से वह ज्ञानमुद्रा धारण किये हुए थी। जाबालि के बड़ी नम्रता के साथ पूछने पर उस तापसी ने बतलाया—
    ‘मैं वह ब्रम्हविद्या हूँ, जिसे बड़े-बड़े योगी सदा ढूँढा करते हैं। मैं श्रीकृष्ण के चरणकमलों की प्राप्ति के लिये इस घोर वन में उन पुरुषोत्तम का ध्यान करती हुई दीर्घकाल से तपस्या कर रही हूँ। मैं ब्रम्हानन्द से परिपूर्ण हूँ और मेरी बुद्धि भी उसी आनन्द से परितृप्त है। परन्तु श्रीकृष्ण का प्रेम मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ, इसलिये मैं अपने को शून्य देखती हूँ।’ ब्रम्हज्ञानी जाबालि ने उसके चरणों पर गिरकर दीक्षा ली और फिर व्रज वीथियों में विरहने वाले भगवान का ध्यान करते हुए वे एक पैर से खड़े होकर बड़ी कठोर तपस्या करते रहे। नौ कल्पों के बाद प्रचण्ड नामक गोप के घर वे ‘चित्रगन्धा’ के रूप में प्रकट हुए।
    5.कुशध्वज नामक ब्रम्हर्षि के पुत्र शुचिश्रवा और सुवर्ण देवतत्वज्ञ थे। उन्होंने शीर्षासन करके ‘ह्रीं’ हंस-मन्त्र का जाप करते हुए और सुन्दर कन्दर्प-तुल्य गोकुलवासी दस वर्ष की उम्र के भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए घोर तपस्या की। कल्प के बाद वे व्रज में सुधीर नामक गोप के घर उत्पन्न हुए।
    इसी प्रकार और भी बहुत-सी गोपियों के पूर्वजन्म की कथाएँ प्राप्त होती हैं, विस्तारभय से उन सबका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया। भगवान के लिये इतनी तपस्या करके इतनी लगन के साथ कल्पों तक साधना करके जिन त्यागी भाग्वात्प्रेमियों ने गोपियों का तन-मन प्राप्त किया था, उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये, उन्हें आनन्द-दान देने के लिये यदि भगवान उनकी मनचाही लीला करते हैं तो इसमें आश्चर्य और अनाचार की कौन-सी बात है ? रासलीला के प्रसंग में स्वयं भगवान ने श्रीगोपियों से कहा है—
    ‘गोपियों! तुमने लोक और परलोक के सारे बन्धनों को काटकर मुझसे निष्कपट प्रेम किया है; यदि मैं तुममें से प्रत्येक के लिये अलग-अलग अनन्त काल तक जीवन धारण करके तुम्हारे प्रेम का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ और ऋणी ही रहूँगा। तुम मुझे अपने साधु स्वभाव से ऋणरहित मानकर और भी ऋणी बना दो। ये उत्तम है।’ सर्वलोक महेश्वर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं जिन महाभाग गोपियों के ऋणी रहना चाहते हैं, उनकी इच्छा, इच्छा होने से पूर्व ही भगवान पूर्ण कर दें—यह तो स्वाभाविक ही है।
    भला विचारिये तो सही श्रीकृष्णगतप्राणा, श्रीकृष्णरस भावित मति गोपियों के मन की क्या स्थिति थी। गोपियों का तन, मन, धन—सभी कुछ प्राणप्रियतम का श्रीकृष्ण का था। वे संसार में जीती थीं श्रीकृष्ण के लिये, घर में रहती थीं श्रीकृष्ण के लिये और घर के सारे काम करती थीं श्रीकृष्ण के लिये। उनकी निर्मल और योगीन्द्र दुर्लभ पवित्र बुद्धि में बुद्धि में श्रीकृष्ण के सिवा अपना कुछ था ही नहीं। श्रीकृष्ण के लिये ही, श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये ही, श्रीकृष्ण की निज