जहाज़ निर्माण के सिद्धांत

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लेख सूचना
जहाज़ निर्माण के सिद्धांत
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 444
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक ओंकार नाथ शर्मा

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जहाज निर्माण के सिद्धांत जब कोई ठोस पदार्थ पूरा पूरा, अथवा उसका कोई भाग, द्रव में डुबोया जाता है तब उसका भार कम मालूम पड़ता है। यह कमी उस ठोस के द्वारा हटाए हुए द्रव के भार के बराबर होती है। इस सिद्धांत की खोज सबसे पहले आर्किमिडीज़ ने की थी। जहाज लोहे के बने होने पर भी पानी पर तैरते रहते हैं, क्योंकि कुल जहाज को यदि एक इकाई मान लिया जाय तो उसका समग्र आपेक्षिक घनत्व पानी के आपेक्षिक घनत्व से कम होता है। इसका कारण यह है कि जहाज के समग्र आयतन का बहुत कुछ भाग हवा से भरा होता है। तैरते हुए जहाज तथा उसके सामान का समग्रभार, उसके द्वारा विस्थापित पानी के उत्प्लावक बल के बराबर होता है। विस्थापित द्रव का आयतन जहाज के डूबे हुए भाग के आयतन के बराबर होता है, अत: उत्प्लावक बल जहाज के डूबे हुए भाग के समग्र आयतन और द्रव के घनत्व पर निर्भर करता है। यदि नदी के पानी का आपेक्षिक घनत्व 1 मान लिया जाय तो समुद्री पानी का आपेक्षिक घनत्व 1.03 होगा, अर्थात्‌ यदि नदी के 35,967 घन फुट पानी का भार एक टन होता है, तो समुद्री पानी के 35 घन फुट ही का भार एक टन के बराबर होगा, अर्थात्‌ जहाज नदी के पानी की अपेक्षा समुद्री पानी में अधिक ऊँचे उठकर तैरेंगे। हम देखते है कि नौकाएँ या जहाज पानी पर बिल्कुल स्थिरता से नहीं रह सकते। पानी की लहरों तथा हवा के कारण सदैव कुछ न कुछ डगमगाते रहा करते हैं, अत: इस विषय पर इस निबंध में उनकी स्थिरता आदि गुणों पर संक्षेप में विचार करेंगे।

जहाज का लुंठन और तारत्व (Rolling & Pitching of Ships)

जहाजों की अभिकल्पना करते समय उनके लुंठन तथा तारत्व पर सबसे पहले विचार करना आवश्यक होता है। जैसे कि प्रत्येक पेंडुलम के एक दोलन का निश्चित समय होता है, वैसे ही प्रत्येक जहाज के लहरों पर लुंठन करने का एक समय होता है और इसी प्रकार समुद्री लहरों का भी। संयोगवश जब दोनों की लुंठन अवधियाँ संपाती (coincident) हो जाती है तब अन्य अवसरों की अपेक्षा लुंठनगति सबसे अधिक होती है, जिसकी मात्रा लहरों की ऊँचाई और शक्ति पर निर्भर करती है। जब जहाज लहरों के कारण एक ओर को झुकता है तब उसके बाहरी आवरणपटों, पंजर, स्थूणाओं (beams) आदि पर पड़नेवाले बलों की मात्रा बदलने लगती है। जहाज को हम एक यौगिक पेंडुलम के समान समझकर उसके लुंठन की अवधि निम्नलिखित सूत्र से जान सकते हैं : t = 2 pie k/Ö lg, जिसमें k उसके गुरुत्वकेंद्र के विचार से घूर्णनत्रिज्या (radius of gyration), 1 गुरुत्वकेंद्र से चलकेंद्र (Metacentre) की ऊँचाई, t = लुंठन का समय और g = 32.2। चित्र 1. में क त छ ता घ जहाज के मध्य परिच्छेद की रूपरेखा है, जिसमें पठाण छ सीधी हालत में है। इसमें त ता समुद्री पानी की सतह, ग गुरुत्वकेंद्र और ख विस्थापित जल का उत्प्लावक केंद्र हैं। जब जहाज पानी पर सीधा तैरता है, उस समय उसका त छ ता भाग पानी में डूबा रहता है, अर्थात्‌ जहाज का ऊपर उठानेवाला उत्प्लावक बल जहाज के भारत के कारण उत्पन्न नीचे डुबानेवाले बल के बराबर होता है। अत: गुरुत्व केंद्र ग और उत्पलावक केंद्र ख दोनों एक ही उर्ध्वाधर रेखा ज छ पर स्थित रहते हैं और जहाज के समस्त अवयवों पर पड़नेवाले प्रतिबल समविभाजित तथा संतुलित अवस्था में रहते हैं। इस समय जहाज के आवरण पर पड़नेवाला समुद्री पानी का दबाव उसे पिचकाने की चेष्टा करता है और भीतरी ढाँचा

