भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-20

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7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु

9. विषयेष्वाविशन् योगी नानाधर्मेषु सर्वतः।
गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुव्।।
अर्थः
सुख, दुःख आदि नाना धर्मवाले विषयों के बीच बरतने वाला योगी वायु की तरह उनके गुण-दोषों से सर्वथा अलिप्त रहे।
 
10. प्राणवृत्यैव संतुष्येत् मुनिर् नैवेंद्रिय-प्रियैः।
ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत् वाङ् मनः।।
अर्थः
जितने भर से ज्ञान नष्ट न हो और मन तथा वाणी की शक्ति क्षीण न हो, मुनि उतनी ही प्राण-धारण-वृत्ति (आहार आदि) से संतोष माने। इंद्रियों के चोचले न करे।
11. अंतर्हितश्च स्थिरजंगमेषु व्रह्मात्मभावेन समन्वयेन।
व्याप्त्याव्यवच्छेदं असंगमात्मनो मुनिर् नभस्त्वं विततस्य भावयेत्।।
अर्थः

ब्रह्मात्मभावरूप समन्वयसूत्र से सर्व चराचर वस्तुओं में भरा रहने वाला मुनि (अपने) व्यापक आत्मा की व्याप्ति से निःसीम और निर्लिस ऐसे आकाशवत् स्वरूप की भावना करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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