"श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 35-43" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण:  द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः श्लोक 35-43 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण:  द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः श्लोक 35-43 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
हे शत्रुदमन! तत्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रम्हा से लेकर तिनके तक जितने प्राणी या पदार्थ हैं, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात् नित्यरूप से उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है । संसार के परिणामी पदार्थ नदी-प्रवाह और दीप-सिखा आदि क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। उसकी बदलती हुई अवस्थाओं को देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी कालरूप सोते के वेग में बहते-बदलते जा रहे हैं। इसलिये क्षण-क्षण में उनकी उत्पत्ति और प्रलय हो रहा है । जैसे आकाश में तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परन्तु उनकी गति स्पष्टरूप से नहीं दिखायी पड़ती, वैसे ही भगवान् के स्वरुपभूत अनादि-अनन्त काल के कारण प्राणियों की प्रतिक्षण होने वाली उत्पत्ति और प्रलय का भी पता नहीं चलता । परीक्षित्! मैंने तुमसे चार प्रकार के प्रलय का वर्णन किया; उनके नाम हैं—नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तव में काल की सूक्ष्म गति ऐसी ही है ।
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हे शत्रुदमन! तत्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रम्हा से लेकर तिनके तक जितने प्राणी या पदार्थ हैं, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात् नित्यरूप से उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है । संसार के परिणामी पदार्थ नदी-प्रवाह और दीप-सिखा आदि क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। उसकी बदलती हुई अवस्थाओं को देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी कालरूप सोते के वेग में बहते-बदलते जा रहे हैं। इसलिये क्षण-क्षण में उनकी उत्पत्ति और प्रलय हो रहा है । जैसे आकाश में तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परन्तु उनकी गति स्पष्टरूप से नहीं दिखायी पड़ती, वैसे ही भगवान  के स्वरुपभूत अनादि-अनन्त काल के कारण प्राणियों की प्रतिक्षण होने वाली उत्पत्ति और प्रलय का भी पता नहीं चलता । परीक्षित्! मैंने तुमसे चार प्रकार के प्रलय का वर्णन किया; उनके नाम हैं—नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तव में काल की सूक्ष्म गति ऐसी ही है ।
हे कुरुश्रेष्ठ! विश्वविधाता भगवान् नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियों के आश्रय हैं। जो कुछ मैंने संक्षेप से कहा है, वह सब उन्हीं की लीला-कथा है। भगवान् की लीलाओं का पूर्ण वर्णन तो स्वयं ब्रम्हाजी भी नहीं कर सकते ।
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हे कुरुश्रेष्ठ! विश्वविधाता भगवान  नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियों के आश्रय हैं। जो कुछ मैंने संक्षेप से कहा है, वह सब उन्हीं की लीला-कथा है। भगवान  की लीलाओं का पूर्ण वर्णन तो स्वयं ब्रम्हाजी भी नहीं कर सकते ।
जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागर से पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकार के दुःख-दावानल से दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पुरुषोत्तम भगवान् की लीला-कथा रूप रस के सेवन के अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौका नहीं है। ये केवल लीला-रसायन का सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं । जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद्भागवत महापुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायण ने पहले देवर्षि नारद को सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कृष्णद्वैपायन को । महाराज! उन्हीं बदरीवनविहारी भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन ने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य श्रीभागवत सहिंता का उपदेश किया । कुरुश्रेष्ठ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य क्षेत्र में बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके प्रश्न करने पर पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी उन लोगों को इस सहिंता का श्रवण करायेंगे ।
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जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागर से पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकार के दुःख-दावानल से दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पुरुषोत्तम भगवान  की लीला-कथा रूप रस के सेवन के अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौका नहीं है। ये केवल लीला-रसायन का सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं । जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद्भागवत महापुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायण ने पहले देवर्षि नारद को सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कृष्णद्वैपायन को । महाराज! उन्हीं बदरीवनविहारी भगवान  श्रीकृष्णद्वैपायन ने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य श्रीभागवत सहिंता का उपदेश किया । कुरुश्रेष्ठ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य क्षेत्र में बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके प्रश्न करने पर पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी उन लोगों को इस सहिंता का श्रवण करायेंगे ।
  
  

१२:४७, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः (4)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः श्लोक 35-43 का हिन्दी अनुवाद

हे शत्रुदमन! तत्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रम्हा से लेकर तिनके तक जितने प्राणी या पदार्थ हैं, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात् नित्यरूप से उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है । संसार के परिणामी पदार्थ नदी-प्रवाह और दीप-सिखा आदि क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। उसकी बदलती हुई अवस्थाओं को देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी कालरूप सोते के वेग में बहते-बदलते जा रहे हैं। इसलिये क्षण-क्षण में उनकी उत्पत्ति और प्रलय हो रहा है । जैसे आकाश में तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परन्तु उनकी गति स्पष्टरूप से नहीं दिखायी पड़ती, वैसे ही भगवान के स्वरुपभूत अनादि-अनन्त काल के कारण प्राणियों की प्रतिक्षण होने वाली उत्पत्ति और प्रलय का भी पता नहीं चलता । परीक्षित्! मैंने तुमसे चार प्रकार के प्रलय का वर्णन किया; उनके नाम हैं—नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तव में काल की सूक्ष्म गति ऐसी ही है । हे कुरुश्रेष्ठ! विश्वविधाता भगवान नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियों के आश्रय हैं। जो कुछ मैंने संक्षेप से कहा है, वह सब उन्हीं की लीला-कथा है। भगवान की लीलाओं का पूर्ण वर्णन तो स्वयं ब्रम्हाजी भी नहीं कर सकते । जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागर से पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकार के दुःख-दावानल से दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पुरुषोत्तम भगवान की लीला-कथा रूप रस के सेवन के अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौका नहीं है। ये केवल लीला-रसायन का सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं । जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद्भागवत महापुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायण ने पहले देवर्षि नारद को सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कृष्णद्वैपायन को । महाराज! उन्हीं बदरीवनविहारी भगवान श्रीकृष्णद्वैपायन ने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य श्रीभागवत सहिंता का उपदेश किया । कुरुश्रेष्ठ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य क्षेत्र में बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके प्रश्न करने पर पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी उन लोगों को इस सहिंता का श्रवण करायेंगे ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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