चित्र:40665-4.jpg
जहाज का लुंठन और तारत्व

चित्र. 1-2 उसका विरोध करता है। जहाज के ढाँचे पर इस प्रकार से जितने भी बल और प्रतिबल पड़ते हैं वे सब त छ ता क्षेत्र तक ही सीमित रहते हैं, जिनकी मात्रा विविध लंबाई के बाणों द्वारा चित्र में दिखाई है। इससे विदित होता है कि सबसे अधिक परिमाण के बल, जिनकी प्रवृत्ति उसे ऊपर उठाने की ही रहती है, जहाज के पेंदे के निकट पड़ते हैं।

अब मान लीजिए चित्र 2. के अनुसार, समुद्री लहरों के कारण, जहाज किसी विशेष कोण f पर दाहिनी तरफ झुक गया, जिससे पानी की सतह रेखा ती तू हो गई। यदि इसके भीतर लदा हुआ सामान अपने स्थान पर स्थिरता से जमा हुआ है, तो इस हालत में भी उसका गुरुत्वकेंद्र ग स्थान पर ही पूर्ववत्‌ रहेगा, लेकिन जहाज को डुबानेवाली दाब की क्रियात्मक रेखा, मध्य रेखा ज छ से हटकर ग भा रेखा पर आ जाएगी और जहाज के आवरण का त ती चि्ह्रत भाग पानी के दबाव से विमुक्त हो जायगा तथा उसके दूसरी तरफ का तू ता भाग, जिसपर पहले कोई दबाव नहीं था, अब पानी की दाब से प्रभावित होने लगेगा। अत: जहाज के बोझ के कारण पड़नेवाला परिणामी दाब (resultant pressure) छ बिंदु की सीध में पड़ने के बदले छ और ता के बीच में कहीं म बिंदु पर पड़ेगा।

जहाज की स्थिरता (Stability)

उपर्युक्त परिस्थिति को समझते हुए, अब हम जहाज की स्थिरता पर विचार कर सकते हैं। उसे साम्यावस्था में स्थिर रखने के लिये यह आवश्यक है कि अधोगामी गुरुत्व बल तथा ऊर्ध्वगामी उत्प्लावक बल दोनों ही समान और एक ही सीधी रेखा में परंतु विपरीत दिशा में अपना प्रभाव डालनेवाले हों तथा ऐसी भी परिस्थितियाँ होनी चाहिए कि यदि उसकी साम्यावस्था को बिगाड़नेवाली अन्य हलचल होने लगे तो इस प्रकार के बल भी उत्पन्न हो जाएँ जिनस वह फिर से साम्यावस्था में आ जाए।

