गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 196

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गीता-प्रबंध
20.समत्व और ज्ञान

इस सत्य को प्रमाणों के द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती , इसको अपने आंतरिक जीवन में उतारना होता है, यह वह महत्तर सद्वस्तु है जिसमें हमें सवंर्द्धित होना है। फिर भी यह सत्य अपने - आपमें स्थित है और यदि हम अपने आान के इन्द्रजाल में न फंसे होते तो यह स्वंसिद्ध होता ।जो संशय और मोह हमें इस सत्य को स्वीकार करने और इसका अनुसरण करने से रोकते हैं, वे अज्ञान से , इनिद्रयविमोहित और मतवादविमूढ़ मन और हृदय से उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इनकी स्थिति निम्न और बाह्म सत्य में है और इसलिये उच्चतर सद्वस्तु के विषय में इन्हें संशय होता है, जिनके सत्य को जानने से सब कुछ जाना जाता है, उन परमात्मा के साथ एकत्व में निवास कर, सतत योगस्थ होकर, अनुभवगम्य ज्ञान के द्वारा , इस संशय की ज्ञान की तलवार से काट डालना होगा ऐसा गीता कहती है।हमें वहां जो उच्चतर ज्ञान प्राप्त होता है वह ब्रह्मवित् पुरूष के लिये पदार्थ - मात्र को देखने की वह स्थायी दृष्टि है जो उसे ब्रह्म में निर्बाध रूप से स्थित होने पर प्राप्त होती है, यह सब का बहिष्कार कर केवल ब्रह्म का दर्शन , या चेतना या ज्ञान नहीं है, बल्कि सब कुछ को ब्रह्म में आत्मवत् देखना है। यहां कहा गया है।
कि जिस ज्ञान के द्वारा हम लोग उस स्थिति में पहुंचते हैं जहां से फिर इस मानसिक प्रकृति के मोहजाल में लौटना नहीं होता, वही वह ज्ञान है ‘‘जिसे तू सर्वभूतों को अशेष रूप से आत्मा के अंदर और फिर मेरे अंदर देखेगा।”[१]इसी बात को गीता ने अन्यत्र और भी अधिक विस्तृत रूप से इस प्रकार कहा है कि, ‘‘सर्वत्र समदर्शी पुरुष सब भूतों में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में सब भूतों को देखता है। जो कोई मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मेरे अंदर देखता है वह कभी मुझे नहीं खोता, न मैं उसे खोता हूं। जो एकत्व को प्राप्त योगी सब भूतों में स्थित मुझको भजता है वह चाहे जैसे रहे या करे पर मेरे ही अंदर रहता और कर्म करता है। हे अर्जुन! जो कोई सुख में, दुःख में, सर्वत्र, सबको अपनी ही तरह समान रूप से देखता है उसीको मैं परम योगी मानता हूं।”1[२] यही उपरिषद् का पुरातन वैदांतिक ज्ञान है जिसे गीता सतत हम लोगों के सामने रखती है; परंतु वेदांत - ज्ञान के जो निरूपण पीछे हुए उनकी अपेक्षा गीता की श्रेष्ठता इस विषय में यही है कि गीता ने इस ज्ञान को दिव्य जीवन का एक महान् व्यवहार - शास्त्र बना दिया है। इस एकत्व - ज्ञान और कर्मयोग के परस्पर - संबंध के विषय में गीता का विशेष आग्रह है और इसीलिये जगत् में मुक्त कम के आधार के रूप में एकत्व के ज्ञान पर जोर दिया गया है। जहां - जहां गीता ज्ञान की बात कहती है वहीं - वहीं ज्ञान की बात भी कहती है, जो ज्ञान का फल है ;


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 24.35
  2. 629, 32

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