श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 21-29

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द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः (2)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 21-29 का हिन्दी अनुवाद
भगवान के स्थूल और सूक्ष्मरूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्दोमुक्ति का वर्णन

तदनन्तर दो आँख, दो कान, दो नासाछिद्र और मुख—इन सातों छिद्रों को रोककर उस तालुमूल में स्थित वायु को भौंहों के बीच आज्ञाचक्र में ले जाय। यदि किसी लोक में जाने की इच्छा न हो तो आधी घड़ी तक उस वायु को वहीं रोककर स्थिर लक्ष्य के साथ उसे सहस्त्रासर में ले जाकर परमात्मा में स्थित हो जाय। इसके बाद ब्रम्हरन्ध्र का भेदन करके शरीर-इन्द्रियादि को छोड़ दे । परीक्षित्! यदि योगी की इच्छा हो कि मैं ब्रम्हलोक में जाऊँ, आठों सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धों के साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रम्हाण के किसी भी प्रदेश में विचरण करूँ तो उसे मन और इन्द्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना चाहिये । योगियों का शरीर वायु की भाँति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञान का सेवन करने वाले योगियों को त्रिलोकी के बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूप से विचरण करने का अधिकार होता है। केवल कर्मों के द्वारा इस प्रकार बरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता । परीक्षित्! योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णा के द्वारा जब ब्रम्हलोक के लिये प्रस्थान करता है, तब पहले वह आकाश मार्ग से अग्नि लोक में जाता है; वहाँ उसके बचे-खुचे मल भी जल जाते हैं। इसके बाद वह वहाँ से ऊपर भगवान श्रीहरि के शिशुमार नामक ज्योतिर्मयचक्र पर पहुँचता है । भगवान विष्णु का यह शिशुमारचक्र विश्व-ब्रम्हाण्ड के भ्रमण का केन्द्र है। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त सूक्ष्म एवं निर्मल शरीर से व अकेला ही महर्लोक में जाता है। वह लोक वेत्ताओं के द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्प पर्यन्त जीवित रहने वाले देवता विहार करते रहते हैं । फिर जब प्रलय का समय आता है, तब नीचे के लोकों को शेष के मुख से निकली हुई आग के द्वारा भस्म होते देख वह ब्रम्हलोक में चला जाता है, जिस ब्रम्हलोक में बड़े-बड़े सिद्धेश्वर विमानों पर निवास करते हैं। उस ब्रम्हलोक की आयु ब्रम्हा की आयु के समान ही दो परार्द्ध की है । वहाँ न शोक है न दुःख, न बुढ़ापा है न मृत्यु। फिर वहाँ किसी प्रकार का उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है। वहाँ यदि दुःख है तो केवल एक बात का। वह यही है कि इस परम पद को न जानने वाले लोगों के जन्म-मृत्युमय अत्यन्त घोर संकटों को देखकर दयावश वहाँ के लोगों के मन में बड़ी व्यथा होती है । सत्यलोक में पहुँचने के पश्चात् वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी से मिला देता है और फिर उतावली न करते हुए सात आवरणों का भेदन करता है। पृथ्वी रूप से जल को और जल रूप से अग्निमय आवरणों को प्राप्त होकर वह ज्योति रूप से वायु रूप आवरणों में आ जाता है और वहाँ से समय पर ब्रम्ह की अनन्तता का बोध कराने वाले आकाश रूप आवरणों को प्राप्त करता है । इस प्रकार स्थूल आवरणों को पार करते समय उसकी इन्द्रियाँ भी अपने सूक्ष्म अधिष्ठान में लीन होती जाती हैं। घ्राणेन्द्रिय गन्धतन्मात्रामें, रसना रसतन्मात्रा में, नेत्र रूपतन्मात्रा में, त्वचा स्पर्शतन्मात्रा में, श्रोत्र शब्दतन्मात्रा में और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रिया शक्ति में मिलकर अपने-अपने सूक्ष्मस्वरुप को प्राप्त हो जाती हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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