चित्र 1. में दिखाई गई जहाज की सीधी स्थिति में ऊर्ध्वाधर मध्य रेखा ज ग ख च जहाज के मध्य परिच्छेद क्षेत्र को दो समान क्षेत्रों में बाँट देती हैं। जब उसे त ता रेखा तक लाद दिया जाता है तब तो उसके गुरुत्वकेंद्र ग और उत्प्लावक केंद्र पूर्ववत्‌ ही रहते हैं, किंतु जब समुद्री हवा के कारण वह एक स्वल्प कोण f के बराबर तिरछा हो जाता है तो नई जलरेखा ती तू मूल रेखा त ता से f कोण बनाती हुई मूल रेखा को तिरछी कर देती है। इस स्थिति में गुरुत्वकेंद्र तो अपने पुराने स्थान ग पर ही रहता है, किंतु उत्प्लावक केंद्र ख से हटकर खा पर आ जाता है। अब यदि खा से एक ऊर्ध्वाधर रेखा बनाएँ तो वह जहाज के ढाँचे की मध्य रेखा को च विंदु पर काटेगी। यह इस समय जहाज का अनुप्रस्थ चलकेंद्र (Transverse Metacentre) कहलाएगा और रेखा ग च की लंबाई चलकेंद्रीय ऊँचाई (metacentric height) कहलाएगी, जो जहाज की स्थिरता की गणना करने के लिये बड़ी ही महत्वपूर्ण चीज है। चित्र २ के अनुसार जहाज के तिरछा होने से उसके परिच्छेद का क्षेत्र त ठ ती जो पहले पानी में डूबा था, उधड़ गया और क्षेत्र तू ठ ता, जो पहले उधड़ा हुआ था, अब डूब गया। अत: गणित द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि जब तक ख च > ख ग, अर्थात्‌ जब तक जहाज का गुरुत्वकेंद्र ग, चलकेंद्र च से नीचे है तब तक जहाज स्थिर रहेगा और साधारणतया जैसे जैसे झुकाव का कोण f , 30° तक बढ़ेगा तथा चलकेंद्र की ऊँचाई बढ़ेगी, जहाज की स्थिरता भी बढ़ेगी तथा इससे अधिक झुकाव पर कम होने लगेगी। लेकिन ये सब बातें जहाज की बनावट पर निर्भर करती हैं। कुछ विशेष प्रकार के जहाजों में 40° अथवा 45° तक स्थिरता बढ़ती है और कइयों में 20° तक ही रहती है, फिर घटने लगती है।

संवेदनशीलता (Tenderness) और दुर्नम्यता (Stiffness)

विभिन्न जहाजों में उनकी रचना के अनुसार गुरुत्वकेंद्र तथा चलकेंद्र के बीच का अंतर कुछ इंचों से लेकर 4 फुट तक हुआ करता है। यह अंतर जितना ही अधिक होता है, जहा उतना ही अधिक दुर्नम्य होता है। ऐसे जहाजो में स्थिरता की मात्रा तो काफी अधिक होती है, किंतु उनके लुंठन की अवधि कम होने के कारण आवर्तन अधिक होते हैं। जिनमें उक्त फासला कम होता है वे अधिक संवेदनशील होते हैं किंतु उनकी लुंठन अवधि बड़ी तथा स्थिरता कम होती है।

प्रकार

जहाजों की स्थिरता भी दो प्रकार की होती है, एक तो स्थैतिक (statical) और दूसरी गत्यात्मक (dynamical), प्रत्येक जहाज में दोनों ही प्रकार की स्थिरताओं का होना आवश्यक है।

स्थैतिक स्थिरता

चित्र 2. में हम देखते हैं कि टेढ़े हुए जहाज को पुन: सीधा करने में दो बल खा च और ग भा एक ही बल युग्म के रूप में काम करते हैं, जिसकी भुजा ग ल है। दोनों बल जहाज के समग्र भार के बराबर हैं क्योंकि ग ल = ग च ज्या f । यदि हम जहाज के समग्र भार को भ ट न मान लें तो

