श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 25-30
दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय (पूर्वार्ध)
कन्हैया और बलदाऊ दोनों ही बड़े चंचल और बड़े खिलाड़ी थे। वे कहीं हरिन, गाय आदि सींग वाले पशुओं के पास दौड़ जाते, तो कहीं धधकती हुई आग से खेलने के लिए कूद पड़ते। कभी दाँत से काटने वाले कुत्तों के पास पहुँच जाते, तो कभी आँख बचाकर तलवार उठा लेते। कभी कूएँ या गड्ढे के पास जल में गिरते-गिरते बचते, कभी मोर आदि पक्षियों के निकट चले जाते और कभी काँटों की ओर बढ़ जाते थे।माताएँ उन्हें बहुत बरजतीं, परन्तु एक न चलती। ऐसी स्थिति में वे घर काम-धंधा भी नहीं संभाल पातीं। उनका चित्त बच्चों को भय की वस्तुओं से बचाने की चिन्ता से अत्यन्त चंचल रहता था । राजर्षे! कुछ ही दिनों में यशोदा और रोहिणी के लाड़ले लाल घुटनों का सहारा लिए बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुल में चलने-फिरने लगे[१]। ये व्रजवासियों के कन्हैया स्वयं भगवान हैं, परम सुन्दर और परम मधुर! अब वे और बलराम अपनी ही उम्र के ग्वालबालों को अपने साथ लेकर खेलने के लिए व्रज में निकल पड़ते और व्रज की भाग्यवती गोपियों को निहाल करते हुए तरह-तरह के खेल खेलते । उनके बचपन की चंचलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थीं। गोपियों को तो वे बड़ी ही सुन्दर और मधुर लगतीं। एक दिन सब-की-सब इकट्ठी होकर नन्द-बाबा के घर आयीं और यशोदा माता को सुना-सुनाकर कन्हैया के करतूत कहने लगीं । ‘अरी यशोदा! यह तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है। गाय दुहने का समय न होने पर भी यह बछड़ों को खोल देता है और हम डाँटती हैं, तो ठठा-ठठाकर हँसने लगता है। यह चोरी के बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मीठे-मीठे दही-दूध चुरा-चुराकर खा जाता है। केवल अपनी ही खाता तो भी एक बात थी, यह तो सारा दही-दूध वानरों को बाँट देता है और जब वे भी पेट भर जाने पर नहीं खा पाते, तब यह हमारे मतों को ही फोड़ डालता है। यदि घर में कोई वस्तु इसे नहीं मिलती तो यह घर और घरवालों पर बहुत खीझता है और हमारे बच्चों को रुलाकर भाग जाता है । जब हम दही-दूध को छीकों पर रख देतीं हैं और इसके छोटे-छोटे हाथ वहाँ तक नहीं पहुँच पाते, तब यह बड़े-बड़े उपाय रचता है। कहीं दो-चार पीढ़ो को एक के ऊपर एक रख देता है। कहीं उखल पर चढ़ जाता है तो कहीं उखल पर पीढ़ा रख देता है, (कभी-कभी तो आने किसी साथी के कंधे पर ही चढ़ जाता है।) जब इतने पर काम नहीं चलता, तब यह नीचे से ही उन बर्तनों में छेद कर देता है। इसे इस बात की पक्की पहचान रहती है कि किस छीके पर किस बर्तन में क्या रखा है। और ऐसे ढंग से छेड़ करना जानता है कि किसी को पता तक न चले। जब हम अपनी वस्तुओं को बहुत अँधेरे में छिपा देतीं हैं, तब नन्दरानी! तुमने जो इसे बहुत से मणिमय आभूषण पहना रखे हैं, उनके प्रकाश से अपने-आप ही सब कुछ देख लेता है। इसके शरीर में भी ऐसी ज्योति है कि जिससे इसे सब कुछ दीख जाता है। यह इतना चालाक है कि कब कौन कहाँ रहता है, इसका पता रखता है और जब हम सब घर के काम-धंधों में उलझी रहतीं हैं, तब यह अपना काम बना लेता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जब श्यामसुन्दर घुटनों का सहारा लिये बिना चलने लगे, तब वे अपने घर में अनेकों प्रकार की कौतुकमयी लीला करने लगे—