सामग्री से ही श्रीकृष्ण को पूजकर—श्रीकृष्ण को सुखी देखकर वे सुखी होती थीं। प्रातःकाल निद्रा टूटने के समय से लेकर रात को सोने तक वे जो कुछ भी करती थीं, सब श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये ही करती थीं। यहाँ तक कि उनकी निद्रा भी श्रीकृष्ण में ही होती थी। स्वप्न और सुषुप्ति दोनों में ही वे श्रीकृष्ण की मधुर और शान्त लीला देखतीं और अनुभव करती थीं। रात को दही जमाते समय श्यामसुन्दर की माधुरी छवि का ध्यान करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी यह अभिलाषा करती थी कि मेरा दही सुन्दर जमे, श्रीकृष्ण के लिये उसे बिलोकर मैं बढ़िया-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छिके पर रखूँ, जितने पर श्रीकृष्ण के हाथ आसानी से पहुँच सकें। फिर मेरे प्राण धन श्रीकृष्ण अपने सखाओं को साथ लेकर हँसते और क्रीड़ा करते हुए घर में पदार्पण करें, माखन लूटें और अपने सखाओं और बन्दरों को लुटाये, आनन्द में मत्त होकर मेरे आँगन में नाचें और मैं किसी कोने में छिपकर इस लीला को अपनी आँखों से देखकर जीवन को सफल करूँ और फिर अचानक ही पकड़कर ह्रदय से लगा लूँ। सूरदासजी ने गाया है—
    मैया री, मोहि माखन भावै । जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि नहीं रूचि आवै ।।
    ब्रज-जुवती इक पाछैं ठाढ़ी, सुनत स्याम की बात । मन-मन कहति कबहूँ अपनैं घर, देखौं माखन खात ।।
    बैठैं जाइ मथनियाँ के ढिग, मैं तब रहौ छपानी । सूरदास प्रभु अंतरजामी, ग्वालिनी-मन की जानी ।।
    एक दिन श्यामसुन्दर कह रहे थे, मैया! मुझे माखन भाता है; तू मेवा-पकवान के लिये कहती है, परन्तु मुझे तो वे रुचते ही नहीं।’ वहीं पीछे एक गोपी खड़ी श्यामसुन्दर की बात सुन रही थी। उसने मन-ही-मन कामना की—‘मैं कब इन्हें अपने घर माखन खाते देखूँगी; ये मथानी के पास जाकर बैठेंगे, तब मैं छिप रहूँगी ?’ प्रभु तो अन्तर्यामी हैं, गोपी के मन की जान गये और उसके घर पहुँचे तथा उसके घर का माखन खाकर उसे सुख दिया—‘गये स्याम तिहिं ग्वालिन के घर।’
    उसे इतना आनन्द हुआ कि वह फूली न समायी। सूरदासजी गाते हैं—
    फूली फिरति ग्वालि मन में री । पूछति सखी परस्पर बातैं पायो परयौकछू कहूँ तैं री ? ।।
    पुलकित रोम-रोम, गद्गद मुख बानी कहत न आवै । ऐसी कहा आहि सो सखि री, हम कों क्यों न सुनावै ।।
    तन न्यारा, जिय एक हमारौ, हम तुम एकै रूप । सूरदास कहै ग्वालि सखिनी सौं, देख्यौ रूप अनूप ।।
    वह ख़ुशी के छककर फूली-फूली फिरने लगी। आनन्द उसके ह्रदय में समा नहीं रहा था। सहेलियों ने पूछा—‘अरी, तुझे कहीं कुछ पड़ा धन मिल गया क्या ?’ वह तो यह सुनकर और भी प्रेमविह्वल हो गयी। उसका रोम-रोम खिल उठा, वह गद्गद हो गयी, मुँह से बोली नहीं निकली। सखियों ने कहा—‘सखि! ऐसी क्या बात है, हमें सुनाती क्यों नहीं ? हमारे तो शरीर ही दो हैं, हमारा जी तो एक ही है—हम तुम दोनों एक ही रूप हैं। भला, हमसे छिपाने की कौन सी बात है ?’ तब उसके मुँह से इतना ही निकला—‘मैंने आज अनूप रुप देखा है।’ बस, फिर वाणी रुक गयी और प्रेम के आँसू बहने लगे! सभी गोपियों की यही दशा थी।
    ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात । दधि माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल सखा सँग खात ।।
    ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं । माखन खात अचानक पावैं, भुज भरि उरहिं छुपावैं ।।
    मनहीं मन अभिलाष करति सब ह्रदय धरति यह ध्यान । सूरदास प्रभु कौं घर में लै, दैहों माखन खान ।।
    चली ब्रज घर-घरनि यह बात । नंद-सुत, सँग सखा लीन्हें, चोरि माखन खात ।।
    कोउ कहति, मेरे भवन भीतर, अबहिं पैठे धाइ । कोउ कहति मोहिं देखि द्वारैं, उतहिं गए पराइ ।।
    कोउ कहति, कहिं भाँति हरि कौं, देखौं अपने धाम । हेरि माखन देउँ आछौ, खाइ जितनौ स्याम ।।
    कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवार । कोउ कहति, मैं बाँधि राखौं, को सकै निरवार ।।
    सूर प्रभु के मिलन कारन, करति बिबिध बिचार । जोरि कर बिधि कौं मनावति पुरुष नंद कुमार ।।
    रातों गोपियाँ जाग-जागकर प्रातःकाल होने की बाट देखती। उनका मन श्रीकृष्ण में लगा रहता। प्रातःकाल जल्दी-जल्दी दही मथकर, माखन निकालकर छीके पर रखतीं; कहीं प्राण धन आकर लौट न जायँ, इसलिये सब काम छोड़कर वे सबसे पहले यही काम करतीं और श्यामसुन्दर की प्रतीक्षा में व्याकुल होती हुई मन-ही-मन सोचतीं—‘हा! आज प्राण प्रियतम क्यों नहीं आये ? इतनी देर क्यों हो गयी ? क्या आज इस दासी का घर पवित्र न करेंगे ? क्या आज मेरे समर्पण किये हुए इस तुच्छ माखन का भोग लगाकर स्वयं सुखी होकर मुझे सुख न देंगे ? कहीं यशोदा मैया ने तो उन्हें नहीं रोक लिया ? उनके घर तो नौ लाख गौएँ हैं। माखन की क्या कमी है। मेरे घर तो वे कृपा करके ही आते हैं!’ इन्हीं विचारों में आँसू बहाती हुई गोपी क्षण-क्षण में दौड़कर दरवाजे पर जाती, लाज छोड़कर रास्ते की ओर देखती, सखियों से पूछती। एक-एक निमेष उसके लिये युग के समान हो जाता! ऐसी भाग्यवती गोपियों की मनःकामना भगवान उनके घर पधार कर पूर्ण करते।
    सूरदासजी ने गाया है—
    प्रथम करी हरि माखन-चोरी । ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी ।।
    मन में यहै बिचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाउँ । गोकुल जनम लियौ सुख-कारन, सबकै माखन खाऊँ ।।
    बाल रूप जसुमति मोहि जानै, गोपिनि मिलि सुख भोग । सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं ये मेरे ब्रज लोग ।।
    अपने निज जन व्रजवासियों को सुखी करने के लिये ही तो भगवान गोकुल में पधारे थे। माखन तो नन्द बाबा के घर पर कम न था। लाख-लाख गौएँ थीं। वे चाहे जितना खाते-लुटाते। परन्तु वे तो केवल नन्द बाबा के ही नहीं; सभी व्रजवासियों के अपने थे, सभी को सुख देना चाहते थे। गोपियों की लालसा पूरी करने के लिए ही वे उनके घर जाते और चुरा-चुराकर माखन खाते। यह वास्तव में चोरी नहीं, यह तो गोपियों की पूजा-पद्धति का भगवान के द्वारा स्वीकार था। भक्तवत्सल भगवान भक्तों की पूजा स्वीकार कैसे न करें ?
