गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 206

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गीता-प्रबंध
21.प्रकृति का नियतिवाद

इस प्रकार जिसे हम सामान्यतः जीव या आत्मा कहते हैं वह हमारे अंदर रहने वाला कामनामय पुरूष है जो प्रकृति के कार्यो पर पुरूषचैतन्य का प्रतिबिम्ब है। यथार्थ में यह स्वयं त्रिगुण का एक कर्म है और और इसलिये प्रकृति का ही अंग है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हमारे दो पुरूष हैं, एक प्रतीयमान पुरूष या कामनामय पुरूष जो गुणों के परिवर्तन के साथ बदलता है और सर्वथा उन गुणों से ही बना हुआ और उन्हीं के द्वारा नियंत्रित है, और दूसरा नित्यमुक्त सनातन पुरूष जो प्रकृति और उसके गुणों से कभी बद्ध नहीं होता। हमारी दो आत्माएं हैं, एक प्रतिभासिक आत्मा है जो केवल अहंकार है अर्थात् हमारे अदंर वह मनोगत केन्द्र जो प्रकृति की इस परिवर्तनशील क्रिया को, इस परिवर्तनशील व्यक्तित्व को अपने ऊपर ओढ़ लेता है और कहता है कि , ‘‘ मैं यह व्यक्ति हूं मैं इन सब कर्मो का कर्ता प्राकृत पुरूष हूं” ,- परंतु प्राकृत सदात्मा है जो वास्तव में प्रकृति का भर्ता , भोक्ता, ईश्वर है; वह प्रकृति में रूपान्वित है पर स्वयं परिवर्तनशील प्राकृत व्यक्ति नहीं है। अतः मुक्त होनेका मार्ग इस कामनायम पुरूष की कामनाओं तथा अहंकार के मिथ्या - आत्मबोध से मुक्त होना ही है, इसलिये भगवान् गुरू पुकार कर कहते हैं कि , ‘‘ कामना और अहंता से मुक्त हो, विगतज्वर हो, युद्ध कर – हमारी सत्ता के विषय में यह मत संख्य के उस विश्लेषण से शुरू होता है, जिसमें हमारे स्वभाव के द्विविध तत्व पुरूष और प्रकृति बताये गये हैं।
पुरूष अकर्ता है, प्रकृति कन्नीं है। पुरूष वह सत्ता जो चैतन्य के प्रकाश से भरपूर है, प्रकृति जड़ है और अपने सब कर्म चिन्मय साक्षी पुरूष में प्रतिभासित करती है। प्रकृति के ये कर्म उसके गुणों की विषमता के द्वारा होते हैं और सदा एक - दूसरे से टकराते , एक - दूसरे में मिलते और एक - दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं। और प्रकृति की अहं -बुद्धि का कर्म पुरूष को इन कर्मो के साथ एकात्म करके आत्मा की प्रशांत सनातन सत्ता में कर्ता, विकारी, क्षणस्थायी व्यष्टि - पुरूष के होने की प्रतीति उत्पन्न करता है। अशुद्ध प्राकृत चेतना विशुद्ध आत्मचैतन्य को मेघाच्छादित कर देती है, मन अहंकार और व्यक्तित्व में ‘ पुरूष’ को भूल जाता है। हम अपनी विवेक- बुद्धि को इन्द्रियश्रित मन और उसकी बहिर्मुखी क्रियाओं तथा प्राण शरीर की कामनाओं के साथ बह जाने देते हैं। जबतक पुरूष इस प्रकार की क्रिया को अनुमति देता है तबतक अहंकार और कामना तथा अज्ञान ही हमारी प्राकृत सत्ता का नियंत्रण करते हैं। परंतु यदि इतनी ही बात होती तो इसको यही दवा है कि हम अनुमति देना बंद कर दें और इस तरह अपनी सारी प्रकृति को त्रिगुण की निश्चल साम्यावस्था में जा गिरने दें या गिरने के लिये बाधित करें और इस प्रकार सब कर्म समाप्त हो जायें। परंतु ठीक यही वह दवा है जिसका प्रयोग करने के लिये गीता हमें निरूत्साहित करती है, क्योंकि यद्यपि यह दवा तो है, पर है ऐसी जो रोग के साथ रोगी का भी खातमा कर देती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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