गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 187

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गीता-प्रबंध
19.समत्व

जिस प्रकार तामसिक निवृत्ति प्रकृति के जगुप्सा तत्व का, अर्थात दुःख से आत्मसंरक्षण का फैलाव है उसी प्रकार उध्र्वमुखी राजसिक प्रवृत्ति संघर्ष और प्रयास को स्वीकार करने वाले तथा प्रभुत्व और विजय प्राप्त करने के लिय जीवन की अंतर्निहित प्रेरणा को स्वीकार करने वाले प्रकृति के दूसरे तत्व का फैलाव है; पर यह प्रवृत्ति युद्ध को उस क्षेत्र की ओर मोड़ देती है जो पूर्ण विजय लाभ का एकमात्र क्षेत्र है। कुछ छितरे हुए बाह्म उद्देश्यों और क्षणिक सफलताओं के लिये लड़ने - झगड़ने के बजाय यह साधना साधक को आध्यात्मिक युद्ध के द्वारा और आंतरिक विजय के द्वारा प्रकृति और स्वयं जगत् को ही विजित करने के रास्ते पर ले आती है। तामसिक निवृत्ति जगत् के सुख और दुःख , दोनों से किनारा काटती तथा उनसे भगना चाहती है और राजसिक साधना उन्हें सहने , उन्हें काबू में करने और उनसे ऊपर उठने का रास्ता निकालती है। स्टोइक आत्मनियंत्रण कामना और प्राणवेग को अपने योद्धाभाव में समलिंगित करता है और उन्हें अपनी भुजाओं के बीच चूर - चूर कर देता है जैसे महाभारत में धृतराष्ट्र ने भीम की लौह प्रतिमा को चूर - चूर कर डाला था।
यह संयम का मार्ग सुखद और दुःखद सभी चीजों के धक्कों को सहता , प्रकृति के भौतिक और मानसिक असर के करणों को बरदाश्त करता और उनके परिणमों को चकनाचूर कर डालता है। इसकी पूर्णता तब समझनी चाहिये जब जीव बिना दुःखी या आकर्षित हुए, बिना उत्तेजित या व्याकुल हुए सब स्पर्शों को सह सके। इस साधना का हेतु मनुष्य को अपनी प्रकृति का विजेता और राजा बनाना है। गीता अर्जुन के क्षात स्वभाव का आवाहन करके इसे वीरोचित साधना से अपना उपदेश आरंभ करती है। गीता अर्जुन का आवाहन करती है कि तुम इस महाशत्रु कामना पर टूट पड़ो और इसे मार डालो। गीता ने समत्व का जो पहला वर्णन किया है वह स्टोइक दार्शनिक के वर्ण के जैसा ही है। ‘‘दुःखों के बीच जिसका मन उद्विग्न नहीं होता , सुखों के बीच उनकी इच्छा नहीं होती , राग , भय , क्रोध जिससे निकल गये वही स्थितधी मुनि है। जो , चाहे उसे शुभ प्राप्त हो या अशुभ, सभी विषयों में स्नेहशून्य रहता है, न उनका हर्षपूर्ण स्वागत करता न उससे द्वेष करता है उसीकी बुद्धि ज्ञान में स्थित है।”१ गीता ने एक स्थूल दृष्टांत देकर समझाया है कि यदि मनुष्य आहार न करे तो यह इनिद्रय - विषय उस पर असर न करेगा, पर इन्द्रिय में ‘रस‘ तो रहेगा ही ; आत्मा की परम स्थिति तो तब प्राप्त हेती है जब इन्द्रिय से विषय ग्रहण करते हुए भी वह इन्द्रियभोग की लालसा से मुक्त रह सके, विषयों के मोह को छोड़ सके और आस्वादन के सुख का त्याग कर सके। राग - द्वेष से मुक्त, आत्मवशीकृत ज्ञानेंद्रियों के द्वारा विषयों के ऊपर विचरण करते हुए ही मनुष्य आत्मा और स्वभाव की उदार और मधुर पिवत्रता को प्राप्त कर सकता है , जिसमें काम , क्रोध और शोक - मोह के लिये काई स्थान नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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