गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 318

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:१६, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण ('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म,...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म , भक्ति और ज्ञान

भगवान कहते हैं कि , ‘‘ यदि कोई महान् दुराचारी भी हो और वह अनन्य और संपूर्ण प्रेम के साथ मेरी ओर देखे तो उसे साधु ही समझना चाहिये , उसकी प्रवृत्तिशील संकल्पशक्ति स्थिरभाव से और पूर्ण रूप से ठीक रास्ते पर आ गयी है। वह जल्द धर्मात्मा बन जाता और शास्वती शांति लाभ करता है।”[१]अर्थात् पूर्ण आत्समर्पण करनेवाला मन आत्मा के सब द्वार परे खोल देता है और आत्मसमर्पण के जवाब में मनुष्य के अंदर भगवान का अवतरण और आत्मदान ले आता है और इसे निम्न प्रकृति के परा आत्म - प्रकृति में अति शीघ्र रूपांतर - साधन के द्वारा हमारे अंदर जो कुछ है वह भागवती सत्ता के विधान के अनुरूप और तद्रूप हो जाता है। आत्मसमर्पण का संकल्प अपनी शक्ति से ईश्वर और मनुष्य के बीच के परदे को हटा देता है ; प्रत्येक भूल को मिटा देता और प्रत्येक विघ्न को नष्ट कर डालता है। जो लोग अपनी मानवी शक्ति के भरोसे ज्ञान - साधन या पुण्यकर्म अथवा कठोर तप के द्वारा उस महत्पद को लाभ करने की इच्छा करते हैं वे बडे़ कष्अ से अपने रास्ते पर आगे बढ़ पाते हैं ; परंतु जीव जब अपने अहंकार और कर्मों को भगवान् को समर्पित कर देता है तब भगवान् स्वयं चले आते हैं और हमारा बोझ उठा लेते हैं। अज्ञानी को वे दिव्य ज्ञान का आलोक , दुर्बल को दिव्य संकल्प का बल , पापात्मा को दिव्य पवित्रता की मुक्तिदायिनी स्थिति , दुःखी को अनंत आत्मसुख और आनंद ला देते हैं।
जीव की दुर्बलता और उसके मानवी बल का लड़खड़ाना उनकी इस कृपा में कोई फर्क नहीं लाता। ‘‘यही मेरी प्रतिज्ञा है” , अर्जुन से भगवान् स्वयं कहते हैं कि , ‘‘ जो कोई मेरी भक्ति करता है उसका नाश नहीं होता।”[२]पहले का प्रयास और तैयारी , जैसे ब्राह्मण की शुचिता और पवित्रता , कर्म और ज्ञान में श्रेष्ठ राजर्षि का प्रबुद्ध बल इत्यादि का इसलिये महत्व है कि इनसे प्राकृत मानवजीव के लिये यह विशाल दर्शन पाना और आत्मसमर्पण करना सरल होता है ; परंतु इस प्रकार की तैयारी के बिना भी जो कोई इन मनुष्य - पे्रमी भगवान् की शरण लेते हैं वे चाहै वैश्य हों जो जो किसी समय धनोपार्जन तथा उत्पादन - श्रम के तंग दायरे के अंदर फंसे रहा करते थे या शुद्र हों जो सहस्त्रों कठोर प्रतिबंधों में आबद्ध रहते थे या स्त्री जाति हों जिसके आत्मविस्तार के चारों ओर समाज ने एक संकुचित घेरा खींच रखा है ओर इस कारण जिसकी उन्नति का मार्ग बराबर रूद्ध और प्रतिहत रहा है , ये ही क्यों बल्कि वे पापयोनि भी जिनके ऊपर पूर्व - कर्म ने खराब जन्म लाद दिया है , जो जाति बहिष्कृत हैं , परिया - चाण्डाल हैं वे भी अपने सामने भगवान् के पट खुले हुए पाते हैं ।आध्यात्मिक जीवन में वे सब बाह्य भेद जिन्हें मनुष्य इतना अधिक मानते हैं , क्योंकि वे बहिर्मुख मन को बरबस अपनी ओर खींचते हैं , भागवत ज्योति की समता और पक्षपातरहित शक्ति की सर्वशक्तिमत्ता के सामने बिलकुल हवा हो जाते हैं।[३]


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9.30 - 31
  2. 9. 31
  3. 9.30 -32

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध