श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 15-25

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द्वितीय स्कन्ध: तृतीय अध्यायः (3)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद
कामनाओं के अनुसार विभिन्न देवताओं की उपासना तथा भगवद्भक्ति के प्राधान्य का निरूपण


पाण्डुनन्दन महारथी राजा परीक्षित् बड़े भगवद्भक्त थे। बाल्यावस्था में खिलौनों से खेलते समय भी वे श्रीकृष्ण लीला का ही रस लेते थे । भगवन्मय श्रीशुकदेवजी भी जन्म से ही भगवत्परायण हैं। ऐसे संतों के सत्संग में भगवान के मंगलमय गुणों की दिव्य चर्चा अवश्य ही हुई होगी । जिसका समय भगवान श्रीकृष्ण के गुणों के गान अथवा श्रवण में व्यतीत हो रहा है, उसके अतिरिक्त सभी मनुष्यों की आयु व्यर्थ जा रही है। ये भगवान सूर्य प्रतिदिन अपने उदय और अस्त से उनकी आयु छीनते जा रहे हैं । क्या वृक्ष नहीं जीते ? क्या लुहार की धौंकनी साँस नहीं लेती ? गाँव के अन्य पालतू पशु क्या मनुष्य—पशु की ही तरह खाते-पीटे या मैथुन नहीं करते ? जिसके कान में भगवान श्रीकृष्ण की लीला-कथा नहीं पड़ी, वह नर पशु, कुत्ते ग्रामसूकर, ऊँट और गधे से भी गया बीता है । सूतजी! जो मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की कथा कभी नहीं सुनता, उसके कान बिल के समान हैं। जो जीभ भगवान की लीलाओं का गायन नहीं करती, वह मेढक की जीभ के समान टर्र-टर्र करने वाली हैं; उसका तो न रहना ही अच्छा है । जो सिर कभी भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में झुकता नहीं, वह रेशमी वस्त्र से सुसज्जित और मुकुट से युक्त होने पर भी बोझामात्र ही है। जो हाथ भगवान की सेवा-पूजा नहीं करते, वे सोने के कंगन से भूषित होने पर भी मुर्दे के हाथ हैं । जो आँखें भगवान की याद दिलाने वाली मूर्ति, तीर्थ, नदी आदि का दर्शन नहीं करतीं, वे मोरों की पाँख में बने हुए आँखों के चिन्ह के समान निरर्थक हैं। मनुष्यों के वे पैर चलने की शक्ति रखने पर भी न चलने वाले पेड़ों-जैसे ही हैं, जो भगवान की लीला-स्थलियों की यात्रा नहीं करते । जिस मनुष्य ने भगवत्प्रेमी संतों के चरणों की धूल कभी सिर पर नहीं चढ़ायी, वह जीता हुआ भी मुर्दा है। जिस मनुष्य ने भगवान के चरणों पर चढ़ी हुई तुलसी की सुगन्ध लेकर उसकी सराहना नहीं की, वह श्वास लेता हुआ भी श्वासरहित शव है । सूतजी! वह ह्रदय नहीं लोहा है, जो भगवान के मंगलमय नामों का श्रवण-कीर्तन करने पर भी पिघलकर उन्हीं की ओर बह नहीं जाता। जिस समय ह्रदय पिघल जाता है, उस समय नेत्रों में आँसू छलकने लगते हैं और शरीर का रोम-रोम खिल उठता है । प्रिय सूतजी! आपकी वाणी हमारे हृदय को मधुरता से भर देती है। इसलिये भगवान के परम भक्त, आत्मविद्या-विशारद श्रीशुकदेवजी ने परीक्षित् के सुन्दर प्रश्न करने पर जो कुछ कहा, वह संवाद आप कृपा करके हम लोगों को सुनाइये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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