गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 67

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०९:४०, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण (गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-67 का नाम बदलकर गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 67 कर दिया गया है: Text replace - "गीता प्...)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

गुरू अर्जुन की कठिनाइयों का पहला उत्तर संक्षेप में दे चुके , अब वे दूसरे उत्तर की ओर मुड़ते है और उनके मुंह से एक आध्यात्मिक समाधान करने वाले जो पहले शब्द निकलते हैं उनमें तुरंत वे यह बताते हैं कि सांख्य और योग में एक भेद है, जिसको जान लेना गीता को समझने के लिये अत्यंत आवश्यक है। भगवान् कहते हैं कि “यह बुद्धि (अर्थात् वस्तुओं और संकल्प का बुद्धिगत ज्ञान ) तुझे सांख्य में बता दी, अब इसे योग में सुन , इस बुद्धि से यदि तू योग में स्थित रहे , तो हे पार्थ , तू कर्म बंधन को छुड़ा सकेगा।“ जिन शब्दों से गीता इस भेद को सूचित करती है उनका यह शब्दश: अनुवाद है । गीता मूलतः वेदांत - ग्रंथ है । वेदांत के जो तीन सर्वमान्य प्रमाण ग्रंथ हैं उनमे से गीता है । श्रुति में अवश्य ही इसकी गणना नहीं की जाती, क्योंकि इसकी प्रतिपादन शैली बहुत कुछ बौद्धिक ,तार्किक और दार्शनिक है, फिर भी इसका आधार परम सत्य ही है, लेकिन यह वह श्रुति , वह मंत्रदर्शन नहीं है जो ज्ञान की उच्च भूमिका में द्रष्टा को स्वतः प्राप्त होता है तथपि इसका इतना अधिक आदर है कि यह ग्रंथ लगभग तेरहवीं उपनिष्द् ही माना जाता है।
परंतु इसके वैदांतिक विचार आरंभ से अंत तक सांख्य और योग के विचार से अच्छी तरह रगे हुए हैं और इस रंग के कारण इसके दर्शन पर एक विलक्षण समन्वय की छाप आ गयी है। वास्तव में यह मूलतः योग की क्रियात्मक पद्धति का उपदेश है, और जो तात्विक विचार इसमें आये हैं वे इसके योग की व्यावहारिक व्याख्या करने के ही लिये गये हैं । यह केवल वेदांत - ज्ञान का ही निरूपण नहीं , बल्कि कर्म को ज्ञान और भक्ति की नींव पर खडा करती और फिर कर्म को उसकी परिणति ज्ञान तक उठाकर उसे भक्ति से अनुप्राणित करती है जो कर्म का हृदय और उसके भव का सारतत्व है । फिर गीता का योग विश्लेषणात्मक साख्यदर्शन पर स्थापित है, सांख्य को वह अपना आरंभस्थल बनाता है और उसकी पद्धति और उसके मत में सांख्य को बराबर ही एक बड़ा स्थान प्राप्त है, तथापि गीता का यह योग सांख्य के बहुत आगे जाता है , यहां तक कि सांख्य की कुछ विशिष्ट बातों का यह योग सांख्य के बहुत आगे जाता है , यहां तक कि सांख्य की कुछ विशिष्ट बातों को अस्वीकार करके यह एक ऐसा उपाय बताता है जिससे सांख्य विश्लेषणात्मक कनिष्ठ ज्ञान के साथ उच्चतर समन्वयात्मक और वैदांतिक सत्य का सम्मिलन साधित होता है। तब फिर, गीता के ये सांख्य और योग क्या हैं ?


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध