श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 30-37
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द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः (2)
इस प्रकार योगी पंचभूतों के स्थूल-सूक्ष्म आवरणों को पार करके अहंकार में प्रवेश करता है। वहाँ सूक्ष्म भूतो को तामस अहंकार में, इन्द्रियों को राजस अहंकार में तथा मन और इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं को सात्विक अहंकार में लीन कर देता है। इसके बाद अहंकार के सहित लयरूप गति के द्वारा महतत्व में प्रवेश करके अन्त में समस्त गुणों के लयस्थान प्रकृति रूप आवरण में जा मिलता है । परीक्षित्! महाप्रलय के समय प्रकृति रूप आवरण का भी लय हो जाने पर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरुप होकर अपने उस निवारण उप से आनन्दस्वरुप शान्त परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जिसे इस भगवन्मयी गति की प्राप्ति हो जाती है उसे फिर इस संसार में नहीं आना पड़ता । परीक्षित्! तुमने जो पूछा था, उसके उत्तर में मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्दोमुक्ति और क्रममुक्ति का तुमसे वर्णन किया। पहले ब्रम्हाजी ने भगवान वासुदेव की आरधना करके उनसे जब पश्न किया था, तब उन्होंने उत्तर में इन्हीं दोनों मार्गों की बात ब्रम्हाजी से कही थी ।
संसारचक्र में पड़े हुए मनुष्य के लिये जिस साधन के द्वारा उसे भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है । भगवान ब्रम्हा ने एकाग्रचित्त से सारे वेदों का तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धि से यही निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम प्राप्त हो वही सर्वश्रेष्ठ धर्म हैं ।
समस्त चर-अचर प्राणियों में उनके आत्मारूप से भगवान श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि ये बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ उनका अनुमान कराने वाले लक्षण हैं, वे इन सबके साक्षी एकमात्र द्रष्टा हैं । परीक्षित्! इसलिये मनुष्यों को चाहिये कि सब समय सभी स्थितियों में अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि का ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करे । राजन्! संत पुरुष आत्मस्वरुप भगवान की कथा का मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कान के दोनों में भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके ह्रदय से विषयों का विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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