स्थैतिक स्थिरता = भ ´ ग च ज्या f होगी।

गत्यात्मक स्थितरता

जहाज में लदे सामान के कम हो जाने से उसका गुरुत्वकेंद्र ऊँचा उठ जाया करता है तथा उप्लावक केंद्र नीचे उतर जाता है। अब यदि कोई बाहरी बल, जो ऊर्ध्वाधर दिशा में नीचे की ओर गुरुत्व केंद्र में से होकर अपना प्रभाव डालता हो, गुरुत्वकेंद्र नीचे को वापस सरका दे और कोई अन्य बाहरी बल, जो ऊर्ध्वाधर दिशा में उत्प्लावक केंद्र में से होकर तथा ऊपर का प्रभाव डालकर उत्प्लावक केंद्र को ऊपर उठा दे, तो ऐसा करने में उन बलों को कुछ कार्य करना पड़ेगा। यदि उक्त केंद्रों के स्थानांतरण की मात्रा फ फुट हो तथा जहाज का भार भ टन हो तो उक्त कार्य की मात्रा भरु फुट-टन होगी। यही उस जहाज की गत्यात्मक स्थिरता का मान होगा, अर्थात्‌ जहाज को टेढ़े से सीधा करने में जितने फुट-टन कार्य करना पड़े वही उसक गत्यात्मक स्थिरता समझी जानी चाहिए।

अनुदैर्ध्य चलकेंद्र (Longitudinal Metacentre)

जहाज की पार्श्वीय लुंठन गति संबंधी स्थिरता पर विचार करने के साथ ही अनुदैर्ध्य दिशा में होनेवाले दोलन संबंधी उसकी स्थिरता पर भी विचार करना आवश्यक है। जहाज के चलते समय उसका उत्प्लावक केंद्र अनुदैर्ध्य रेखा पर आगे पीछे जहाज के दोलन के कारण सरकने लगता है और जहाज का गुरुत्वकेंद्र उसकी मध्य ऊर्ध्वाधर रेखा पर रहता है। अत: उत्प्लावक केंद्र में से अनुदैर्ध्य तल में होकर गुजरनेवाली ऊर्ध्वाधर रेखा जहाँ गुरुत्वकेंद्र की ऊर्ध्वाधर रेखा को काटती है, वहीं जहाज का अनुदैर्ध्य चलकेंद्र समझा जाता है। इसकी स्थिति को जानने का वही तरीका है जो अनुप्रस्थ चलकेंद्र को जानने के लिये प्रयुक्त होता है। इसका उपयोग जहाज की अनुदैर्ध्य नति जानने के के लिये किया जाता है।

अनुदैर्ध्य स्थायित्व (Longitudinal Stability)

किसी विशेष डुबाव (draught) पर जब जहाज लंबाई की दिशा में एक तरफ झुक जाता है, तब वह फिर अपने अनुदैर्ध्य स्थायित्व गुण के कारण अपनी सामान्य जलतल रेखा पर आने की चेष्टा करता है। इस गुण को उचित मात्रा में बनाए रखने के लिये उसपर लदे भारों को इधर उधर सरकाकर समायोजित करना होता है। जहाज निर्माण करते समय उसकी अनुदैर्ध्य मध्य रेखा की दिशा में एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक, अर्थात्‌ जहाज की पूरी लंबाई भर में, बहुत से जलाभेद्य कक्ष बना दिए जाते हैं, जिनमें से उपयुक्त एक, दो, अथवा अधिक में आवश्यकता समुद्री पानी भरकर जहाज की नति (trim) को सम कर दिया जाता है, ठीक उसी प्रकार जैसे हम किसी तुलादंड पर जहाँ तहाँ अनेक बोझे उपयुक्त प्रकार से लटकाकर उसे संतुलित कर दिया करते हैं। चित्र 3. में प फ ब भ जहाज की अनुदैर्ध्य काट है, जिसमें बराबर बराबर नाप के आठ जलाभेद्य कक्ष है और क का उसकी जल-तल-रेखा है। अब यदि किसी कारण चित्र 4. के अनुसार वह जहाज आगे की तरफ, फ भ सिरे पर झुक जाता है, तो उसके पीछेवाले, 1, 2, 3, अथवा 4 कक्ष में उचित मात्रा में पानी भर कर उसे पूर्ववत्‌ सम किया जा सकता है। किंतु पहले जो उसकी जल तल रेखा क का थी, अब अधिक बोझ के कारण डूब जाएगी और उसकी नई जल तल रेखा ग गा हो जाएगी; तथापि जहाज के पुन: संतुलित होने के कारण उसकी अनुदैर्ध्यास्थिरता बढ़ जाएगी।

