महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 160 श्लोक 21-44

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षष्‍टयधिकशततम (160) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-44 का हिन्दी अनुवाद

रूद्र का पराक्रम देखकर ॠषियोंसहित सम्‍पूर्ण देवता थर्रा उठे । फिर उन श्रेष्‍ठ देवताओं ने भगवान शिव को प्रसन्‍न किया। उस समय देवता लोग हाथ जोड़कर शतरूद्रिय का जप करने लगे । देवताओं के द्वारा अपनी स्‍तुति की जाने पर महेश्‍वर प्रसन्‍न हो गये। राजन ! देवतालोग भय के कारण मारे भगवान शंकर की शरण में गये । उन्‍होंने यज्ञ में रूद्र के लिये विशिष्‍ट भाग की कल्‍पना की (यज्ञावशिष्‍ट सारी सामग्री रूद्र के अधिकार में दे दी )। भगवान शंकर के संतुष्‍ट होने पर वह यज्ञ पुन: पूर्ण हुआ । उसमें जिस-जिस वस्‍तु को नष्‍ट किया गया था, उन सबको उनहोंने पुन: पूर्ववत जीवित कर दिया। पूर्वकाल में बलवान असुरों के तीन पुर (विमान) थे; जो आकाश में विचरते थे । उनमें से एक लोहे का, दूसरा चाँदी का और तीसरा सोने का बना हुआ था। इन्‍द्र अपने सम्‍पूर्ण अस्‍त्र-शस्‍त्रों का प्रयोग करके भी उन पुरों पर विजय न पा सके । तब पीड़ित हुए समस्‍त देवता रूद्रदेव की शरण में गये। तदनन्‍तर वहाँ पधारे हुए सम्‍पूर्ण महामना देवताओं ने रूद्रदेव से कहा- ‘भगवन रूद्र ! पशुतुल्‍य असुर हमारे समस्‍त कर्मों के लिये भयंकर हो गये हैं और भविष्‍य में भी ये हमें भय देते रहेंगे ।
अत: मानद ! हमारी प्रार्थना है कि आप तीनों पुरों‍सहित समस्‍त दैत्‍यों का नाश और लोकों की रक्षा करें ‘। उनके ऐसा कहने पर भगवान शिव ने ‘तथास्‍त’ कहकर उनकी बात मान ली और भगवान विष्‍णु को उत्तम बाण, अग्नि को उस बाण का शल्‍य, वैवस्‍वत यम को पंख, समस्‍त वेदों को धनुष, गायत्री को उत्तम प्रत्‍यंचा और ब्रह्मा को सारथि बनाकर सबको यथावत रूप से अपने-अपने कार्यों में नियुक्‍त करके तीन पर्व और तीन शल्‍यवाले उस बाण के द्वारा उन तीनों पुरों को विदीर्ण कर डाला। भारत ! वह बाण सूर्य के समान कान्तिमान और प्रलयाग्नि के समान तेजस्‍वी था । उसके द्वारा रूद्रदेव ने उन तीनों पुरों‍सहित वहाँ के समस्‍त असुरों को जलाकर भस्‍म कर दिया। फिर वे पाँच शिखावाले बालक के रूप में प्रकट हुए और उमादेवी उन्‍हें अंक में लेकर देवताओं से पूछने लगीं – ‘पहचानो, ये कौन हैं ? ‘उस समय इन्‍द्र को बड़ी ईर्ष्या हुई । वे वज्र से उस बालक पर प्रहार करना ही चाहते् थे कि उसने परिघ के समान मोटी उनकी उस बाँह को वज्रसहित स्‍तम्भित कर दिया। समस्‍त देवता और प्रजा‍पति उन भुवनेश्‍वर महादेवजी को न पहचान सके । सबको उन ईश्‍वर के विषय में मोह छा गया। तब भगवान ब्रह्मा ने ध्‍यान करके उन अमित-तेजस्‍वी उमापति को पहचान लिया और ‘ये ही सबसे श्रेष्‍ठ देवता हैं ‘ ऐसा जानकर उन्‍होंने उनकी वन्‍दना की।
तत्‍पश्‍चात उन देवताओं ने उमादेवी और भगवान रूद्र को प्रसन्‍न किया । तब इन्‍द्र की वह बाँह पूर्ववत हो गयी। वे ही पराक्रमी महादेव दुर्वासा नामक ब्राह्मण बनकर द्वारकापुरी में मेरे घर के भीतर दीर्घकाल तक टिके रहे। उन्‍होंने मेरे महल में मेरे विरूद्ध बहुत-से अपराध किये । वे सभी अत्‍यन्‍त दु:सह थे तो भी मैंने उदारतापूर्वक क्षमा किया। वे ही रूद्र है, वे ही शिव हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही सर्वस्‍वरूप और सर्वविजयी हैं । वे ही इन्‍द्र और वायु हैं, वे ही अश्विनीकुमार और विद्युत हैं। वे ही चन्‍द्रमा, वे ही ईशान, वे ही सूर्य , वे ही वरूण, वे ही काल, वे ही अन्‍तक, वे ही मृत्‍यु, वे ही यम तथा वे ही रात और दिन हैं। मास, पक्ष, ॠतु, संध्‍या और संवत्‍सर भी वे ही हैं । वे ही धाता, विधाता, विश्‍वकर्मा और सर्वज्ञ हैं। नक्षत्र, गृह, दिशा, विदिशा भी वे ही हैं । वे ही विश्‍वरूप, अप्रमेयात्‍मा, षड्विध ऐश्‍वर्य से युक्‍त एवं परम तेजस्‍वी हैं। उनके एक, दो अनेक, सौ, हजार और लाखों रूप हैं। भगवान महादेव ऐसे प्रभावशाली हैं, बल्कि इससे भी बढकर हैं । सैकड़ों वर्षों में भी उनके गुणों का वर्णन नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार श्री महाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व में ईश्‍वर की प्रशंसा नामक एक सौ साठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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