एक दिन साँवरे-सलोने व्रजराजकुमार श्री कन्हैयालालजी अपने सूने घर में स्वयं ही माखन चुरा रहे थे। उनकी सृष्टि मणि के खम्भे में पड़े हुए अपने प्रतिविम्ब पर पड़ी। अब तो वे डर गये। अपने प्रतिविम्ब से बोले—‘अरे भैया! मेरी मैया से कहियो मत। तेरा भाग भी मेरे बराबर ही मुझे स्वीकार है; ले, खा। खा ले, भैया!’ यशोदा माता अपने लाला की तोतली बोली सुन रही थीं।
उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे घर में भीतर घुस आयीं। माता को देखते ही श्रीकृष्ण ने अपने प्रतिविम्ब को दिखाकर बात बदल दी—
‘मैया! मैया! यह कौन है ? लोभ वश तुम्हारा माखन चुराने के लिए आज घर में घुस आया है। मैं मना करता हूँ तो मानता नहीं है और मैं क्रोध करता हूँ तो यह भी क्रोध करता है। मैया! तुम कुछ और मत सोचना। मेरे मन में माखन का तनिक लोभ नहीं है।’
अपने दुध-मुँहे शिशु की प्रतिभा देखकर मैया वात्सल्य-स्नेह के आनन्द में मग्न हो गयीं।
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एक दिन श्यामसुन्दर माता के बाहर जाने पर घर में ही माखन चोरी कर रहे थे। इतने में ही दैववश यशोदाजी लौट आयीं और अपने लाड़ले लाल को न देखकर पुकारने लगीं—
‘कन्हैया! कन्हैया! अरे ओ मेरे बाप! कहाँ है, क्या कर रहा है?’ माता की बात सुनते ही माखन चोर श्रीकृष्ण डर गये और माखन-चोरी से अलग हो गये। फिर थोड़ी देर चुप रहकर यशोदाजी से बोले—‘मैया, री मैया! यह जो तुमने मेरे कंकण में पद्मराग जड़ा दिया है, इसकी लपट से मेरा हाथ जल रहा था। इसी से मैंने इसे माखन के मटके में डालकर बुझाया था।’
माता यह मधुर-मधुर कन्हैया की तोतली बोली सुनकर मुग्ध हो गयीं और ‘आओ बेटा!’ ऐसा कहकर लाला को गोद में बैठा लिया और प्यार से चूमने लगीं।
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एक दिन माता ने माखन चोरी करने पर श्यामसुन्दर को धमकाया, डांटा-फटकारा। बस, दोनों नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गयी। कर-कमल से आँखें मलने लगे। ऊँ-ऊँ-ऊँ करके रोने लगे। गला रूँध गया। मुँह से बोला नहीं जाता था। बस, माता यशोदा का धैर्य टूट गया। अपने आँचल से अपने लाला कन्हैया का मुँह पोंछा और बड़े प्यार से गले लगाकर बोलीं—‘लाला! यह सब तुम्हारा ही है, यह चोरी नहीं है।’
एक दिन की बात है—पूर्ण चन्द्र की चाँदनी से मणिमय आँगन धुल गया था। यशोदा मैया के साथ गोपियों की गोष्ठी जुड़ रही थी। वहीं खेलते-खेलते कृष्ण चन्द्र की दृष्टि चन्द्रमा पर पड़ी। उन्होंने पीछे से आकर यशोदा मैया का घूँघट उतार लिया। और अपने कोमल करों से उनकी चोटी खोलकर खींचने लगे और बार-बार पीठ थपथपाने लगे। ‘मैं लूँगा, मैं लूँगा’—तोतली बोली से इतना ही कहते। जब मैया की समझ में बात नहीं आयी, तब उसने स्नेहार्द्र दृष्टि से पास बैठी ग्वालिनों की ओर देखा। अब वे विनय से, प्यार से फुसलाकर श्रीकृष्ण को अपने पास ले आयीं और बोलीं—‘लालन! तुम क्या चाहते हो, दूध!’ श्रीकृष्ण ‘ना’। ‘क्या बढ़िया दही ?’ ‘ना’। क्या खुरचन ?’ ‘ना’। ‘मलाई ?’ ‘ना’। ‘ताजा माखन ?’ ‘ना’ ग्वालिनों ने कहा—‘बेटा! रूठो मत, रोओ मत। जो माँगोंगे सो देंगी।’ श्रीकृष्ण ने धीरे से कहा—‘घर की वस्तु नहीं चाहिये’ और अँगुली उठाकर चन्द्रमा की संकेत कर दिया। गोपियाँ बोलीं—‘ओ मेरे बाप! यह कोई माखन का लौंदा थोड़े ही है ? हाय! हाय! हम यह कैसे देंगी ? यह तो प्यारा-प्यारा हंस आकाश के सरोवर में तैर रहा है।’ श्रीकृष्ण ने कहा—‘मैं भी तो खेलने के लिये इस हँस को माँग रहा हूँ, शीघ्रता करो। पार जाने के पूर्व ही मुझे ला दो।’
अब और भी मचल गये। धरती पर पाँव पीट-पीट कर और हाथों से गला पकड़-पकड़कर ‘दो-दो’ कहने लगे और पहले से भी अधिक रोने लगे। दूसरी गोपियों ने कहा—‘बेटा! राम-राम। इन्होंने तुमको बहला दिया है। यह राजहंस नहीं है, यह तो आकाश में ही रहने वाला चन्द्रमा है।’ श्रीकृष्ण हठ का बैठे—‘मुझे तो यही दो; मेरे मन में इसके साथ खेलने की बड़ी लालसा है। अभी, अभी दो। ‘जब बहुत रोने लगे, तब यशोदा माता ने उन्हें गोद में उठा लिया और प्यार करके बोलीं—‘मेरे प्राण! न यह राजहंस है और न तो चन्द्रमा। है यह माखन ही, परन्तु तुमने देने योग्य नहीं है। देखो, इसमें वह काला-काला विष लगा हुआ है। इससे बढ़िया होने पर भी इसे कोई नहीं खाता है।’ श्रीकृष्ण ने कहा—‘मैया! मैया! इसमें विष कैसे लग गया।’ बात बदल गयी। मैया ने लेकर मधुर-मधुर स्वर से कथा सुनाना प्रारम्भ किया। माँ-बेटे में प्रश्नोत्तर होने लगे।
यशोदा—‘लाला! एक क्षीरसागर है।’
श्रीकृष्ण—‘मैया! यह कैसा है।’
यशोदा—‘बेटा! यह जो तुम दूध देख रहे हो, इसी का एक समुद्र है।’
श्रीकृष्ण—‘मैया! कितनी गायों ने दूध दिया होगा जब समुद्र बना होगा।
यशोदा—‘कन्हैया! यह गाय का दूध नहीं है।’
श्रीकृष्ण—‘अरी मैया! तू मुझे बहला रही है, भला बिना गाय के दूध कैसे ?’
यशोदा—‘वत्स! जिसने गायों में दूध बनाया है, वह गाय के बिना भी दूध बना सकता है।’
श्रीकृष्ण—मैया! वह कौन है ?’
यशोदा—वह भगवान है; परन्तु अग (उसके पास कोई जा नहीं सकता। अथवा ‘ग’ कार रहित) हैं।’
श्रीकृष्ण—‘अच्छा ठीक है, आगे कहो।’
यशोदा—‘एक बार देवता और दैत्यों में लड़ाई हुई। असुरों को मोहित करने के लिये भगवान ने क्षीरसागर को मथा। मंदराचल की रई बनी। वासुकि नाग की रस्सी। एक ओर देवता लगे, दूसरी ओर दानव।’
श्रीकृष्ण—‘जैसे गोपियाँ दही मथती हैं, क्यों मैया ?’
यशोदा—‘हाँ बेटा! उसी से कालकूट नाम का विष पैदा हुआ।’
श्रीकृष्ण—‘मैया! विष तो साँपों में होता है, दूध में कैसे निकला ?’
यशोदा—‘बेटा! जब शंकर भगवान ने वही विष पी लिया, तब उसकी जो फुइयाँ धरती पर गिर पड़ी, उन्हें पीकर साँप विषधर हो गये। सो बेटा! भगवान की ही ऐसी कोई लीला है, जिससे दूध में से विष निकला।’
श्रीकृष्ण—‘अच्छा मैया! यह तो ठीक है।’
यशोदा—‘बेटा! (चन्द्रमा की ओर दिखाकर) यह मक्खन भी उसी से निकला है। इसलिये थोडा-सा विष इसमें भी लग गया। देखो, देखो, इसी को लोग कलंक कहते हैं। सो मेरे प्राण! तुम घर का ही मक्खन खाओ।’
कथा सुनते-सुनते श्यामसुंदर की आँखों में नींद आ गयी और मैया ने उन्हें पलंग पर सुला दिया।
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