चित्र:40665-3.jpg
अनुदैर्ध्य स्थायित्व

चित्र. 3

आरक्षित उत्प्लावकता (Reserved Buoyancy)

साधारण प्रकार से पानी में तैरते समय जहाज का जितना हिस्सा पानी में डूबा रहता है, उसी के अनुपात से उसे उत्प्लावकता की मात्रा प्राप्त होती है। यदि जहाज को किसी प्रकार से कुछ और नीचा निमज्जित कर दिया जाय, तो उसकी उत्प्लावकता की मात्रा बढ़ जायगी।

चित्र:40665-2.jpg
आरक्षित उत्प्लावकता

चित्र. 4

अत: उत्प्लावकता की यह अतिरिक्त महत्तम मात्रा, आरक्षित उत्प्लावकता कहलाती है, जिसका सदुपयोग आपातिक अवसरों पर किया जा सकता है। हम देखते हैं कि समुद्री पानी की सतह की रेखा के ऊपर भी दो डेक बने होते हैं, जो चारों तरफ से जलाभेद्य होते हैं और जिनके बीच हवा भरी रहती है। अत: उनके बीच बंद हवा के, जो पानी की सतह के ऊपर है, आयतन के अनुसार ही आपेक्षित उत्प्लावकता की मात्रा समझी जाती है। इसलिये जिस जहाज में जितनी ही अधिक आरक्षित उत्प्लावकता की मात्रा उपलबध रहे, उतनी ही अधिक उस जहाज की निरापदता समझी जानी चाहिए।

शीर्षांतर (Free Board)

प्रत्येक जहाज अपने वर्ग की मानक विशिष्टियों (standard specifications) के अनुसार ही बनाया जाता है, किंतु फिर भी माल ढोनेवाले जहाज को बनाते समय आरंभ से ही इसका अनुमान लगाया जाता है कि उसमें अधिक से अधिक कितना भाल ले जाया जाएगा और उसी के अनुसार यह निश्चित कर लिया जाता है कि पानी में तैरते समय पूरे लदे हुए जहाज का कितना भाग पानी में डूबा रहने देना चाहिए। अत: उत्प्लावकता की कम से कम जितनी भी मात्रा निश्चित की जाती है। जहाज की सुरक्षा के लिये आरक्षित उत्प्लावकता के अतिरिक्त उसकी जाति के अनुसार बनावट, ढंग और मजबूती पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है।

कोई जहाज बंदरगाह के भीतर शांत समुद्री पानी में जब अधिक से अधिक डूबा रहता है, उस समय जहाज की लंबाई के मध्यभाग में, ऊपरी डेक के किनारे से पानी की सतह तक की उधड़ी दूरी उसका शीर्षांतर कहलाती है। इस शीर्षांतर के परिमाण को प्रदर्शित करने के लिये जहाजों के पार्श्व में, उनकी आवरणप्लेट पर कुछ संकेत रेखाएँ बना दी जाती हैं, जिन्हें प्लिम्सॉल रेखा और लॉयड का चक्र (Lloyd's disc) कहते हैं (देखें चित्र 5.)। ये रेखाएँ काफी चौड़ी हुआ करती हैं। इंग्लैंड की पार्लियामेंट के एक सदस्य श्री प्लिम्सॉल (Plimsoll) ने 1868 ई. में जहाजी यात्रियों की जान और माल की सुरक्षा के लिये पार्लियामेंट में एक प्रस्ताव पास करवाया कि प्रत्येक जहाज पर एक सुरक्षा-भार-रेखा अवश्य होनी चाहिए। 1890 ई. में कुछ नियम बने, जिसके अनुसार जहाज पर उतना माल लादने की ही आज्ञा दी गई जितने में जहाज उस रेखा तक ही डूब सके। इन रेखाओं के पास एक गोल प्लेट प्लेट भी होती है, जिसके क्षैतिज व्यास के दोनों छोरों पर L और R अक्षर लिखे होते हैं। इस व्यासीय रेखा का ऊपरी किनारा ही वह सीमा है जहाँ तक जहाज को माल लादने के बाद पानी में अधिक से अधिक डुबाना चाहिए।

