गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 207
विशेषकर यदि यह सत्य अज्ञानियों पर लाद दिया जाये तो वे तामसिक अकर्मण्यता की ही शरण लेंगे, उनका ‘बुद्धिभेद’ होगा - उनकी बुद्धि में एक मिथ्या भेद, एक झूंठा विरोध उत्पन्न होगा; उनके उनके सक्रिय स्वभाव और बुद्धि एक - दूसरे के विरोधी हो जायेंगे और फलस्वरूप व्यर्थ का विक्षोभ और संकर पैदा हो जायेगा, मिथ्या और आत्म - प्रतारक कर्म होने लगेंगे या फिर तामसिक जड़ता छा जायेगी, कर्मो का अंत हो जायेगा, जीवन और कर्म के पीछे जो संकल्प हे वह क्षण हो जायेगा और इसलिये इस सत्य के द्वारा उन्हें मुक्ति तो नहीं मिलेगी, मिलेगी केवल गुणों में सबसे निकृष्ट तमोगुण की अधीनता । अथवा ये लोग कुछ न समझेंगे और इस उच्च शिक्षा में ही दोष निकालेंगे , इसके विरूद्ध अपने वर्तमान मानसिक अनुभव के पक्ष को तथा स्वतंत्र इच्छासंबंधी अपने अज्ञानमय विचार को ला खड़ा करेंगे। फलतः अहंकार और काम के मोह तथा कष्टजाल में पडे़ हुए ये अज्ञान का और भी जोरदार और हठी समर्थन करने लगेंगे और अपनी मुक्ति का अवसर खो देगें।वास्तव में ये उच्चतर सत्य चेतना और सत्ता के उच्चतर और विशालतर स्तर पर ही सहायक हो सकते हैं , क्योंकि ये वहीं अनुभवगम्य और जीवनसाध्य हो सकते हैं।
ऊपर के इन सत्यों को नीचे से देखना इन्हें गलत देखना, गलत समझाना और शायद इनका दुरूपयोग करना है। मानव - जीवन , पशुभाव और दिव्य भाव के बीच की संक्रमण अवस्था है और यह एक उच्चतर सत्य है कि शुभ और अशुभ का भेद अहंभावापन्न मानव - जीवन के लिये एक व्यावहारिक तथ्य और प्रामाणिक धर्म है, पर इससे ऊपर की भूमिका में हम शुभ - अशुभ के ऊपर उठ जाते हैं और इन द्वन्द्वों की पहुंच के परे हो जाते हैं जैसे ईश्वर सदा इसके ऊपर रहता है। परंतु यह सत्य निम्न चेतना में व्यावहारिक रूप से मान्य नहीं है, उस भूमिका से ऊपर उठे बिना ही जो अपरिपक्व मन इस सत्य को पकड़ने जायेगा वह इस सत्य को अपनी आसुरी प्रवृत्तियों को प्रश्रय देने के लिये,शुभ और अशुभ के भेद को सर्वथा अस्वीकार करने के लिये और भोगविलास के द्वारा विनाश के गहरे दलदल में जा गिरने के लिये सुविधाजनक एक बहाना बना लेगा।[१] यह बात प्रकृति के नियतिवाद के सत्य पर लागू होती है । लोग इसे भी गलत देखेंगे और इसका दुरूपयोग करेंगे जैसे वे लोग करते हैं जो कहते हैं कि मनुष्य वैसा ही है जैसा उसकी प्रकृति ने उसे बना रखा है, प्रकृति उसे जो कुछ करने के लिये विवश करती है उसके सिवाय वह और कुछ कर ही नहीं सकता।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3.32