गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 228

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गीता-प्रबंध
23.निर्वाण और संसार में कर्म

काम - क्रोधादि दोषों के दागों से सर्वथा मुक्त होना और यह मुक्ति जिस समत्व - बुद्धि के आत्मवशित्व पर अपना आधार रखती है उस आत्मवशित्व का होना, सब भूतों के प्रति समत्व का होना, सबके प्रति कल्याणकारी प्रेम का होना, अज्ञानजनित जो संशय और अंधकार , सर्वेक्यसाधक भगवान् से और हमारे अंदर और सबके अंदर जो ‘एक’ आत्मा है उसके ज्ञान से हमको अलग करके रखते हैं उनका सर्वदा नाश हो जाना , ये सब स्पष्ट ही निर्वाण की अवस्थाएं हैं जो गीता के इन श्लोकों में बतलायी गयी हैं, इन्हींसे निर्वाण -पद सिद्ध होता है और ये ही उसके आध्यात्मिक तत्व हैं।इस प्रकार निर्वाण स्पष्ट ही जगत् - चैतन्य और संसार के कर्मो के साथ विसंगत नहीं है। क्योंकि जो ऋषि निर्वाण को प्राप्त हैं वे इस क्षर जगत् में भगवान् को प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और कर्मो के द्वारा उनके साथ अति निकट संबंध बनाये रखते हैं; वे सब भूतों के कल्याण में लगे रहते हैं। क्षर पुरूष की अनुभूतियों को उन्होनें त्याग नहीं दिया है, बल्कि उन्हें दिव्य बना दिया है ‘गीता कहती है कि क्षर पुरूष ही सर्वभूतानि है, और सब भूतों का कल्याण करना प्रकृति की क्षरता के अदर एक भागवत कर्म है।
संसार में कर्म करना ब्राह्मी स्थिति से विसंगत नहीं है, बल्कि उस अवस्था की अपरिहार्य शर्त और ब्रह्म परिणाम है, क्योंकि जिस ब्रह्म में निर्वाण लाभ किया जाता है वह ब्रह्म, जिस आत्म - चैतन्य में हमारा पृथक् अहंभाव विलीन हो जाता है वह आत्म -चैतन्य केवल हमारे अंदर ही नहीं है, बल्कि इन सब भूत प्राणियों में भी है। वह इन सब जगत् - प्रपंचों से केवल पृथक् और इनके ऊपर ही नहीं है, बल्कि इन सबमें व्याप्त है; इन्हें धारण किये हुए है और इनमें प्रसारित है। इसलिये ब्रह्मनिर्वाण - पद का अर्थ उसी सीमित पृथक्कारी चेतना का नाश या निर्वाण समझाना होगा जो सारे भ्रम और भेदभव का कारण है और जो जीवन के बाह्म स्तर पर त्रिगुणात्मिका निम्नतर माया की एक रचनामात्र है। और इस निर्वाण - पद में प्रवेश उस एकत्वसाधक परम सच्चैतन्य की प्राप्ति का रास्ता है जो समस्त सृष्टि का हृदय और आधार है, और जो उसका सर्वसमाहारक , सर्वसहायक, समग्र मूल सनातन परम सत्य है। जब हम निर्वाण लाभ करते और उसमे प्रवेश करते हैं तब निर्वाण केवल हमारे अंदर ही नहीं रहता बल्कि हमारे चारों ओर भी रहता है, क्योंकि यह केवल यह ब्रह्म - चैतन्य नहीं है जो हमारे अंदर गुप्त रूप से रहता है, बल्कि यह वह ब्रह्म - चैतन्य है जिसमें हम सब रहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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