    भगवान की इस दिव्य लीला—माखन चोरी का रहस्य न जानने के कारण ही कुछ लोग इसे आदर्श के विपरीत बतलाते हैं। उन्हें पहले समझना चाहिये चोरी क्या वस्तु है, वह किसकी होती है और कौन करता है। चोरी उसे कहते हैं जब किसी दूसरे की कोई चीज, उसकी इच्छा के बिना, उसके अनजान में और आगे भी वह जान न पाये—ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है। भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के घर से माखन लेते थे उनकी इच्छा से, गोपियों के अनजान में नहीं—उनकी जान में, उनके देखते-देखते और आगे जनाने की कोई बात ही नहीं—उनके सामने ही दौड़ते हुए निकल जाते थे। दूसरी बात महतत्व की यह है कि संसार में या संसार के बाहर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो श्रीभगवान की नहीं है और वे उसकी चोरी करते हैं। गोपियों का तो सर्वस्व श्रीभगवान का था ही, सारा जगत् ही उनका है। वे भला, किसकी चारी कर सकते हैं ? हाँ, चोर तो वास्तव में वे लोग हैं, जो भगवान की वस्तु को अपनी मानकर ममता-आसक्ति में फँसे रहते हैं और दण्ड के पात्र बनते हैं। उपर्युक्त सभी दृष्टियों से यही सिद्ध होता है कि माखनचोरी चोरी न थी, भगवान दिव्य-लीला थी। असल में गोपियों ने प्रेम की अधिकता से ही भगवान का प्रेम का नाम ‘चोर’ रख दिया था, क्योंकि वे उनके चितचोर तो थे ही।
    जो लोग भगवान श्रीकृष्ण को भगवान नहीं मानते, यद्यपि उन्हें श्रीमद्भागवत में वर्णित भगवान की लीला पर विचार करने कोई अधिकार नहीं है, परन्तु उनकी दृष्टि से भी इस प्रसंग में कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। क्योंकि श्रीकृष्ण उस समय लगभग दो-तीन वर्ष के बच्चे थे और गोपियाँ अत्यधिक स्नेह के कारण उनके ऐसे-ऐसे मधुर खेल देखना चाहती थीं। आशा है, इससे शंका करने वालों को कुछ सन्तोष होगा ।
    हनुमान प्रसाद पोद्दार
  2. मृद्-भक्षण के हेतु—
    1. भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि मुझमें शुद्ध सत्वगुण ही रहता है और आगे बहुत-से रजोगुणी कर्म करने हैं। उसके लिए थोडा-सा ‘रज’ संग्रह कर लें।
    2. संस्कृत-साहित्य में पृथ्वी का एक नाम ‘क्षमा’ भी है। श्रीकृष्ण ने देखा कि ग्वालबाल खुलकर मेरे साथ खेलते हैं; कभी-कभी अपमान भी कर बैठते हैं। उनके साथ क्षमांश धारण करके ही क्रीडा करनी चाहिये, जिससे कोई विघ्न न पड़े।
    3. संस्कृत-भाषा में पृथ्वी को ‘रसा’ भी कहते हैं। श्रीकृष्ण ने सोचा सब रस तो ले ही चुका हूँ, अब रसा-रस का आस्वादन करूँ।
    4. इस अवतार में पृथ्वी का हित करना है। इसलिये उसका कुछ अंश अपने मुख्य (मुख में स्थित) द्विजों (दाँतों) को पहले दान कर लेना चाहिये।
    5. ब्राम्हण शुद्ध सात्विक कर्म में लग रहे हैं, अब उन्हें असुरों का संहार करने के लिये कुछ राजस कर्म भी करने चाहिये। यह सूचित करने के लिये मानो उन्होंने अपने मुख में स्थित द्विजों को (दाँतों को) रज से युक्त किया।
    6. पहले विष भक्षण किया था, मिट्टी खाकर उसकी दवा की।
    7. पहले गोपियों का मक्खन खाया था, उलाहना देने पर मिट्टी खा ली, जिससे मुँह साफ हो जाय।
    8. भगवान श्रीकृष्ण के उदर में रहने वाले कोटि-कोटि ब्राम्हणों के जीव व्रज-रज—गोपियों के चरणों की रज—प्राप्त करने के लिये व्याकुल हो रहे थे। उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये भगवान ने मिट्टी खायी।
    9. भगवान स्वयं ही अपने भक्तों की चरण-रज मुख के द्वारा अपने ह्रदय में धारण करते हैं।
    10. छोटे बालक स्वभाव से ही मिट्टी खा लिया करते हैं।
  3. यशोदाजी जानती थीं कि इस हाथ ने मिट्टी खाने में सहायता की है। चोर का सहायक भी चोर ही है। इसलिये उन्होंने हाथ ही पकड़ा।
  4. भगवान ने नेत्र में सूर्य और चद्रमा का निवास है। वे कर्म के साक्षी हैं। उन्होंने सोचा कि पता नहीं श्रीकृष्ण मिट्टी खाना स्वीकार करेंगे कि मुकर जायँगे। अब हमारा कर्तव्य क्या है। इसी भाव को सूचित करते हुए दोनों नेत्र चकराने लगे।
    1. मा! मिट्टी खाने के सम्बन्ध में ये मुझ अकेले का ही नाम ले रहे हैं। मैंने खायी, तो सबने खायी, देख लो मेरे मुख में सम्पूर्ण विश्व!
    2. श्रीकृष्ण ने विचार किया कि उस दिन मेरे मुख में विश्व देखकर माता ने अपने नेत्र बंद कर लिये थे। आज भी जब मैं अपना मुँह खोलूँगा, तब यह अपने नेत्र बंद कर लेगी। यह विचार से मुख खोल दिया।

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