महाभारत वन पर्व अध्याय 291 श्लोक 36-56

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एकनवत्यधिकद्विशततम (291) अध्याय: वन पर्व (रामोख्यानपर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 36-56 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


दशरथजी बोले- वत्स ! मैं तुम्हारा पिता दशरथ हूँ, तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारा कल्याण हो। पुरुषोत्तम ! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि अब तुम अयोध्या का राज्य करो। श्रीरामचन्द्रजी ने कहा- राजेन्द्र ! यदि आप मेरे पिता हैं तो मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आपकी आज्ञासे अब मैं रमणीय अयोध्यापुरी को लौट जाऊँगा । मार्कण्डेयजी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर ! तदनन्तर पिता दशरथ ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कुछ-कुद लाल नेत्रों वाले श्रीरामचन्द्रजी से पुनः कहा- ‘महाद्युते ! तुम्हारे वनवास के चैदह वर्ष पूरे हो गये हैं। अब तुम अयोध्या जाओ और वहाँ का शासन अपने हाथों में लो’। तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी ने देवताओं को नमस्कार किया और सुहृदों से अभिनन्दित हो अपनी पत्नी सीता से मिले, मानो इन्द्र का शची से मिलन हुआ हो । इसके बाद परंतक श्रीराम ने अविन्ध्य को अभीष्ट वरदान दिया और त्रिजटा राक्षसी को धन और सम्मान से संतुष्ट किया। यह सब हो जाने पर इन्द्र देवताओं सहित ब्रह्मा ने भगवान राम से कहा- ‘कौसज्यानन्दन ! कहो, आज मैं तुम्हें कौन-कौन से अभीष्ट वर प्रदान करूँ ?’ तब श्रीरामचन्द्रजी ने उनसे ये वर माँगे- ‘मेरी धर्म में सदा स्थिति रहे, शत्रुओं से कभी पराजय न हो तथा राक्षसों के द्वारा मारे गये वानर पुनः जीवित हो जायँ’। यह सुनकर ब्रह्माजी ने कहा- ‘ऐसी ही हो।’ महाराज ! उनके इतना कहते ही सभी वानर चेतना प्राप्त करके जी उठे । महायौभाग्यवती सीता ने भी हनुमान्जी को यह वर दिया- ‘पुत्र ! जब तक इस धरातल पर भगवान श्रीराम की कीर्ति बनी रहेगी, तब तक तुम्हारा जीवन स्थिर रहेगा । ‘पिंगलनयन हनुमान् ! मेरी कृपा से तुम्हें सदा ही दिव्य भोग प्राप्त होते रहेंगे’। तदनन्तर अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले वानरों के देखते-देखते वहाँ इन्द्र आदि सब देवता अनतर्धान हो गये । श्रीरामचन्द्रजी को जनकनन्दिनी सीता के साथ विराजमान देख इन्द्र सारथि मातलि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने सब सुहृदों के बीच में इस प्रकार कहा- ‘सत्यपराक्रमी श्रीराम ! आपने देवता, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, असुर और नाग- इन सबका दुःख दूर कर दिया है । ‘जब तक यह पृथ्वी रहेगी, तब तक देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा नागों सहित सम्पूर्ण जगत् के लोग आपकी कीर्ति कथा का गान करेंगे’। ऐसा कहकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा ले उनकी पूजा करके सूर्य के समान तेजस्वी उसी रथ के द्वारा मातलि स्वर्गलोक को चला गया । तदनन्तर जितेन्द्रिय भगवान श्रीराम ने लंकापुरी की सुरक्षा का प्रबन्ध करके लक्ष्मण, सुग्रीव आदि सभी श्रेष्ठ वानरों, विभीषण तथा प्रधान-प्रधान सचिवों के साथ सीता को आगे करके इच्छानुसार चलने वाले, आकाशचारी, शोभाशाली पुष्पविमान पर आरूढ़ हो उसी के द्वारा पूर्वोक्त सेतुमार्ग से ऊपर-ही-ऊपर पुनः मकरालय समुद्र को पार किया । समुद्र के इस पार आकर धर्मात्मा श्रीराम ने पहले जहाँ शयन किया था, उसी स्थान पर सम्पूर्ण वानरों के साथ विश्राम किया । फिर श्रीरघुनाथजी ने यथासमय सबको अपने पास बुलाकर सबका यथायोग्य आदर सत्कार किया तथा रत्नों की भेंट से संतुष्ट करके सभी वानरों और रीछों को विदा किया । जब वे रीछ, श्रेष्ठ वानर और लंगूर चले गये, तब सुग्रीव सहित श्रीराम ने पुनः किष्किन्धापुरी को प्रस्थान किया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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