चित्र:40665-1.gif
शीर्षांतर

चित्र. 5

यह रेखा लायड्स्‌ रजिस्टर ऑव शिपिंग से तय होती है। चित्र में दिखाए अनुसार जहाज के ऊपरी किनारे से रेखा के ऊपरी किनारे तक का फासला B, जहाज का शीर्षांतर है। ताजा पानी समुद्री पानी से हल्का होता है और गरम पानी ठंढे पानी से हलका होता है, अत: बगल में अनेक पानियों और मौसिमों के लिये अलग अलग रेखाएँ खिंची होती हैं, जिनपर उनके सूचक अक्षर निम्नलिखित प्रकार से लिखे होते हैं। T F = उष्ण कटिबंधीय ताजा पानी, F = ताजा पानी, T = उष्ण कटिबंधीय समुद्री पानी, S = ग्रीष्म ऋतु में समुद्री पानी, W = शरद् ऋतु में समुद्री पानी, W N A = 350 फुट से छोटे जहाजों के लिये उत्तरी ऐटलांटिक में शरद् ऋतु में समुद्री पानी।

जहाजों को पानी में चलाने के लिये अश्वशक्ति की गणना

जब जहाज पानी में उतराया हुआ होता है तब उसकी भीगी हुई सतह (wetted surface) के अनुपात से ही उसका आवरण प्रतिरोध (skin resistance) भी हुआ करता है। साधारण गति पर यह प्रतिरोध एक पाउंड प्रति वर्ग फुट के लगभग हुआ करता है। अत: जहाज की अश्वशक्ति=(भीगी सतह का क्षेत्रफल * गति प्रति सेकंड़ फुटों में)/550 इस सूत्र में इंजनों की कार्यक्षमता पर विचार नहीं किया गया है। वास्तव में भीगी सतह के प्रति वर्ग फुट पीछे एक पाउंड अवरोध की दर कुछ ऊँची ही पड़ती है, किंतु जब इंजन आदि के अन्य अवरोध भी गिन लिए जाते हैं तो उक्त दर ठीक ही पड़ जाती है। प्रयोगों द्वारा मालूम हुआ है कि साधारण प्रकार की बारीकियों पर विचार करते हुए 100 वर्ग फुट भीगी सतहवाले जहाज का यदि 10 नॉट (knot) प्रति घंटे की गति से चलाया जाय तो उसमें लगभग 5 सूचित अश्व शक्ति (Indicated Horse Power) खर्च होती है। यदि इससे भी तीव्र गति पर चलाया जाय तो सू. अ. श. की मात्रा गति के धन (cube) के अनुपात से होगी। उदाहरणत:, यदि किसी जहाज की भीगी सतह 4800 वर्ग फुट हो तो उसे 10 नॉट की रफ्तार से चलाने के लिये ((4800/100)*5)= 240 सू. अ. श. चाहिए और उसी को यदि 15 नॉट प्रति घंटा चलाएँ, तो सू. अ. श. =((103)*240)/153=810 सू. अ. श. चाहिए।

जहाजों का समग्र भार

जहाजों के समग्र भाग को व्यक्त करने के कई तरीके प्रचलित हैं, जिनें से प्रमुख तरीकों का वर्णन नीचे किया जाता है:

  1. जहाज का टन मान अर्थात्‌ टन भार (Tonnage)-जहाज पर पूरा ईधंन, पानी, स्टोर तथा कार्यकर्ताओं को लादने के बाद वह जितने घन फुट समुद्री पानी को विस्थापित करता है उस पानी के भार के बराबर ही उसका टन मान होगा। यदि जहाज की डूबी हुई सतह का आयतन घनफुट में मालूम करके उस आयतन में ३५ का भाग दें तो भागफल जहाज का टनमान हेगा, क्योंकि ३५ घन फुट समुद्र जल का भार एक टन हुआ करता है। यह तरीका जंगी जहाजों के लिये बरता जाता है।
  2. लदान का कुल टन भार (Gross Tonnage)- जहाज के भीतरी खाली आयतन को, जिसमें सामान भरा जा सकता है, १०० घन फुटों से भाग देने पर लादान का टन भार मालूम हो जाता है, क्योंकि व्यापारी माल जहाजों में १०० घन फुट जगह एक टन के बराबर समझी जाती है।
  3. पंजीकृत शुद्ध टन भार (Net Registered Tonnage)- इस इकाई के द्वारा जहाजों की उपार्जन क्षमता (earning capacity) नापी जाती है। इसमें जहाज के उस भीतरी खाली जगह के आयतन पर विचार किया जाता है, जिसमें वह माल और मुसाफिर भरकर ले जा सकता है। यह भी उसके लदान का कुल टन भार ही है। इस गणना में उसके संयंत्र, यंत्रोपकरण, कार्यकर्ताओं के आवास, सब प्रकार के पुल, औजार, गोदाम आदि की जगह छोड़ दी जाती है। इस विधि से बंदरगाहों के शुल्क और नहरों के करों की गणना की जाती है।
  4. अचल टन भार (Dead Weight Tonnage)- जहाज के राज्यानुमोदित डुबान पर तैरते समय जितना माल, मुसाफिर, कर्मचारी, स्टोर, ईधंन और पानी लेकर वह जहाज चल सकता है, अर्थात्‌ जो सामान खाली किया जा सकता है और खर्च हो सकता है, उसका भार इस गिनती में आ जाता है।
  5. प्रति इंच निमज्जन टन भार (Tons per inch immersion)- इस विधि में, जहाज की प्रति इंच गहराई को जल में निमज्जित करने के लिये जितने भार की आवश्यकता होती है, उसकी गणना की जाती है। यह विभिन्न डुबान के तलों पर भिन्न भिन्न हुआ करती है। इस प्रकार की एक सारणी जहाज बनते समय ही तैयार कर ली जाती है।
  6. कर्ण-संचालन-बल (Power required for steering)- जहाजों का कर्णसंचालन उसके सुकान (rudder) द्वारा हुआ करता है, जो जहाज के पिछले खंभे (कुदास) से कब्जों द्वारा जुड़ा रहता है। जहाज के चलते समय जो पानी उसके अगवाड़ों (bows) द्वारा ढकेला जाता है वह जहाज की बगलियों के सहारे बहकर उसके धावनपथ (run) में, जहाँ रडर लटका होता है, आ जाता है। अत: इस पानी की दाब रडर तथा जहाज के पिछले अंगों पर पड़ती है, जिस कारण जहाज का शीर्ष भाग (ship's head) आगे की तरफ चलता है। यदि जहाज का पिछला भाग अधिक डूबा हुआ हो, तो कर्णसंचालन में अधिक जोर पड़ता है, अत: उस समय रडर को कुछ ऊपर खींचना पड़ता है। जिस जहाज में एक अथवा तीन प्रणेदित्र पंखे लगे हों उसमें बीचवाले पंखे के लिये भी फ्रेम में जगह छोड़नी होती है। अत: आगे की तरफ से बहकर आनेवाली पानी की धारा उसके खाँचे में घुसने लगती है, जिससे कर्ण संचालन में अधिक जोर पड़ने लगता है और जहाज को ढकेलनेवाले पानी की दाब कम हो जाती है। जिनमें यह खाँचा नहीं होता उनमें पानी, जहाज को पीछे से, अधिक बल से ढकेलता है। जहाज जितना ही अधिक तेजी से पानी में चलता है उसका कर्णसंचालन उतनी ही अधि सुविधा से किया जा सकता है, किंतु जहाज की दिशा बदलने में उतनी ही अधिक कठिनाई भी होती है। कर्णसंचालन के समय रडर को सीधे मार्ग से 37° से अधिक कभी नहीं मोड़ा जाता, जल्दी दिशा बदलने के लिये 30° तक घुमाना काफी समझा जाता है। रडर को जल्दी से घुमाना भी खतरनाक होता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

सं. ग्रं. - ए. ई. सीटन: मैनुअल ऑव मैराइन इंजीनियरिंग।